कितने दागदार हैं आलोक वर्मा

ये पहली बार सुना कि एक सरकारी अफसर ने दिली चाहत ज़ाहिर की है कि उसे उसके मन का ही विभाग मिले। अगर नहीं मिलेगा तो वह उसे संभालेगा ही नहीं। वह सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे देगा। यही तो किया पिछले हफ्ते देश की सर्वोच्च संस्था सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा ने। उनकी सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के निदेशक पद पर बहाली कर दी थी। उसके बाद उन्हें सरकार की उच्चस्तरीय समिति ने एक नई जिम्मेदारी दे दी। पर उनके दुस्साहस को तो देखिए कि उन्होंने उस नए पद को लेने से ही मना कर दिया। क्या कोई अर्ध सैनिक वर्दीधारी पदाधिकारी इस तरह का आचरण कर सकता है?


जब मोदी सरकार ने आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक बनाया थातब तो उन्होंने इस पद को खुशी-खुशी हथिया लिया था। जबकि उन्हें इस विभाग में पहले काम करने का रत्तीभर भी अनुभव नहीं था। कहते हैं कि तब सीबीआई निदेशक के नाम पर विचार के लिए बुलाई उच्चस्तरीय समिति बैठक में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने आलोक वर्मा के नाम पर आपत्ति भी जताई थी। पर सेलेक्शन पैनल ने बहुमत के आधार पर उनकी नियुक्ति कर दी थी। उस पैनेल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश भी थे। खड़गे अब वर्मा के हटाए जाने का विरोध कर रहे थे। यानी वे आजकल हर जगह विरोध करते ही दिखते हैं। अब प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली तीन सदस्यीय सेलेक्शन कमेटी ने काफी सोच विचार कर आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक पद से हटाने का फैसला किया। प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज ए. के. सीकरी ने आलोक वर्मा को हटाने के हक में वोट दिया। वहीं मल्लिकार्जुन खड़गे ने उनके फैसले का विरोध किया।


पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने अपनी फेसबुक पर पोस्ट लिखा है- “ मैं  सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एके सीकरी को तब से जानता हूं जब वे दिल्ली हार्ई कोर्ट में जज थे। मैं तब मुख्य न्यायाधीश था। आलोक वर्मा को सीबीआई के चीफ पद से हटाए जाने पर मैंने जस्टिस सीकरी से बात की। जस्टिस सीकरी ने बताया कि सीवीसी के सामने जो सबूत आए थे उसके आधार पर कहा जा सकता है कि आलोक वर्मा पर पहली नजर में ही भ्रष्टाचार का केस बनता है। सीकरी का मानना था कि जब तक उनका दोष साबित नहीं हो जाता या वो निर्दोष करार नहीं दे दिए जाते तब तक उन्हें इस पद पर नहीं होना चाहिए।” तो प्रधानमंत्री मोदी और जस्टिस एके सीकरी सीवीसी की सिफारिश के अनुसार आलोक वर्मा को हटाने के हक में ही फैसला किया।जबकि मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसका विरोध किया। कहना ना होगा कि सीकरी की राय के बाद तो अब वर्मा साहब को डूब के मर जाना चाहिए।


दरअसल सीबीआई के निदेशक  बनने के बाद से ही आलोक वर्मा पर करप्शन के गंभीर आरोप लगने लगे थे। आलोक वर्मा पर पहला आरोप लगा कि उन्होंने मीट कारोबारी मोईन कुरैशी से रिश्वत ली।इसी तरह उन पर सोना तस्कर की मदद,पशु तस्करों से संबंधदागी अधिकारियों की नियुक्तिईडी के मामले में दखल के आरोप लगते रहे।


आलोक वर्मा को दूध का धुला कहने वाले वे ही लोग हैं, जिन्हें मोदी सरकार के केन्द्र में होने पर तकलीफ रही है। ये बिना किसी प्रमाण के मोदी सरकार पर ऱाफेल मामले में घूस लेने के आरोप लगाते रहते हैं। ये ही हर हाल में आलोक वर्मा को साधु साबित करने की हड़बड़ी में हैं! सच यही है कि वर्मा के सत्कर्मों’ का इन्हें अभी अंदाजा तक नहीं है। वो पता चल गया तो इनके पैरों तले जमीन खिसक जाएगी। आप लोगों का राफेल जाँच वाला जुमला सुनकर तो हँसी रोकना असंभव हो जाता है कि आलोक वर्मा इस मामले की जाँच करके सरकार में बैठे लोगों को फँसा देते। कौन विश्वास करेगा कि सरकार की मर्जी के खिलाफ सीबीआई डायरेक्टर रक्षा मंत्रालयपीएमओ से लेकर फ्रांस की दसाल्ट और अन्य कंपनियों की जाँच भी कर लेता और अपने दो-तीन महीने भर के बचे कार्यकाल में जाँच को किसी परिणति तक भी पहुँचा देता।


