कुछ कहता लोकसभा चुनाव जमाने के लिये जीती हुई केवलन करना पड़े कर्नाटक में हुए लोकसभा के तीन और विधानसभा के दो सीटों के उपचुनाव का जो नतीजा है उसे किसी भी सूरत में हल्के तौर पर नहीं लिया जा सकता। यह चुनाव ऐसे समय में हुआ है जब अगले साल के लोकसभा चुनाव का वक्त बेहद करीब है और तमाम पार्टियां केन्द्र की सत्ता पर कब्जा जमाने के लिये उतावलापन दिखा रही हैं। ऐसे समय में अगर लोकसभा की तीन में से अपनी जीती हुई केवल एक सीट पर ही बढ़त कायम रहे जबकि दो सीटों पर शिकस्त का सामना करना पड़े और विधानसभा की दोनों सीटें गंवानी पड़े तो समझा जा सकता है कि सूबे का माहौल किस कदर भाजपा के लिये बदस्तूर चुनौती बना हुआ है। हालांकि यह पहला उपचुनाव नहीं है जिसमें भाजपा को शिकस्त का सामना करना पड़ा हो बल्कि वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक देश भर में 30 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं जिनमें से भाजपा को केवल छह सीटें दोबारा जीतने में ही कामयाबी मिल पाई है। जबकि जिन 30 सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से कुल 16 भाजपा के कब्जेवाली थीऔर विपक्ष की जीती हुई केवल 14 सीटें ही थीं। लेकिन भाजपा को किसी भी उपचुनाव में विपक्ष के कब्जे वाली एक भी सीट जीतने में कामयाबी नहीं मिल सकी और उसने अपने कब्जे वाली दस सीटें भी गंवा दीं जिसके नतीजे में अब लोकसभा में उसकी सीटों का आंकड़ा 282 से घटकर 272 रह गया है। लेकिन अब तक हुए उपचुनावों का नतीजा आने के बाद भाजपा को उम्मीद रहती थी कि स्थिति को सुधार लिया जाएगा जबकि अब वक्त स्थिति को सुधारने का बचा ही नहीं है। अब तो समय है स्थिति के मुताबिक ठूलने और बदलने का ताकि संभावित नुकसान से बचा जा सके। सच तो यह है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का रिकार्ड बना लिया था जिसके बाद अब आगामी चुनाव में इससे आगे जाने का कोई मतलब ही नहीं है। बल्कि भाजपा को भी पता है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात सरीखे जिन पांच सूबों की सभी लोकसभा सीटों पर उसे पिछली बार जीत हासिल हुई थी और यूपी की अस्सी में से 73 सीटों पर उसने कामयाबी का झंडा गाड़ा था उस प्रदर्शन को दोहरा पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है। ऐसे में उसकी निगाहें पूर्वोत्तर के अलावा दक्षिणी राज्यों पर ही टिकी हुई थीं और उत्तर व पश्चिमी राज्यों में संभावित नुकसान की भरपाई। के लिये वह पूरब, पूर्वोत्तर और दक्षिण में ही अपने प्रदर्शन को सुधारने के अभियान में जुटी हुई थी। इसमें कर्नाटक का महत्व इसलिये भी बढ़ जाता। है क्योंकि इसे दक्षिण भारत का प्रवेश द्वार कहा जाता है और दक्षिण में भाजपा की जीत का दरवाजा तभी खुल सकता है जब कर्नाटक में बेहतर प्रदर्शन की पक्की गारंटी हो जाए। लेकिन स्थिति यह है कि कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु की कुल 139 लोकसभा सीटों में से भाजपा को केवल कर्नाटक की 28 सीटों से ही कुछ आस है। जबकि बाकी सूबों में उसका खाता ही खुल जाए तो बहुत बड़ी बात होगी। दूसरी ओर बिहार और यूपी