स्वाभाविक सियासी राह पर कश्मीर लोकतंत्र में जनता द्वारा चुने गए सदन के सदस्यों को अगर सत्ता के संचालन से वंचित होना पड़ता है तो इसे किसी भी सूरत में बेहतर या आदर्श स्थिति नहीं कहा जा सकता। बेशक अगर किसी एक दल या गठबंधन को अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा हासिल ना हो तब भी अपेक्षित यही रहता है कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर साझा मसलों पर बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिये सभी एकजुट हों और जनता द्वारा चुने गए सदन को शासन करने का मौका मुहैया कराएं। अगर ऐसी ही कोई जटिल परिस्थिति उत्पन्न हो जाए जिसमें किसी भी तरह से बहुमत का जुगाड़ ना हो सके तभी राज्यपाल या राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है और संवैधानिक तौर पर यह व्यवस्था भी इस लिये की गई है ताकि तय समय के भीतर बहुमत के लिये कोई फार्मूला निकल आए अथवा यह तय हो। जाए कि बहुमत का आंकड़ा किसी भी सूरत में हासिल नहीं हो सकता तो दोबारा चुनाव की ओर आगे बढ़ा जाए। जम्मू कश्मीर के संदर्भ में बात करें तो लंबे समय तक सूबे को राज्यपाल के अधीन रखना किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता। वह भी तब जबकि विधानसभा में बहुमत के आंकड़े के लिये कई विकल्प उपलब्ध हो। राज्यपाल का शासन कोई ऐसी संवैधानिक व्यवस्था नहीं है जिसे विकल्प के तौर पर लागू किया। जाए। बल्कि यह व्यवस्था विशेष परिस्थितियों के लिये की गई है और सीमित समय के लिये भी। तभी इसे छह माह तक ही जारी रखने का प्रवधान है। हालांकि संविधान के मुताबिक छह माह के बाद फिर से छह माह के लिये अवश्य लागू किया जा सकता है और यह सिलसिला सदन के पूरे कार्यकाल तक भी चल सकता है। लेकिन इसकी ठोस वजह भी तो हो या तो बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिये राजनीतिक दलों को समय देने के मकसद से इसे लागू किया जा सकता है अथवा छह माह के बाद इसे स्वतः समाप्त होने दिया जा सकता है ताकि नये सिरे से विधानसभा का चुनाव हो सके। चुंकि अगले महीने जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन को लागू हुए छह माह का वक्त पूरा होने जा रहा है। लिहाजा आवश्यक है कि नयी सरकार के गठन की तमाम संभावनाओं को टटोल लिया जाए। इस लिहाज से देखें तो गैर-भाजपा गठबंधन की जो संभावनाएं टटोली जा रही हैं वह आवश्यक भी है और अपेक्षित भी। बेशक राजनीतिक कारणों से भाजपा इस गठबंधन का विरोध कर रही हो। और इसे पाक प्रायोजित तक बता रही हो लेकिन सच तो यही है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और जन अपेक्षाओं के नजरिये से सूबे में यथाशीघ्र एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार का गठन होना बेहद आवश्यक है। इसके लिये कांग्रेस की ओर से जो पहलकदमी की जा रही है उसे निश्चित तौर पर स्वागतयोग्य ही कहा जाएगा। हालांकि सतही तौर पर तो यही लगता है कि चूंकि पीडीपी के विधायक दल में टूट की स्थिति उत्पन्न हो गयी जिससे बचने के लिये पार्टी ने गैर भाजपाई गठबंधन का हिस्सा बनने पर सैद्धांतिक रूप से हामी भरी है लेकिन सच तो यह है कि इस फार्मूले को कांग्रेस ने ही आगे किया है और एक जिम्मेवार राष्ट्रीय दल होने के नाते उसने सूबे