ममता सरकार की तानाशाही






पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार जिस तरह से तमाम मूल्यों, आदर्शों व परंपराओं को राजनीति की आग में झोंक देने पर आमादा दिख रही है वह वास्तव में बेहद सोचनीय व काफी हद तक निंदनीय भी है। भारतीय राजनीति में यह परंपरा रही है कि सियासी टकराव को निजी संबंधों के आड़े नहीं आने दिया जाता। बेशक अलग-अलग दलों के नेतागण जमीनी स्तर पर सैद्धांतिक व वैचारिक लड़ाई लड़ते रहते हों लेकिन निजी जीवन में एक दूसरे के साथ कभी शत्रुता नहीं पालते। बल्कि चुनाव के दौरान तो कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि दिन भर प्रचार अभियान में जुटे रहने के बाद शाम के वक्त विरोधी दलों के नेता एक-दूसरे को भोजन पर भी आमंत्रित करते हैं और एक ही जगह ठहरने से भी गुरेज नहीं करते हैं। यही स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी भी है जिस पर भारत को गर्व रहा है। टकराव मुद्दों से हो सकता है, विचारों से हो सकता है लेकिन व्यक्ति से कैसा टकराव? यह टकराव की नौबत अगर आ रही है तो निश्चित है दिल में घर बना चुकी संभावित हार की हताशा और बौखलाहट का ही परिणाम हो सकता है। ठीक वैसा ही जैसे बसपा द्वारा मुलायम सरकार को उंगलियों पर नचाए जाने से बौखलाकर सपा के कार्यकर्ताओं ने मायावती के साथ ऐसी अभद्रता कर दी जिसे दशकों बीत जाने के बाद भी ‘गेस्ट हाउस कांड’ के नाम से याद किया जाता है। लेकिन ऐसे उदाहरण भारतीय राजनीति में गिने-चुने ही हैं जबकि बहुतायत तो उन उदाहरणों की है जिसमें विरोधी पक्ष के नेता की गाड़ी खराब हो जाये तो गंतव्य तक पहुंचाने में वे ही मदद करते हैं जिनके खिलाफ जनता से वोट मांगा जा रहा होता है। इस गर्व करने लायक स्वस्थ राजनीतिक परंपरा को पश्चिम बंगाल की ममता सरकार पूरी तरह मटियामेट करने पर आमादा है। अगर ऐसा नहीं होता तो भाजपा के राजनीतिक कार्यøमों को इस तरह से प्रतिबंधित करने का प्रयास हर्गिज नहीं किया जाता। मालदा में अमित शाह को रैली करने से रोकने के लिये ममता सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। यहां तक कि रैली स्थल के करीब स्थित हवाई अड़डे का इस्तेमाल करने से भी उन्हें रोकने से नहीं चूकी ममता सरकार। कहा गया कि वहां शाह का हेलीकाॅप्टर नहीं उतर सकता क्योंकि वहां निर्माण का काम चल रहा है। जबकि भाजपा का दावा है कि वह हवाई अड्डा पूरी तरह दुरूस्त है और अगर निर्माण कार्य चल रहा होता तो बीते दिनों ममता वहां से कैसे उड़ान भर सकती थीं। खैर, इस मामले में ममता सरकार की दलीलों को सच माना भी जा सकता था अगर इससे पहले उन्होंने भाजपा के राजनीतिक व सामाजिक कार्यक्रमों पर बंदिश लगाने का प्रयास नहीं किया होता। लेकिन सच तो यह है कि ममता ने सिर्फ राजनीतिक कार्यक्रमों में अड़ंगा नहीं लगाया बल्कि सामाजिक व धार्मिक आयोजनों को भी वोटबैंक के तराजू में तौलने से गुरेज नहीं बरता है। वर्ना मोहर्रम के जुलूस को प्राथमिकता देते हुए दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन को बाधित करने का सरकारी फरमान जारी नहीं किया जाता। सरस्वती