पांच राज्यों में हुए हालिया विधान सभा चुनावों के मिले परिणामों के सियासी निहितार्थ स्पष्ट हैं| इन चुनावों के बाद एक ओर जहां कांग्रेस के पुनः पनपने के स्पष्ट आसार नजर आ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर बीजेपी की कांग्रेस मुक्त भारत की मुहीम को तगड़ा झटका लगा है| क्योंकि कांग्रेस ने जहां छत्तीसगढ़ में बीजेपी का सुफड़ा साफ करते हुए सूबाई सत्ता छीन ली है| वहीं, राजस्थान में भी उसने बीजेपी को कड़ी टक्कर देते हुए प्रादेशिक सत्ता से बेदखल कर चुकी है| वैसे तो मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस ने बीजेपी को कांटे की टक्कर देते हुए उससे सुबाई सत्ता छिनती प्रतीत हो रही है| यह बात अलग है कि रणनीतिक चूक की वजह से कांग्रेस इस बार भी तेलंगाना की सत्ता से दूर रह गई और क्षेत्रीय दल टीआरएस ने वहां दूसरी बार बाजी मार ली| जबकि, मिजोरम में कांग्रेस को अपनी सत्ता एक अन्य क्षेत्रीय दल एमएनएफ के हाथों गंवानी पड़ी|ताजा चुनाव परिणाम से यह बात फिर स्पष्ट हो चुकी है कि हिंदी हृदय प्रदेश के मतदाताओं की पहली पसंद या तो कांग्रेस है या फिर उसके विकल्प के रूपमें बीजेपी| सत्ता का हस्तांतरण इन्हीं दोनों राष्ट्रीय दलों के बीच सम्भव है, खासकर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में| क्योंकि यहां अब भी उसके दिलोदिमाग में अन्य स्थानीय दलों के लिए पर्याप्त जगह अभी तक नहीं बन पाई है, अपवादस्वरूप यूपी-बिहार और दिल्ली को छोड़कर, जहां कांग्रेस उम्मीदों से अधिक कमजोर है| लेकिन उत्तराखंड, झारखंड और हरियाणा में भी सत्ता की अदलाबदली कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही हाल फ़िलहाल हो रही है| हालांकि संतोष की बात यह है कि क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व अभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है और निकट भविष्य में ऐसा संभव भी नहीं
लगता | क्योंकि कांग्रेस नीत यूपीए और बीजेपी नीत एनडीए की रणनीतिक खामियों की वजह से भी क्षेत्रीय दलों को अक्सर संजीवनी मिलती ही रहती है|इस बार भी देखा जाए तो राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां कांग्रेस उम्मीदों से अधिक मजबूत हुई है, वहीं बीजेपी की स्थिति
मध्यप्रदेश और राजस्थान के मुकाबले छत्तीसगढ़ में ज्यादा कमजोर हुई है लेकिन तेलंगाना और मिजोरम में जिस तरह से क्षेत्रीय दलों ने अपना डंका बजाया है, वह कांग्रेस और बीजेपी जैसी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के लिए एक सबक है, विशेष तौर पर यूपीए और एनडीए के मिशन 2019 के लिहाज से| यदि इन ताजा परिणामों को केंद्रीय सत्ता का सेमीफाइनल समझा जाए तो कांग्रेस के लिए खुश होने की कई वजहें हैं, जबकि बीजेपी की नीतिगत परेशानी बढ़ने के स्पष्ट संकेत मिल चुके हैं| सच कहा जाए तो बीजेपी के 'कांग्रेसीकरण' की कोशिशों को हिन्दू जनमानस ने लगभग ख़ारिज करने की शुरुआत उस जगह से ही कर दी है जहां से उभरकर वह पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य पर छा चुकी थी| इसके उल्ट उन्हीं लोगों ने कांग्रेस के 'नरम हिंदुत्व' को एकबारगी नई बढ़त प्रदान की है, जिससे कांग्रेस ने कुलांचें मारनी फिर से शुरू कर दी है|फिर भी कांग्रेस को अधिक खुशफहमी नहीं पालनी चाहिए, क्योंकि उसके लिए दिल्ली अभी बहुत दूर है| जबकि बीजेपी को भी अपनी सियासी गलतफहमी दूर करने के लिए आत्मावलोकन करना चाहिए| अन्यथा निकट भविष्य में उसे केंद्रीय सत्ता भी गंवानी पड़ सकती है|सच कहा जाए इन चुनावों के बाद अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के अच्छे दिन आ गए हैं, क्योंकि भावी प्रधानमंत्री के तौर पर जो विपक्षी नेता उनके नेतृत्व को अभी तक चुनौती दे रहे थे उनकी बोलती बंद हो जाएगी, खासकर सपा-बसपा नेतृत्व की जो कांग्रेस को कमतर आंक कर चल रहे हैं| दूसरी ओर आप, तृणमूल कांग्रेस और रांकापा को भी राहुल गांधी का नेतृत्व मानने में अब कोई परेशानी नहीं होगी, क्योंकि राहुल के नेतृत्व का करिश्मा अब सबने देख लिया है| कांग्रेस अध्यक्ष बनने की पहली वर्षगांठ पर ही उन्होंने कांग्रेस को अपेक्षा से अधिक मजबूत करने का जो विश्वास कांग्रेसियों को दिलाने में वह कामयाब रहे हैं, यह बहुत बड़ी बात है| अब वो पप्पू नहीं रहे, बल्कि सियासी पप्पा बनने की ओर अग्रसर हैं| उनके सियासी चच्चा लोगों को भी अब उनका लोहा मानना ही पड़ेगा, क्योंकि हाल-फ़िलहाल में देश में किसी भी तीसरे मोर्चे के उभरने की संभावनाएं लगभग क्षीण नजर आ रही हैं| ऐसा इसलिए कि मतदाता इन्हें वोटकटवा पार्टी समझकर ज्यादा तरजीह नहीं दे पा रहे हैं| इसलिए ऐसे दलों को देर सबेर या तो यूपीए या फिर एनडीए का ही अंग बनना पड़ेगा, यदि इन्हें अपनी सियासी साख बचानी होगी तो अन्यथा ऐसे दल अपना जनाधार खो देंगे|अब कांग्रेस को शहरी मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए विशेष रणनीति बनानी होगी, जबकि बीजेपी को ग्रामीण मतदाताओं को पुनः लुभाने के लिए अपनी एड़ी चोटी एक करनी होगी| कांग्रेस को जहां किसानों-मजदूरों-छोटे दुकानदारों- महिलाओं-बेरोजगारों की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा, वहीं बीजेपी को अपना सियासी अस्तित्व बचाने के लिए हिंदुत्व के कोर एजेंडे कीओर लौटना होगा जिससे अबतक वह आंखमिचौली करती आई है| यही नहीं, अपने दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक सुरों में भी तब्दीली करनी होगी, क्योंकि उसके आधार वोट सवर्णों को यह बात रास नहीं आ रही है और उनकी उदासीनता का