यह जानना भी जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को कभी कोई क्लीन चिट नहीं दी थी। उसमें वर्मा पर लगे आरोपों की मेरिट पर कुछ कहा तक नहीं गया है। वर्मा की बहाली इसलिए हुई, क्योंकि; तकनीकी रूप से उन्हें छुट्टी पर भेजने का आदेश न्यायालय ने गलत पाया। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को बहाल इसलिए किया, क्योंकि; कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि प्रधानमंत्रीमुख्य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की हाई पावर कमेटी जो सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति करती हैउसे ही डायरेक्टर के ट्रांसफर या उसे छुट्टी पर भेजने का अधिकार हैसरकार या सीवीसी को नहीं।


एक और झूठ जो बहुत सारे लोग पूरी निर्लज्जता से बोल रहे हैं वह यह है कि वर्मा को मोदी सरकार ने हटा दिया। सरकार अपनी मर्जी से सीबीआई डायरेक्टर को न तो नियुक्त कर सकती है न ही हटा सकती है। क्योंकि, यह काम जो कमेटी करती है उसमें प्रधानमंत्री के अलावा नेता प्रतिपक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में दो अन्य अति महत्वपूर्ण और प्रभावी लोग होते हैं। प्रधानमंत्री तो उस समिति में तीन में एकमात्र सरकार का प्रतिनिधित्व करता है। एक तो साफ तौर पर सरकार का विरोधी ही होता है और दूसरा देश में न्याय व्यवस्था का सबसे बड़ा संरक्षक होता है। ये दोनों एक मत के हो जायँ तो प्रधानमंत्री कुछ नहीं कर सकता। इस मामले में भी मल्लिकार्जुन खड़गे ने तो वर्मा को हटाने का विरोध ही किया था, लेकिन प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के प्रतिनिधि वर्मा को हटाने पर एकमत थे।


 एक और हास्यास्पद तर्क आलोक वर्मा के हक में यह भी दिया जा रहा है कि उन्हें अन्य विभागों का प्रभार क्यों दिया गया था। यह बातें करने वाले ज़रा यह भी जान लें कि वर्मा के खिलाफ जाँच सी. वी. सी. की अभी पूरी नहीं हुई है। हाँसर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर जस्टिस पटनायक की निगरानी में सीवीसी ने कोर्ट द्वारा निर्धारित दो हफ्ते के समय में जाँच करके जो प्राथमिक रिपोर्ट सौंपीउसमें कई आरोपों को प्रथमदृष्ट्या सही पाते हुए ही आगे विस्तृत जाँच की आवश्यकता बतायी गयी। बड़ी सामान्य सी बात है कि जिस पद पर रहते हुए आपके द्वारा किये गये संदिग्ध आचरण की जाँच की जा रही हैजाँच के दौरान आप उसी पद पर बने नहीं रह सकते।


 नरेंद्र मोदी ने सन 2014 में प्रधानमंत्री पद को संभालते ही सरकारी बाबुओं  को चेतावनी दी थी कि "न मैं खाऊंगा और न ही किसी को खाने दूंगा" और "न चैन से बैठूंगान चैन से बैठने दूंगा।" यह तो उन्होंने स्वयं तो मनसा-नाचा- कर्मा सिद्ध कर दिया है। आलोक वर्मा जैसे कुछ बाबू अब भी समझ नहीं पाए हैं कि उन्हें जन प्रतिनतिधियों के आदेशों- निर्देशों को मानना ही होगा। ये अब भी करप्शन में लिप्त हैं। ये घनघोर सुविधाभोगी हैं। इन्हें सिर्फ अपना पेट भरना होता है।


 कहते हैं कि अंग्रेज़ चले गये पर अपनी औलाद इन बाबुओं की नस्ल में छोड़ गये। सच पूछिए तो 1947 भारत में आज़ादी के साथ सत्ता परिवर्तन तो हो गयाकिन्तुव्यवस्था परिवर्तन तो हुआ नहीं। अंग्रेज़ों ने नौकरशाहों को देश की आम जनता को प्रताड़ित करने और राजस्व के नाम पर लूट/ खसोट करने के लिए ही ट्रेंनिंग देकर तैयार किया था। उस समय ज़िलाधिकारी को "कलेक्टर" यानी " वसूली करनेवाला" कहा जाता था । आज़ादी के बाद परिवर्तन मात्र इतना ही हुआ है कि अब उन्हें "कलेक्टर एण्ड डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट" कहा जाने लगा। प्रधानमंत्री स्वयं को देश का "प्रधान सेवक" कहते हैंलेकिनज़िलाधिकारी अभी भी "जिले के प्रथम सेवक" बनने की बजाय "कलेक्टर" वाली ही मानसिकता लेकर बैठे हुए हैं।


 बहरहालआलोक वर्मा प्रकरण उनके जैसे बाबुओं के लिए एक कड़ा संदेश तो दे ही गया है।


 (लेखक राज्य सभा सांसद हैं)