बीते आम चुनाव के दौरान काले धन के मसले को तूल देते हुए नरेन्द्र मोदी ने विदेशी बैंकों में जमा कालेधन के आकार के बारे में समझाते हुए एक बार यह कह दिया कि अगर पूरा कालाधन वापस आ जाए तो हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख की रकम आ सकती है। नतीजन पूरा विपक्ष सरकार बनने के बाद सरकार से पंद्रह लाख की मांग करने लगा। इस मांग से परेशान होकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सफाई दी कि मोदी ने वह बात जुमले के तौर पर कही थी। शाह द्वारा पंद्रह लाख की बात को जुमला बताए जाने के बाद से आज तक मोदी सरकार की जुमलेबाजी चर्चा में बनी हुई है और विरोधी इसे जुमले की सरकार बताने में कसर नहीं छोड़ रहे हैं। लेकिन देखा जाए तो बीते साढ़े चार सालों में जुमलेबाजी की राजनीति का संक्रामक विस्तार हुआ है। कोई भी दल इससे अछूता नहीं रहा है। जुमलेबाजी करने के क्रम में इस बात का भी खयाल नहीं किया जाता है कि अगर कोई इन जुमलों के पीछे के सत्य और तत्य के बारे में पूछ ले तो आखिर उसे क्या जवाब दिया जाएगा। लेकिन चुंकि जुमला चल निकला है तो उसे उछालकर विरोधी पक्ष को नीचा दिखाने का मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता। इस मामले में कोई भी दल पीछे नहीं है। लेकिन अगर सबसे आगे दिख रहे दल की बात करें तो वह कांग्रेस ही है। कांग्रेस की तो पूरी राजनीति ही इन दिनों जुमलेबाजी और बकैती पर आधारित हो गई है। बकैती भी ऐसी जिसका ना तो सिर है ना पैर। बस कहते चले जाना है। ना किसी से कुछ सुनना है ना समझना है। भले उन बातों में कोई तथ्य या प्रामाणिकता हो या ना हों। कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता हैं कि एक ही बात को कितनी बार दोहराया जा रहा है। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी होने के बावजूद इन दिनों कांग्रेस के लिये सुनने, समझने, गुनने, धुनने और बुनने की लंबी प्रक्रिया के बाद ही कुछ बोलने की परंपरा बीते दिनों की बात बन कर रह गई है। लेकिन सवाल है कि बातों में तथ्य, सत्य, गंभीरता, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता तो तब आएगी जब किसी भी मामले पर बोलने से पहले इसके तमाम पहलुओं के बारे में सुनकर विश्लेषण व चिंतन-मनन करके कोई ठोस राय कायम की जाए। लेकिन अगर कोई बोलने की रौ में सुनना-समझना गवारा ही ना कर रहा हो तो उसकी बातों पर कोई क्यों, कैसे और कब तक गंभीरता से भरोसा कर सकता है। कायदे से देखें तो कांग्रेस ने आगामी चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा को घेरने के लिये जिन मुद्दों को मुख्य हथियार के तौर पर चुना है उसमें से एक भी औजार ऐसा नहीं है जो सत्य, तथ्य व प्रामाणिकता की धार व मजबूती से चमक-दमक रहा हो। कांग्रेस ने एक ओर राफेल के मुद्दे को आगे करके चैकीदार को चोर बताने की पहल की है तो दूसरी ओर ईवीएम की कमियां-खामियां गिना कर वह सरकारी तंत्र को बेईमान साबित करने पर तुली हुई है। इसके अलावा नोटबंदी के नुकसान गिनाकर वह आम लोगों की संवेदना बटोरना चाहती है तो जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स का नाम देकर सरकार को लुटेरी साबित करने में जुटी हुई है। साथ ही किसानों के लिये कर्जमाफी का वायदा करके वह जमीनी स्तर पर अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में लगी है। ये पांच ही वह बड़े मुद्दे हैं जिसके पंच से कांग्रेस की कोशिश है भाजपा को धराशायी करने की। लेकिन इन पांचों मसलों को अलग-अलग टटोलें तो इनमें से एक भी मुद्दा तथ्य व सत्य से ढ़ला ठोस हथौड़ा नहीं है जिससे मोदी सरकार के ताबूत में कील ठोंकी जा सके बल्कि ये सभी मनगढ़ंत बातों की हवा से फूले हुए गुब्बारे ही हैं जो सांच के आंच को एक क्षण भी शायद ही बर्दाश्त कर पाएं। इन पांचों मसलों को सिलसिलेवार ढंग से परखें तो राफेल खरीद के मामले को ही नहीं बल्कि ईवीएम में गड़बड़ी के सवाल को भी पूरी तरह देखने, परखने और समझने के बाद सुप्रीम कोर्ट पहले ही खारिज कर चुका है। राफेल के मामले में कांग्रेस के तमाम सवालों का जवाब संसद में सरकार भी दे चुकी है और मामले से जुड़ी फ्रांस सरकार और दसौं कंपनी से लेकर रिलायंस तक की ओर से पूरे तथ्यों व प्रमाणों के साथ स्थिति स्पष्ट की जा चुकी है। ईवीएम को हैक करना अगर संभव होता तो चुनाव आयोग द्वारा हैक करने के लिये तीन दिन का वक्त दिये जाने का इन्होंने सदुपयोग कर लिया होता। रहा सवाल जीएसटी का तो अगर ये इतना ही खराब है तो जीएसटी लागू करने से लेकर जीएसटी काउंसिल तक में हर फैसला अब तक बहुमत के बजाय सर्वसम्मति से क्यों हुआ? कांग्रेस ने नीति-नियम के निर्धारण से किनारा अथवा विरोध क्यों नहीं किया? नोटबंदी इतनी गलत थी तो राहुल गांधी नोट बदलने के लिये कतार में लगने के बजाय सड़क पर संघर्ष के लिये क्यों नहीं उतरे। मामले को न्यायालय में खींचकर सरकार को शर्मिंदा क्यों नहीं किया? इसी प्रकार किसानों की कर्ज माफी की बात करना भी कांग्रेस के लिये ऐसा ही है जैसे सहेज कर रखने के बजाय अपने ही हाथों से फाड़ी गई चादर पर पैबंद लगाने की बात की जा रही हो। आखिर किसानों की मौजूदा हालत के लिये जिम्मेवार भी तो कांग्रेस ही है। कभी उसने किसानों को मजबूत बनाने की दिशा में समग्र प्रयास करना जरूरी ही नहीं समझा। नतीजन किसानों की हालत बद से बदतर होती चली गई। तब बना दिया गया स्वामीनाथन आयोग। लेकिन इस आयोग की सिफारिशें लागू करना भी गवारा नहीं किया गया। अब जबकि स्वामीनाथन खुद ही इस बात पर प्रसन्नता जाहिर कर चुके हैं कि मोदी सरकार ने उनकी तमाम सिफारिशों को बेहद अच्छे तरीके से लागू कर दिया है तब कांग्रेस की ओर से कर्जमाफी का पैंतरा अपनाया जा रहा है। लेकिन इसके बारे में बोलने से पहले सोचना कतई जरूरी नहीं समझा जा रहा कि आखिर कर्जमाफी कितनी, किसकी और कैसे की जाएगी। यानि बोलने से पहले सोचना और सोचने के लिये सुनना जब गवारा ही नहीं है तो उन बातों की कितनी गंभीरता, विश्वसनीयता व प्रामाणिकता रहेगी इसे आसानी से समझा जा सकता है।
जुमलेबाजी के संक्रमण का कांग्रेसीकरण