धर्म संसद का राजनीतिक उफान जारी है। देश के कोने-कोने में धर्म संसद का आयोजन हो रहा है। दो मुख्य आयोजन होने वाले हैं, एक अयोध्या में दूसरा वाराणसी में होने वाले हैं। अयोध्या में धर्म संसद का आयोजन विहिप और संघ समर्थित है जबकि वाराणसी में धर्म संसद का आयोजन संघ और विहिप के। विरोधी विचारधारा द्वारा आयोजित हैं, पर दोनों धर्म संसद में तीन प्रमुख प्राथमिक विषय हैं, पहला राम मंदिर का निर्माण, दूसरा गौ संरक्षण और। तीसरा गंगा की निर्मल धारा। ये तीनों प्राथमिक विषय भाजपा, संघ और। विहिप के प्राणवायु हैं, जिस पर चल कर पहले अटल बिहारी वाजपेयी और अब नरेन्द्र मोदी सत्ता पर बैठे हैं। आगे भी इनकी कोशिश इन तीनों प्राथमिक विषयों पर उफान पैदा कर भविष्य की सत्ता पर कब्जा करने की है। पर समस्या यह है कि ये तीनों विषय तभी कारगर होते हैं या फिर ये तीनों विषय तभी मारक क्षमता हासिल करते हैं जब भाजपा विपक्ष में होती है, जब भाजपा विपक्ष में बैठकर सत्तारूढ़ दल पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप लगाती थी। अब भाजपा खुद सत्ता में हैं, इसलिए निश्चित तौर पर कहा जा सकता है। कि भाजपा के पक्ष में संघ और विहिप जितना भी जोर क्यों न लगा लें पर भाजपा के पक्ष में इन तीनों विषयों पर कोई खास राजनीतिक उफान पैदा नहीं कर सकते हैं, इन तीनों विषय पर धर्म संसद में संत जितनी भी उंची आवाज देंगे उतनी ही आत्मघाती आवाज बन कर जनता के बीच जायेंगी। जनता समझ चुकी है कि पांच साल तक सत्ता में बैठ कर भाजपा ने खास कर राममंदिर के लिए कुछ भी नहीं किया। सबसे बड़ी बात यह है कि दूसरी धरा राम मंदिर के प्रश्न पर भाजपा, विहीप और संघ की पोल खोलने के लिए सामानंतर धर्म संसद का आयोजन कर राजनीति में अपनी जगह बनाने और संध, विहिप व भाजपा को बेनकाब करने के लिए सक्रिय है। इसलिए संकट विरोधी धरा पर नहीं है, विश्वसनीयता का संकट संघ परिवार समर्थित संत समाज पर है। जब-जब चुनाव सामने आता है। तब-तब राम मंदिर का प्रश्न, गौ संरक्षण का प्रश्न और गंगा की निर्मल धारा का प्रश्न राजनीतिक उफान उत्पन्न करते हैं, राजनीतिक सत्ता के लिए इन विषयों में अतिरिक्त शक्ति भरी जाती है, अतिरिक्त खाद-पानी डाला जाता है। सही भी यही है कि देश की राजनीतिक धरा दो भागों में विभाजित है, एक धरा हिन्दुत्व की है जबकि दूसरी धरा गैर हिन्दुत्व की । है। हिन्दुत्व की धरा में भाजपा, शिव सेना जैसे दल हैं जबकि दूसरी धरा । में गैर हिन्दुत्व से जुड़े दल है, जैसे कांग्रेस, कम्युनिस्ट और समाजवादी धरा, मुस्लिम धरा और जातिवादी- क्षेत्रीय धरा की पार्टियां हैं। हिन्दुत्व की शक्ति सत्ता निर्माण तक पहुंच गयी। कभी यह अवधारणा थी कि मुस्लिम राजनीतिक शक्ति ही सत्ता का निर्माण करती है, सत्ता का विखंडन करती है। पर देश की राजनीतिक क्षितिज पर नरेन्द्र मोदी के उदय के बाद इस अवधारणा की पराजय हुई है, एक नयी अवधारणा जन्म ली है, वह अवधारणा हिन्दुत्व की शक्ति की है। अब यह अवधारणा बन गयी है कि जिसके समर्थन में हिन्दू होंगे उसी की सत्ता बनेगी, जीत का हकदार वही होंगे। हिन्दुत्व की शक्ति न केवल 2014 के लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज की थी, बल्कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, असम और त्रिपुरा जैसे राज्यों में जीत हासिल की थी। हरियाणा, असम और त्रिपुरा की जीत इस मायने में खास थी कि इन प्रदेशों में पहली बार भाजपा सत्ता का मुंह देखी थी। उत्तर प्रदेश की जीत तो और महत्वपूर्ण थी जहां पर जातिवादी पार्टियों का विनाश हुआ था। हिन्दुत्व अगर सत्ता प्राप्ति की अवधारणा का प्रतीक नहीं बना हुआ होता तो फिर गैर हिन्दुत्ववादी दल भी हिन्दुत्व-हिन्दुत्व का खेल क्यों खेलते? हिन्दुत्व का खेल-खेलने के लिए राहुल गांधी से लेकर कम्युनिस्ट तक मजबूर हुए हैं। जो राहुल गांधी अमेरिकी कूटनीतिज्ञ से कहता था कि भारत को मुस्लिम आतंकवाद से नहीं बल्कि हिन्दुओं से खतरा है, जो कांग्रेस कहती थी कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है, जो कम्युनिस्ट हिन्दुत्व को कोसने के लिए कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं थे, वे आज उदार हिन्दुत्व पर सवार