परिणाम सामने है| बीजेपी को कांग्रेस की आर्थिक नीतियों को भी पलटना होगा, जिसकी सहगामिनी बनकर वह निरंतर अलोकप्रिय होती जा रही है हिंदी पट्टी में|इस बात में कोई दो राय नहीं कि 2015 में दिल्ली की शर्मनाक पराजय, फिर बिहार पराजय, फिर पश्चिम बंगाल की हार, उसके बाद पंजाब और कर्नाटक की हार और हिंदी पट्टी की विभिन्न उपचुनावी हारों से यदि बीजेपी कोई गहरी सबक ली होती तो ऐसे बुरे दिन उसे कभी नहीं देखने पड़ते| आप मानें या नहीं मानें,लेकिन आडवाणी और जोशी की उपेक्षा का असर देर से ही सही लेकिन बीजेपी केप्रदर्शन पर अब दिखने लगा है| और 'चाणक्य' इस बार कैसे चारो खाने चित्त हो गए, यह समझना बीजेपी के बूते की बात न तो आज है और न हीं कल हो पायेगी! क्योंकि अपनी गलती बुद्धिमान लोग जल्दी समझ जाते हैं लेकिन हठधर्मी और एकपक्षीय लोग कभी नहीं, जिसका शिकार बीजेपी बन चुकी है धीरे धीरे ही सही! इसलिए अपना सियासी इलाज उसे खुद करना होगा क्योंकि संघ के लिए उसकी कतिपय नीतियां अब लाइलाज प्रतीत हो रही हैं| शायद यह संवैधानिक असर हो लेकिन उसके कोर मतदाताओं पर अब यह बेअसर प्रतीत हो रहा है, परिणाम सामने है| आप जैसी छोटी पार्टी भी 2019 के लिए बीजेपी मुक्त भारत का राग अलापना शुरू कर चुकी है| इसलिए कभी सियासी रूप से अछूत समझी जाने वाली पार्टी बीजेपी को अब अतिशय सावधानी बरतनी होगी, अन्यथा सियासी डगर मुश्किल हो जाएगी|
लगता | क्योंकि कांग्रेस नीत यूपीए और बीजेपी नीत एनडीए की रणनीतिक खामियों की वजह से भी क्षेत्रीय दलों को अक्सर संजीवनी मिलती ही रहती है|इस बार भी देखा जाए तो राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां कांग्रेस उम्मीदों से अधिक मजबूत हुई है, वहीं बीजेपी की स्थिति
मध्यप्रदेश और राजस्थान के मुकाबले छत्तीसगढ़ में ज्यादा कमजोर हुई है लेकिन तेलंगाना और मिजोरम में जिस तरह से क्षेत्रीय दलों ने अपना डंका बजाया है, वह कांग्रेस और बीजेपी जैसी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के लिए एक सबक है, विशेष तौर पर यूपीए और एनडीए के मिशन 2019 के लिहाज से| यदि इन ताजा परिणामों को केंद्रीय सत्ता का सेमीफाइनल समझा जाए तो कांग्रेस के लिए खुश होने की कई वजहें हैं, जबकि बीजेपी की नीतिगत परेशानी बढ़ने के स्पष्ट संकेत मिल चुके हैं| सच कहा जाए तो बीजेपी के 'कांग्रेसीकरण' की कोशिशों को हिन्दू जनमानस ने लगभग ख़ारिज करने की शुरुआत उस जगह से ही कर दी है जहां से उभरकर वह पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य पर छा चुकी थी| इसके उल्ट उन्हीं लोगों ने कांग्रेस के 'नरम हिंदुत्व' को एकबारगी नई बढ़त प्रदान की है, जिससे कांग्रेस ने कुलांचें मारनी फिर से शुरू कर दी है|फिर भी कांग्रेस को अधिक खुशफहमी नहीं पालनी चाहिए, क्योंकि उसके लिए दिल्ली अभी बहुत दूर है| जबकि बीजेपी को भी अपनी सियासी गलतफहमी दूर करने के लिए आत्मावलोकन करना चाहिए| अन्यथा निकट भविष्य में उसे केंद्रीय सत्ता भी गंवानी पड़ सकती है|सच कहा जाए इन चुनावों के बाद अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के अच्छे दिन आ गए हैं, क्योंकि भावी प्रधानमंत्री के तौर पर जो विपक्षी नेता उनके नेतृत्व को अभी तक चुनौती दे रहे थे उनकी बोलती बंद हो जाएगी, खासकर सपा-बसपा नेतृत्व की जो कांग्रेस को कमतर आंक कर चल रहे हैं| दूसरी ओर आप, तृणमूल कांग्रेस और रांकापा को भी राहुल गांधी का नेतृत्व मानने में अब कोई