की कुल 120 सीटों में से बिहार की 40 सीटों पर उसके लिये मुकाबला बेहद कड़ा रहना स्वाभाविक ही है जबकि यूपी में अगर विपक्षी दलों का महागठजोड़ कायम हो गया तो भाजपा को लेने के देने पड़ सकते हैं। यानि समग्रता में देखा जाये तो लोकसभा की 5431 में से दक्षिण और यूपी बिहार की कुल 259 सीटें अलग कर दें तो बाकी बची 284 सीटों पर ही भाजपा इस समय विपक्ष को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में है और उसमें भी अगर भाजपा की कमजोर स्थिति वाली ओडिशा, पश्चिम बंगाल, जम्मू कश्मीर और पंजाब सरीखे सूबों की सीटों को अलग कर दें तो ऐसी सीटें ही दो सौ से कम बचती हैं जहां वाकई भाजपा अपनी जीत की बुनियाद रखने में सक्षम हो सकती है। लिहाजा अब केन्द्र में भाजपा की वापसी की संभावनाएं तभी बन सकती हैं जब अव्वल तो विपक्ष का गठजोड़ ना बने और दसरे अपनी मजबत उपस्थिति। वाली सीटों पर वह जीत दर्ज कराने में कामयाब हो सके। लेकिन बिहार और यूपी के बाद अब जिस तरह से कर्नाटक में भी भाजपा को विपक्षी गठबंधन ने बुरी तरह उलझा दिया है उसके बाद निश्चित ही विपक्षी खेमे में आपसी एकजुटता को लेकर ललक बढ़ेगी और वे हर हालत में यह सुनिश्चित करना चाहेंगे कि गैर-भाजपाई वोटों का बिखराव रोका जा सके। अगर कर्नाटक के नतीजों से सामने आए संकेतों पर समझ कर उस पर अमल करने के लिये विपक्ष एकजुट हो गया तो भाजपा के लिये ना सिर्फ दक्षिण में बल्कि यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र सरीखे उन तमाम सूबों में टिक कर खड़े रह पाना भी मुश्किल हो जाएगा जहां चुनावी मुकाबला त्रिकोणीय या बहुकोणीय होता आया है। ऐसे में अब भाजपा के लिये कर्नाटक ने निश्चित तौर पर खतरे की घंटी बजा दी है जिसकी भरपाई आगामी दिनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज कराके भी नहीं हो सकती। आगामी दिनों में जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं उसे भाजपा के लिहाज से लोकसभा के फाइनल मुकाबले से पहले का सेमीफाइनल कतई नहीं कहा जा सकता क्योंकि मणिपुर और तेलंगाना को जो नतीजा आने वाला है वह पहले से ही सर्वविदित है और उसका राष्ट्रीय स्तर पर कोई असर नहीं पड़ना है। दूसरी ओर राजस्थान में अगर भाजपा को हार का भी सामना करना पड़ा तो उसका कोई दरगामी परिणाम इसलिये नहीं। होगा क्योंकि वहां का इतिहास ही हर पांच साल में सत्ता बदल जाने का रहा है। लेकिन फर्क तब पड़ेगा अगर भाजपा को राजस्थान में दोबारा जीत दर्ज कराने में कामयाबी मिल जाये अथवा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसे शिकस्त का सामना करना पड़े। ऐसी सूरत में ही आगामी विधानसभा के चुनावी नतीजे सत्ता का सेमीफाइनल कहलाएगा और भाजपा के लिये कर्नाटक के बाद वह दूसरा बुरा सपना साबित होगा। लिहाजा अभी कर्नाटक का जो नतीजा सामने आया है वही असली सेमीफाइनल नतीजा है जिसने अप्रत्याशित तरीके से विपक्ष को दिशा भी दिखा भी रहा और भावी जीत के प्रति आश्वस्त भी कर रहा है। जबकि भाजपा को इससे सचेत होने की जरूरत है वर्ना बहुमत का आंकड़ा बाढ़ के पानी की तरह उतर भी सकता है।
कुछ कहता है ये नतीजा