हैं। राहुल गांधी मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं, अपने आप को जनेउ धारी हिन्दू कहते हैं, अपने आप को भगवान शिव का शिष्य कहते हैं। अभी-अभी मध्य प्रदेश में राहुल गांधी, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजय सिंह एक साथ, वह भी गेरूआ वस्त्र में मंदिर दर्शन करने गये और गर्व के साथ फोटो प्रदर्शित कराये। केरल में कम्युनिस्ट संस्कृत सम्मेलन कराने के लिए बाध्य होते हैं। त्रिपुरा से हाथ धोने के बाद केरल में त्रिपुरा के पुनरावृति होने के डर से कम्युनिस्ट डरे हुए हैं। ऐसी हिन्दुत्व की राजनीतिक शक्ति को आत्मघाती बनाने का खेल क्यों नहीं खेला जायेगा? जब भाजपा हिन्दुत्व की राजनीतिक शक्ति को अपने पक्ष में कर सत्ता पर सवार हो सकती है, पांच सालों तक सत्ता में बैठ सकती है तो फिर भाजपा की विरोधी शक्तियां हिन्दुत्व को थकड़ा क्यों नहीं बना सकती हैं, हिन्दुत्व को भाजपा के लिए आत्मघाती क्यों नहीं बना सकती हैं? हिन्दुत्व अब भाजपा के लिए आत्मघाती या फिर यह कह लें कि भाजपा की सत्ता के विखंडन के कारण भी बन सकता है। ऐसा इसलिए माना जाना चाहिए कि मंदिर के प्रश्न पर भाजपा न केवल दबाव में हैं बल्कि भाजपा की छवि खराब भी हुई है। भाजपा और संघ परिवार पर यह आरोप लगा है कि मंदिर के प्रश्न पर सिर्फ जीवकोपार्जन और सत्ता पार्जन का माध्य बना लिया है। इस आरोप को झूठलाया नहीं जा सकता है। संघ -भाजपा को अब यह समझ समाप्त कर लेनी चाहिए कि संत समाज हमेशा रखैल की भूमिका होगा? संत समाज संघ और भाजपा की परिधि से बाहर आ रहा है। इसका उदाहरण यह है कि जिस दिन संघ-विहिप समर्थित धर्म संसद अयोध्या में आयोजित है उसी दिन वाराणसी में भी संत समाज धर्म संसद का आयोजन कर रहा है। वाराणसी में जो धर्म संसद का आयोजन हो रहा है उसका नेतृत्व शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती कर रहे हैं। स्वरूपानंद सरस्वती के धर्म संसद में जिन बातों पर जोर होगा उन बातों से सीधे तौर पर नरेन्द्र मोदी की सत्ता प्रभावित होगी, नरेन्द्र मोदी की सरकार की छवि खराब होगी। ऐसा इसलिए कि स्वरूपानंद सरस्वती यह मानते हैं कि राममंदिर के निर्माण के दिशा में नरेन्द्र मोदी सरकार ने कोई ऐसा कदम नहीं उठायी जिसकी प्रशंसा होनी चाहिए। कहने का अर्थ यह है कि स्वरूपानंद सरस्वती की धर्म संसद से उठी बात दूर तक जायेगी और राममंदिर निर्माण के समर्थक लोगों को प्रभावित करेगी। समय निकल चुका है। जब समय निकल चुका होता है तो फिर विकल्प होता नहीं है। नरेन्द्र मोदी यह जानते थे कि राममंदिर का प्रश्न उनके लिए आत्मघाती हो सकता है। हिन्दुओं ने उन्हें पूर्ण बहूमत दिया था। इसलिए इनके पास कोई बहाना नहीं है। पूर्ण बहूमत नहीं होता तो नरेन्द्र मोदी कह सकते थे कि मुझे संसद में पूर्ण बहूमत नहीं है, इसलिए मंदिर निर्माण का कार्य संभव नहीं हो सका। पहले यह बात सामने लाने की कोशिश हुई थी कि सुप्रीम कोर्ट से फैसला लेकर राम मंदिर का कार्य कराया जायेगा। राममंदिर के समर्थक जनता यह मानी थी कि सुप्रीम कोर्ट से पक्षधर फैसला आयेगा। पर राम मंदिर के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की तारीख बढ़ा दी है। सुप्रीम कोर्ट पर भी दबाव था। विपक्ष यह दलील दे रहा था कि अगर पक्षधर फैसला आया तो फिर 2019 का जनादेश प्रभावित होगा। सुप्रीम कोर्ट के सामने भी अपनी छवि बचाने का प्रश्न था। गौ सरंक्षण में नरेन्द्र मोदी सरकार की भूमिका वीरता वाली नहीं है, करोड़ों रूपये खर्च करने के बावजूद गंगा की धारा निर्मल नहीं हो सकी। अब नरेन्द्र मोदी के सामने विकल्प क्या है? नरेन्द्र मोदी के सामने एक मात्र विकल्प अध्यादेश लाने या फिर संसद में प्रस्ताव लाने का है।संसद में प्रस्ताव लाने या फिर अध्यादेश लाने का विकल्प भी आसान नहीं है। संसद में प्रस्ताव लाने या फिर अध्यादेश लाकर राममंदिर का निर्माण करने की राजनीतिक इच्छा बड़ी होनी चाहिए। सबसे बड़ी बात यह है कि अध्यादेश का भी न्यायिक परीक्षण होगा। निश्चित तौर पर राम मंदिर का प्रश्न अब नरेन्द्र मोदी सरकार और पूरे संघ परिवार के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।
धर्म संसदों की आवाज़ किसके खिलाफ जायेगी ?