कायदे से तो अभी पांच राज्यों का विधानसभा चुनाव ही चल रहा है और तमाम राजनीतिक गतिविधियां भी उस पर ही केन्द्रित दिखाई पड़ रही हैं। लेकिन गहराई से परखा जाए तो विधानसभा के बहाने लोकसभा चुनाव की रणनीतियां ही आजमाई जा रही हैं और अपनी हनक और हैसियत की वाटर टेस्टिंग की जा रही है। इसमें जो बात बेहद मजबूती से उभरी है उसमें विपक्ष के लिये उम्मीदों की किरण गठबंधन के झरोखे से ही नजर आ रही है और यही वजह है कि आम चुनावों को लेकर तमाम तरह के फार्मूलों पर अंतिम दौर की चर्चाएं भी हो रही हैं और उनको मूर्त रूप देने का निर्णायक प्रयास भी किया जा रहा है। इसमें यह तो मानना ही पड़ेगा कि सूबाई स्तर पर भले ही देश में अलग अलग तस्वीर दिखाई पड़ रही हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उभरने वाली समग्र तस्वीर में भाजपा का मुकाबला करने की कूवत सिर्फ कांग्रेस में ही है। हालांकि कांग्रेस के पतन और पराभव की चरम स्थिति के बाद क्षेत्रीय दलों का उससे काफी हद तक मोह भंग हुआ है और वे कांग्रेस को दोबारा जड़ें जमाने के लिये अपनी जमीन या अपने सहयोग की ताकत मुहैया कराने को लेकर अधिक उत्साहित नहीं हैं। लेकिन तमाम क्षेत्रीय दलों को बेहतर पता है कि केन्द्र में भाजपा को रोकने के लिये कांग्रेस के साथ जुड़ने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध नहीं है। केवल कांग्रेस ही है जिसके पास देश के तमाम सूबों में अपनी पहुंच और अपना आधार है वर्ना किसी दल की इतनी हैसियत नहीं हो सकती कि वह अपने दम पर 40-50 सीटें भी हासिल कर सके। ऐसे में भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिये कांग्रेस के साथ जुड़ना क्षेत्रीय दलों की मजबूरी भी है और आवश्यकता भी। लेकिन विडम्बना की बात है कि जो क्षेत्रीय दल कांग्रेस के साथ जुड़कर भाजपा के विजय रथ के परिये को रोकने का सपना देख रहे हैं उनमें से एक भी ऐसा दल नहीं है जो कांग्रेस को अधिक मजबूत होने का रत्ती भर मौका मुहैया कराना गवारा कर सके। दूसरी ओर कांग्रेस की स्थिति भी ऐसी है कि भले ही कागजी तौर पर उसकी पहुंच की परिधि में पूरा देश हो लेकिन कुछ गिने-चुने सूबों के अलावा वह सूबाई या सीटवार स्तर पर अपने दम पर भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में ही नहीं है। बात चाहे यूपी की करें या बिहार की अथवा महाराष्ट्र की। हर जगह कांग्रेस को क्षेत्रीय ताकतों की बैसाखी की आवश्यकता है। यहां तक कि दक्षिणी राज्यों में भी कांग्रेस अपने अकेले दम पर किला फतह करने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में कांग्रेस की विवशता है कि तमाम ऐसे सूबों में क्षेत्रीय दलों की कृपा पर निर्भर रहे जहां उसकी अपनी हैसियत भाजपा को सीधी टक्कर देने की नहीं है। इसमें उसे सबसे अधिक अड़चनों का सामना उन्हीं सूबों के क्षेत्रीय दलों की महात्वाकांक्षाओं का करना पड़ रहा है जो कांग्रेस की कमजोरियों का लाभ उठाकर अपनी तयशुदा सीमा से बाहर भी अपना विस्तार करने का सपना देख रही हैं। इस समस्या ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि कांग्रेस के लिये किसी भी दल से तालमेल बनाना और भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोकने का प्रयास करना दिनों दिन