दिल्ली की क्या हालत बना दी है दिल्ली के ही लोगों ने इसकी बेहद शर्मनाक बानगी तब देखी गई जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा कि जब मैं रिटायर हो जाऊंगा तो दिल्ली में नहीं रहूंगा। जस्टिस मिश्रा ने यह बात कोई खुशी, अहंकार या दंभ में नहीं बल्कि विवशता और मजबूरी में कही है। दिल्ली की दमघोटू जहरीली हवा और हर सड़क पर बेतहाशा वाहनों की भीड़ के कारण पैदा होनेवाली जाम की स्थिति से दुखी होकर उन्होंने यह बात कही है। वाकई उनका यह कहना बेहद शर्मनाक है हर दिल्लीवासी के लिये क्योंकि आज दिल्ली की जो यह हालत हुई है उसके लिये कोई बाहर का बाशिंदा जिम्मेवार नहीं है। जिम्मेवार वे ही है जो दिल्ली में रहते हैं और दिल्ली से सिर्फ लेते ही हैं। दिल्ली को देने के नाम पर वे अपने गैर-जिम्मेदाराना आचरण की सौगात देते हैं और प्रदूषण व गंदगी बढ़ाने में अपना योगदान देते हैं। इसी का नतीजा है कि अब विदेशी सैलानी दिल्ली आने से कतराने लगे हैं और दिल्ली के लोगों की सेहत भी दिनोंदिन बिगड़ती चली जा रही है। तमाम अस्पतालों में बेतहाशा बढ़ती भीड़ यह बताने के लिये काफी है कि दिल्ली की आबो-हवा किस कदर लगातार जानलेवा होती जा रही है। दिल्ली की जहरीली आबोहवा और यहां के माहौल को विषाक्त व दमघोंटू बना रहे वायु प्रदूषण को लेकर लंग केयर फाउंडेशन की अध्ययन रिपोर्ट ने दिल्ली के जहरीले वातावरण को लेकर जो नया खुलासा किया है उसके मुताबिक दिल्ली और गुरुग्राम में दिवाली के बाद हवा में कई तरह के जहरीले रसायन भारी धातु के रूप में मिले हैं। पूरी दुनिया में प्रदूषण के मानक का जो स्तर है उसके मुकाबले दिल्ली में हमेशा ही सात से आठ सौ गुना अधिक स्तर पर प्रदूषण का साम्राज्य रहता है। हाल ही में पीएम 2.5 में मिले भारी धातु के रासायनिक कणों के श्वास के जरिये शरीर में जाने से तमाम तरह की बीमारियां फैल रही हैं। खासतौर पर बच्चों का तंत्रिका तंत्र व मस्तिष्क खोखला हो रहा है। इन रसायनों में न्यूरोटॉक्सिन जैसा घातक रसायन भी शामिल है जो मासूम बच्चों के मस्तिष्क का विकास ही रोक देता है। इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर इस वजह से भी सवाल नहीं उठाया जा सकता है क्योंकि बीती दीवाली के बाद पूरी दिल्ली के सात जगहों से नवंबर व दिसंबर महीने के दौरान अलग-अलग दिनों में सैंपल एकत्र किये गये जिसमें लोगों के घर की बालकनी के खुले हिस्से भी शामिल थे। इन सैंपलों की भारत में जांच कराने के बजाय इसे जांच के लिये अमेरिका भेजा गया। अमेरिकी लैब में सघन जांच के बाद इस बात की पुष्टि हुई है कि दिल्ली की मौजूदा आबोहवा में सुधार करने के लिये गंभीर व कड़े कदम नहीं उठाए गए तो यहां रहना आत्मघाती साबित हो सकता है। दिल्ली की हवा में सिर्फ धूलकण ही नहीं मिले हुए हैं बल्कि जांच के लिये भेजे गए वायु के सैंपलों में मैग्नीशियम, लेड और निकल सरीखे बेहद घातक व रोगकारक तत्वों की मौजूदगी भी पाई गई है। इससे सिर्फ दिल्लीवालों के फेफड़े ही प्रभावित नहीं हो रहे बल्कि यह प्रदूषण टीबी, अस्थमा व कैंसर का कारण भी बन रहा है और खास तौर से नवजात व छोटे मासूम बच्चों के लिये तो इस हवा में सांस लेना सीधे तौर पर जहर के