को एक बहुमत की सरकार देने की दिशा में गंभीर पहलकदमी की है। हालांकि राज्यसभा में विपक्ष के नेता गलाम नबी आजाद की मानें तो अभी सैद्धांतिक तौर पर ही सरकार बनाने के फार्मूले पर विचार हो रहा है और सभी गैर-भाजपाई ताकतों को इकट्ठा करके सरकार बनाने के प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है। लेकिन जिस तरह से कांग्रेस की प्रभारी महासचिव अम्बिका सोनी पहले ही कश्मीर में प्रदेश अध्यक्ष और विधायक दल के नेता के नेतृत्व में एक पैनल का गठन कर चुकी हैं और यह पैनल उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती से बात कर रहा है उसे देखते हुए यह उम्मीद तो जगी ही है कि जल्दी ही प्रदेश में एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार शासन का कार्यभार संभाल सकती है। उम्मीद की जा रही है कि आगामी 23 नवंबर को अम्बिका सोनी की अगुवाई में दिल्ली के पंजाब भवन में आयोजित होने जा रही जम्मू कश्मीर के शीर्ष गैर भाजपाई नेताओं की बैठक में एक नए गठबंधन का स्वरूप सामने आ सकता है। हालांकि प्रदेश विधानसभा के आंकड़ों पर गौर करें तो भाजपा के पास बेशक 25 विधायक हैं लेकिन बहुमत के लिये आवश्यक 44 का आंकड़ा उसकी पहुंच से काफी दूर है। दूसरी ओर पीडीके के पास प्रदेश विधानसभा में 28 विधायकों की ताकत है जिसे 12 विधायकों वाली कांग्रेस भी समर्थन देने के लिये तैयार है और 15 विधायकों वाली नेशनल कांफ्रेंस भी। कांग्रेस को इन दोनों दलों के साथ पूर्ण कार्यकाल की सरकार चलाने का अनुभव है और 2002 से 2008 तक उसने पीडीपी के साथ गठबंधन की सरकार चलाई हुई है और 2008से 2014 तक वह नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिल कर सरकार चला चुकी है। लिहाजा सूबे की सियासत में कांग्रेस के साथ जुड़ने में इन दोनों दलों को कोई दिक्कत नहीं है। बल्कि अगर यह गठबंधन की सरकार अस्तित्व में आती है तो ना सिर्फ यह सैद्धांतिक व व्यावहारिक तौर पर बेहद सहज व स्वाभाविक गठजोड होगा बल्कि इसे बहुम के लिये आवश्यक 44 के मुकाबले 55 विधायकों का मजबूत समर्थन भी हासिल होगा। दूसरी ओर ये तीनों ही दल भाजपा द्वारा कश्मीर को लेकर अपनाई जा रही नीतियों से चिढ़े हुए हैं लिहाजा भाजपा के विरोध का एक सैद्धांतिक आधार भी इनके पास पहले से उपलब्ध है। दूसरी ओर देश भर में भाजपा के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा बनाने की कोशिशों को भी इस गठजोड़ से मजबूती मिलेगी और कांग्रेस के लिये राष्ट्रीय राजनीति से लेकर आगामी लोकसभा चुनाव में भी यह गठजोड़ लाभदायक साबित हो सकता है। दूसरी ओर पीडीपी के उन विधायकों को भी यह गठजोड़ विकल्पहीन कर देगा जो बहुमत के आंकड़े का संतुलन बनाने के लिये पार्टी से अलग होने की योजना बनाते दिखाई पड़ रहे हैं। इसके अलावा चुंकि पीडीपी और कांग्रेस के आपस में मिलने के बाद भी बहुमत के लिये चार सीटों की कमी रह जाती है लिहाजा 12 विधायकों वाली उस नेशनल कांफ्रेंस को भी इस सरकार में अपना दबदबा बनाने का मौका मिलेगा जो फिलहाल सूबे की सियासत में हाशिये पर पड़ी हुई है। यानि समग्रता में देखें तो सरकार गठन का यह फार्मूला सार्थक भी है, सकारात्मक भी, स्वाभाविक भी और जन अपेक्षाओं के अनुरूप भी।
स्वाभाविक सियासी राह पर कश्मीर