लगातार मुश्किल होता जा रहा है। कांग्रेस की इस मुश्किल में उसकी हेठी भी इजाफा कर रही है जिसके तहत इस बार कांग्रेस अपने दम पर अधिकतम सीटों पर लड़ने की योजना बना रही है और यह भी चाह रही है कि उसे सूबाई स्तर पर क्षेत्रीय दलों का भी सहयोग मिले। लेकिन मुश्किल यह है कि क्षेत्रीय दल उसे सहयोग करने के लिये उतने उत्साहित नहीं दिख रहे हैं। इसी का नतीजा है कि ना तो यूपी में महागठजोड़ को लेकर कोई उत्साहजनक माहौल बन पा रहा है और ना ही महाराष्ट्र में। दक्षिण में भी कांग्रेस को कम से कम सीटों पर समेट कर ही द्रमुक व टीडीपी जैसे दल उसे अपने साथ जोड़ने का मंसूबा पाले बैठे हैं। खास तौर से यूपी में सपा और बसपा का सहयोग लेने की कोशिश कर रही कांग्रेस से बसपा पहले ही छिटक चुकी है क्योंकि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस किसी भी सूरत में यूपी से बाहर इन दलों के साथ तालमेल करके इनके लिये कुछ सीटें छोड़ने का बड़प्पन दिखाने के लिये तैयार नहीं हुई। नतीजन बसपा ने पहले ही भाजपा और कांग्रेस के साथ समानांतर दूरी कायम करके चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। बसपा की इस पहलकदमी के बाद सपा के लिये दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई कि वह कांग्रेस और बसपा में से किसके साथ जुड़ने का विकल्प चुने। इसमें कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का हश्र सपा पहले ही विधानसभा चुनाव में भुगत चुकी है। ऐसे में अब उसकी बातों से यही संकेत मिल रहा है कि इस बार वह बसपा के साथ तालमेल बनाकर चुनाव लड़ने के लिये अधिक उत्सुक है। वैसे भी कांग्रेस के पास यूपी में अपना कोई ठोस जनाधार नहीं है जबकि सपा-बसपा के पास अपना परंपरागत वोटबैंक मौजूद है जो एक साथ आ जाए तो भाजपा को जड़ से उखाड़ फेंकने की ताकत रखता है। ऐसी ही स्थिति महाराष्ट्र में भी है जहां राजग से मोहभंग के बाद शिवसेना सहित कई छोटे दल अपनी अलग जमीन तलाश रहे हैं और उनके साथ जुड़कर मजबूत ताकत के तौर पर उभरना राकांपा के लिये अधिक आसान है। लिहाजा वह भी कांग्रेस के साथ अभी तालमेल की संभावना पर विचार करने के बजाय सूबे की उलझी हुई सियासी तस्वीर के साफ होने का इंतजार करना ही बेहतर समझ रही है। इसी प्रकार बिहार में महागठबंधन में घटक दलों की बढ़ती तादाद के कारण कांग्रेस के लिये अधिक सीटें हासिल करने की संभावना नगण्य होती जा रही है। खास तौर से रालोसपा के महागठबंधन में आने की संभावना के नतीजे में कांग्रेस के कोटे में कटौती होना तय ही है। यानि महागठबंधन बनाकर भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोकने की जिस रणनीति पर कांग्रेस आगे बढ़ना चाह रही है उसकी सफलता की राहें लगातार पथरीली होती जा रही हैं और इन पथरीली राहों से गुजर कर सत्ता के शिखर तक पहुंचना उसके लिये दिनों दिन मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में अब उसे अव्वल तो उन सूबों में अपने बेहतर प्रदर्शन पर ध्यान देना होगा जहां भाजपा के साथ उसका सीधा मुकाबला होना है और उन सूबों के लिये बड़े दिल का प्रदर्शन करते हुए क्षेत्रीय दलों की शर्तों को मानना ही होगा जहां वह अपने दम पर अकेले भांड़ नहीं फोड़ सकती है।
कांग्रेस की बढ़ती कठिनाइयां