संपर्क में रहने जैसा है क्योंकि इसका असर उन पर ही सबसे अधिक होता है जिससे उनके तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क का विकास भी अवरूद्ध हो रहा है। इस जानलेवा प्रदूषण के लिये सबसे अधिक जिम्मेवार दिल्ली के आम लोग ही हैं जिनमें ना तो इस विकट स्थिति की गंभीरता के बारे में जागरूकता है और ना ही शासन व प्रशासन द्वारा उठाए जाने वाले कदमों में सहयोगी व सहभागी बनना उन्हें स्वीकार्य होता है। वर्ना जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में दीपावली के दिन पटाखों के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करने का निर्देश दिया गया था उसका सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक हर्गिज मजाक नहीं बनाया जाता और निर्देश की अवहेलना करने को अपनी मर्दानगी के सबूत के तौर पर प्रचारित करने की होड़ नहीं लगती। इसी प्रकार दिल्ली की एक अन्य समस्या भी दिल्लीवालों द्वारा ही खड़ी की गई है। वह है सड़कों पर निरंतर व कभी ना समाप्त होनेवाले जाम की समस्या। कुछ साल पहले दिल्ली के एक ट्रैफिक कमिश्नर ने सार्वजनिक तौर पर दिल्ली वालों को इस बात के लिये ताना दिया था कि यहां को लोग जानते ही नहीं हैं कि लेन ड्रायविंग किस चिड़िया का नाम है। इसके अलावा लिफ्ट लेना या देना भी आम दिल्ली वासी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। रही सही कसर दिल्ली की सरकार ने पूरी कर दी है जिसने परिवहन की समस्याओं से निपटने में सिर्फ इतनी ही दिलचस्पी ली कि जब प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ गया तो यहां आॅड-इवन यानि सम-विषम नंबर की गाड़ियों को सड़क पर निकालने को लेकर एक फरमान जारी कर दिया। वर्ना ना तो सार्वजनिक परिवहन की स्थिति सुधारने में दिल्ली सरकार ने कभी दिलचस्पी दिखाई और ना ही केन्द्र सरकार ने दिल्ली मेट्रो को गरीब तबके के लिये सुलभ रहने दिया। स्थिति यह है कि केन्द्र ने मेट्रो का किराया इस स्तर तक बढ़ा दिया है कि कम कमाई वाले लोग अब इसका इस्तेमाल करने से बचने लगे हैं और मोटी कमाई करनेवाले लोग मेट्रों में ठुंस कर यात्रा करने से तौबा कर चुके हैं। ऐसे में यह भी मध्यमवर्ग की सवारी बन कर रह गई है जबकि प्रदूषण व जाम की समस्या को जटिल करने में कभी इस वर्ग का बड़ा योगदान नहीं रहा। ऐसे में जाम व प्रदूषण की दोतरफा मार का ही नतीजा है कि जस्टिस मिश्रा को यह कहना पड़ा है कि अब दिल्ली रहने के लायक नहीं बची है। जस्टिस मिश्रा ने माना कि जब वे दिल्ली आए थे तब शुरुआत में उन्हें इस महानगर ने काफी आकर्षित किया था लेकिन उनकी मानें तो अब यह शहर उन्हें रहने लायक भी नहीं लग रहा है। उन्होंने साफ कहा कि जब मैं रिटायर हो जाऊंगा तो दिल्ली में नहीं रहूंगा। उन्होंने इसकी स्पष्ट वजह यहां के जाम और प्रदूषण को बताते हुए कहा कि जाम के कारण किसी कार्यक्रम में तय समय पर पहुंचना नामुमकिन की हद तक मुश्किल होता जा रहा है। निश्चित ही यह सभी दिल्लीवालों के लिये बेहद शर्मनाक टिप्पणी है और अगर अब भी शर्म करके चेतने में देर की गई तो जल्दी ही यहां के लोग चेत कर समस्या के सुधार करने की स्थिति में नहीं होंगे।
शर्म हमको मगर नहीं आती