केरल के सबरीमला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जो स्थिति देखी जा रही है वह वाकई बेहद गंभीर, सोचनीय और काफी हद तक अराजक ही है। अराजकता के लिये कोई एक पक्ष जिम्मेवार नहीं है बल्कि हर तरफ से मामले में असंवेदनशीलता का ही प्रदर्शन हो रहा है। अगर सर्वोच्च न्यायालय ने एकतरफा सुनवाई करके फैसला दिया और बाद में इस पर पुनर्विचार याचिका को स्वीकार कर लिया तो कायदे से उसे 28 सितंबर को दिये गये अपने फैसले पर तब तक के लिये स्टे लगा देना चाहिये था जब तक अंतिम तौर पर निर्णायक फैसला नहीं आ जाता। लेकिन ऐसा करने के बजाय सर्वोच्च न्यायालय ने सभी 49 पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई के लिये अगले साल की 22 जनवरी तक का लंबा समय दे दिया और मंदिर में महिलाओं का प्रवेश बाधित किये जाने को असंवैधानिक बताने वाले अपने 28 सितंबर को दिये गये फैसले को यथारूप में लागू रहने दिया। दूसरी ओर जब अदालत में मामला विचाराधीन है तो 28 सितंबर को सामने आए विवादास्पद फैसले को लागू कराने को लेकर केरल सरकार द्वारा हरसंभव हथकंडा अपनाया जाना भी अराजकता की स्थिति ही उत्पन्न कर रहा है जिसे लागू करने को लेकर अंतिम फैसला आना अभी बाकी है। इस सबसे अलग सबरीमला मंदिर में दस से पचास आयुवर्ग की महिलाओं को प्रवेश करने से रोकने के लिये जिस तरह की घेराबंदी की गयी है वह भी अराजकता का ही परिचायक है। यानि सच पूछा जाए तो पूरे सबरीमला क्षेत्र के काफी हद तक रणभूमि में तब्दील हो जाने के लिये तमाम पक्षकार बराबर के जिम्मेवार हैं और इसके लिये किसी को भी। कतई क्लीन चिट नहीं दी जा सकती है। आलम यह है कि आस्था पर अराजकता भारी पड़ती दिख रही है और देश-दुनिया से भगवान अयप्पा का दर्शन करने के लिये आने वाले भक्त हतप्रभ हैं, आक्रोशित हैं और ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। उनके लिये मंदिर प्रशासन भी दुश्वारियां बढ़ा रहा है और प्रदेश की सरकार भी। उनकी आस्था मर्माहत करने का हक आखिर किसी को कैसे दिया जा सकता है। लेकिन एक तरफ भगवान अयप्पा के भक्त अड़े हुए हैं कि वे किसी भी हालत में मंदिर की उस सदियों पुरानी परंपरा को टूटने नहीं देंगे जिसके तहत भगवान अयप्पा के समक्ष जाने की 10 से 50 साल के आयुवर्ग की महिलाओं को इजाजत नहीं है। इसके लिये वे पूरी ताकत से ड्टे हुए हैं और उनकी कोशिशों का ही नतीजा है कि अब तक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का लाभ उठाकर मंदिर में प्रवेश करने का मौका किसी महिला को नहीं मिल पाया है। यहां तक कि पूरे ताम-झाम के साथ सबरीमला मंदिर में प्रवेश करने के लिये महाराष्ट्र से आईं भू-माता ब्रिगेड की अध्यक्षा तृप्ति देसाई को एयरपोर्ट से ही वापस लौटने के मजबूर होना पड़ा। दूसरी ओर केरल सरकार के मुखिया पिनाराई विजयन की कोशिश है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 28 सितंबर को दिये गये फैसले को यथाशीघ्र अमली जामा पहना दिया जाए। ताकि पुनर्विचार याचिकाएं अर्थहीन हो जाएं। इसके लिये स्थानीय प्रशासन ने जो तांडव मचाया है वह बेहद ही दुखद व आक्रोशजनक