परेशानी नहीं होगी, क्योंकि राहुल के नेतृत्व का करिश्मा अब सबने देख लिया है| कांग्रेस अध्यक्ष बनने की पहली वर्षगांठ पर ही उन्होंने कांग्रेस को अपेक्षा से अधिक मजबूत करने का जो विश्वास कांग्रेसियों को दिलाने में वह कामयाब रहे हैं, यह बहुत बड़ी बात है| अब वो पप्पू नहीं रहे, बल्कि सियासी पप्पा बनने की ओर अग्रसर हैं| उनके सियासी चच्चा लोगों को भी अब उनका लोहा मानना ही पड़ेगा, क्योंकि हाल-फ़िलहाल में देश में किसी भी तीसरे मोर्चे के उभरने की संभावनाएं लगभग क्षीण नजर आ रही हैं| ऐसा इसलिए कि मतदाता इन्हें वोटकटवा पार्टी समझकर ज्यादा तरजीह नहीं दे पा रहे हैं| इसलिए ऐसे दलों को देर सबेर या तो यूपीए या फिर एनडीए का ही अंग बनना पड़ेगा, यदि इन्हें अपनी सियासी साख बचानी होगी तो अन्यथा ऐसे दल अपना जनाधार खो देंगे|अब कांग्रेस को शहरी मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए विशेष रणनीति बनानी होगी, जबकि बीजेपी को ग्रामीण मतदाताओं को पुनः लुभाने के लिए अपनी एड़ी चोटी एक करनी होगी| कांग्रेस को जहां किसानों-मजदूरों-छोटे दुकानदारों- महिलाओं-बेरोजगारों की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा, वहीं बीजेपी को अपना सियासी अस्तित्व बचाने के लिए हिंदुत्व के कोर एजेंडे कीओर लौटना होगा जिससे अबतक वह आंखमिचौली करती आई है| यही नहीं, अपने दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक सुरों में भी तब्दीली करनी होगी, क्योंकि उसके आधार वोट सवर्णों को यह बात रास नहीं आ रही है और उनकी उदासीनता का
परिणाम सामने है| बीजेपी को कांग्रेस की आर्थिक नीतियों को भी पलटना होगा, जिसकी सहगामिनी बनकर वह निरंतर अलोकप्रिय होती जा रही है हिंदी पट्टी में|इस बात में कोई दो राय नहीं कि 2015 में दिल्ली की शर्मनाक पराजय, फिर बिहार पराजय, फिर पश्चिम बंगाल की हार, उसके बाद पंजाब और कर्नाटक की हार और हिंदी पट्टी की विभिन्न उपचुनावी हारों से यदि बीजेपी कोई गहरी सबक ली होती तो ऐसे बुरे दिन उसे कभी नहीं देखने पड़ते| आप मानें या नहीं मानें,लेकिन आडवाणी और जोशी की उपेक्षा का असर देर से ही सही लेकिन बीजेपी केप्रदर्शन पर अब दिखने लगा है| और 'चाणक्य' इस बार कैसे चारो खाने चित्त हो गए, यह समझना बीजेपी के बूते की बात न तो आज है और न हीं कल हो पायेगी! क्योंकि अपनी गलती बुद्धिमान लोग जल्दी समझ जाते हैं लेकिन हठधर्मी और एकपक्षीय लोग कभी नहीं, जिसका शिकार बीजेपी बन चुकी है धीरे धीरे ही सही! इसलिए अपना सियासी इलाज उसे खुद करना होगा क्योंकि संघ के लिए उसकी कतिपय नीतियां अब लाइलाज प्रतीत हो रही हैं| शायद यह संवैधानिक असर हो लेकिन उसके कोर मतदाताओं पर अब यह बेअसर प्रतीत हो रहा है, परिणाम सामने है| आप जैसी छोटी पार्टी भी 2019 के लिए बीजेपी मुक्त भारत का राग अलापना शुरू कर चुकी है| इसलिए कभी सियासी रूप से अछूत समझी जाने वाली पार्टी बीजेपी को अब अतिशय सावधानी बरतनी होगी, अन्यथा सियासी डगर मुश्किल हो जाएगी|