पूजा को रोकने की पहल नहीं होती और रामनवमी के जुलूस को बाधित करने का प्रयास नहीं होता। लेकिन आलम यह है कि सूबे में कानून व्यवस्था उन लोगों के हाथों की कठपुतली बन गयी है जो ममता सरकार के सहयोगी व समर्थक हैं। विरोधियों पर तो प्रशासन भी कहर बरपाता है और राजनीति की आड़ में अपना उल्लू सीधा करनेवाले असामाजिक तत्व भी। इसी का नतीजा है कि पश्चिम बंगाल में लगातार राजनैतिक हत्याएं हो रही हैं। हाल ही में राज्य में संपन्न हुए स्थानीय निकाय के चुनाव में विरोधी पक्ष के उम्मीदवारों को अपना नामांकन पत्र तक नहीं भरने दिया गया जिसका नतीजा रहा कि तकरीबन एक तिहाई सीटों पर ममता की तृणमूल के प्रत्याशी या तो निर्विरोध अथवा दिखावे के लिये खड़े किये गये डमी उम्मीदवारों दिखावे का मुकाबला करके निर्वाचित हो गए। स्थानीय चुनावों के दौरान जिस बड़े पैमाने पर हिंसा का तांडव हुआ वह भी किसी से छिपा नहीं है। दिनदहाड़े विरोधी पक्ष के कार्यकर्ताओं की नृशंस हत्याएं की गई। पंचायत चुनावों में पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के 36 कार्यकर्ताओं सहित लगभग 80 लोगों की निर्मम हत्या हुई। किस प्रकार की हालत हो गई है पश्चिम बंगाल में कानून-व्यवस्था की और पूरा प्रशासन किन लोगों के हाथों की कठपुतली बन गया है इसका सहज अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं को पश्चिम बंगाल में बाइक रैली तक निकालने की इजाजत तक नहीं दी गई। यहां तक कि कोलकाता हाई कोर्ट को राज्य सरकार को इस मामले में फटकार भी लगानी पड़ी। पश्चिम बंगाल में जिस तरह से ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार काम कर रही है, यह स्पष्ट दर्शाता है कि राज्य में कानून-व्यवस्था काबू के बाहर है और राज्य सरकार शायद बंदूकों व डंडों के जोर पर राजनीति करने लगी है। पूरे सूबे पर सिंडीकेट हावी है और उसके इशारे पर ही प्रशासन काम कर रहा है। इस तरह का माहौल बनाकर अगर ममता सरकार अपने विरोधियों को रोकने का सपना देख रही है तो निश्चित ही यह उसकी भूल है। बेशक स्थानीय चुनावों की कमान प्रदेश के सुरक्षातंत्र के हाथों में थी जो राज्य सरकार के प्रति जवाबदेह है लेकिन आम चुनाव में ऐसा फायदा नहीं मिलनेवाला। तब पूरे चुनाव की निष्पक्षता सुनिश्चित करने का दायित्व चुनाव आयोग पर रहेगा और वह ही तय करेगा कि किस जगह किस स्तर की सुरक्षा मुहैया कराई जाए। जाहिर है कि निष्पक्ष व शांतिपूर्ण मतदान के समय ममता सरकार का मौजूदा रवैया भी मतदाताओं को याद ही रहेगा और वे ईवीएम का बटन दबाकर सही-गलत का फेसला करने में संकोच भी नहीं करेंगे। लिहाजा बेहतर होगा कि ऐसे अलोकतांत्रिक व तानाशाही रवैये से किनारा करके स्वस्थ व प्रतिस्पर्धी राजनीति की ओर कदम बढ़ाया जाए। वैसे भी राजनीति में सारा खेल समीकरणों का ही होता है और अंकगणित का समीकरण बिठाने के लिये ही दूरी या करीबी बनाई जाती है। लिहाजा सियासत में यह शेर हमेशा याद रखना चाहिये कि- ‘दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, कल अगर हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा ना हों।’