है। ना सिर्फ पूरे इलाके में धारा 144 लागू कर दी गई है बल्कि यात्रियों को मंदिर की पहाड़ी पर कहीं भी रूकने या ठहरने की इजाजत नहीं दी जा रही। पूरे रास्ते में पानी डालकर कीचड़ व फिसलन पैदा कर दी गई है और उठने-बैठने व नित्य क्रिया से निपटने का भी इंतजाम नहीं रहने दिया गया है। प्रदेश सरकार द्वारा सबरीमाला परिसर को क्रूरता का केंद्र बना दिये जाने के कारण ही केरल हाईकोर्ट ने मजबूर होकर यह टिप्पणी की है कि वहां के मुख्यमंत्री केरल को एक युद्ध क्षेत्र बना देना चाहते हैं। पहाड़ी पर स्थित मंदिर तक जाने के रास्ते में यात्रियों को हतोत्साहित करने के लिये वहां पानी डालकर कीचड़ कर दिया गया और किसी को भी यात्रा के बाद रुकने नहीं दिया जा रहा। इतनी लंबी चढ़ाई के बाद सरकार को भक्तों के विश्राम की उचित व्यवस्था करनी चाहिए थी लेकिन व्यवस्था के नाम पर वह वहां अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न कर रही है। बताया जाता है कि यात्रियों को ले जाने वाली बसों के संचालकों को धमकी दी जा रही है। जिससे यात्री वाहन ना जा सके। वहां न पेय जल उपलब्ध है और न ही शौचालयों की पर्याप्त व्यवस्था है जिसके कारण 10 वर्ष से कम और 50 वर्ष से अधिक उम्र की महिला भक्तों को विशेष परेशानी हो रही है। इस सबसे अलग हटकर बीती 18 नवंबर की रात को वहां अय्यप्पा भक्तों पर जिस प्रकार पुलिस व प्रशासन द्वारा अत्याचार किए गए, उन्हें मारा पीटा और घसीटा गया और तकरीबन छह दर्जन भक्तों को गिरफ्तार किया गया वह वाकई प्रशासनिक अराजकता का ही नमूना कहा जाएगा। हिरासत में लिये जाने वालों को पीने का पानी और भोजन की बात तो दूर बल्कि शौचालय तक की सुविधा से भी वंचित कर उनके साथ बेहद क्रूर व्यवहार किया गया और 10 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। ऐसे में सवाल है कि धारा 144 क्यों लगाई जा रही है? किसी मंदिर में भक्तों को धारा 144 का सामना करना पड़े और उसे तोड़ने के आरोप में जेल जाना पड़े तो इससे अधिक दुखद बात और कोई नहीं हो सकती। कुछ लोग इस लड़ाई को संविधान विरुद्ध आस्था की लड़ाई का नाम दे रहे हैं। जबकि वास्तव में यह संविधान की मल भावना की रक्षा करने का ही। संघर्ष है। संविधान अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पूजा पाठ करने की अनुमति देता है। कानून तभी हस्तक्षेप कर सकता है जब किसी भी अन्य धर्म के लोगों को या अन्य भक्तों को इससे कष्ट हो रहा हो। जिन लोगों ने मंदिर की सदियों पुरानी परंपरा को तोड़ने के लिये अदालत का दरवाजा खटखटाया और अब वहां जबरदस्ती घुसने का प्रयास कर रहे हैं। उनमें से कोई अय्यप्पा भक्त नहीं है बल्कि वे अराजकतावादी तत्व हैं जो हिंदू आस्थाओं को हमेशा से कुचलते रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश करनेवाली महिलाओं के जत्थे में वे महिलाएं शामिल नहीं होतीं जो मंदिर परिसर को अपवित्र करने के लिये अपने साथ खून से सनी सेनेटरी पैड लेकर आ रही थीं। अब केरल सरकार उन भक्तों को ही अराजक कह रही है जो मंदिर की पवित्रता की रक्षा के लिये अड़े व डटे हुए हैं।
आस्था बनाम अराजकता