चौकड़ियों में नाग





एक्कड़ दुक्कड़ खेल खेल 

चौकटियाँ में पैर जमाते 

हम सोचते रहे जीत ली मैंने 

चौकड़ की अपनी बारी 

ये चौकड़ियाँ सामान्य नहीं थीं

न जानें कितनी गहरी खांइयाँ 

अबूझ जालसाजी कुचक्र

हर चौकड़ में छुपा हुआ था नाग

विषभरी चौकड़ियों की धार 

छूते मर जानें का भय 

चौकड़ियाँ कूँआ बन गई

एक टाँग पर कूद कूद कर 

कितनी बार बचते बचाते 

क्रुद्ध नाग का छुपा फन 

नाग आदमी बन गए हैं 

और मैं निर्भय सी 

जीवित बच निकलती 

और हर बार जीत का गुमान 

चौकड़ियों नें पीछा पकड़ लिया

वो हारना नहीं चाहतीं 

चौकड़ियाँ घर बन गई हैं 

उन्हें मेरी मुस्कराहट पसंद नहीं

वे निरंतर प्रयत्नशील हैं 

मेरे अश्रुओं से मुखप्रक्षालन कर 

आनंदोत्सव मनानें के लिए 

नाग इक्षाधारी हो उठते हैं 

चौकड़ियाँ बस्ती बना चुकी हैं 

नाग बस्तियों में बस चुके हैं 

लड़कियां अब नहीं खेलतीं 

एक्कड़ दुक्कड़ का खेल 

लड़कियां चील कौए बन गई हैं

नाग पकड़ने का हुनर सीखती हैं 

कुछ लड़कियां डस ली जाती हैं

कुछ शहर पर करती हैं राज 

कुछ के सपनों में आती हैं रोज 

चौकड़ियों में धप्प धप्प की ध्वनि

इमारतें टूटने बनने सी आवाज

नाग की क्रुद्ध फुफकार 

वो बदहवास सी उठ बैठती हैं 

वे मुर्गियाँ बन गई हैं

कुछ को मंत्रसिद्ध है 

महुअर बजानें लगी हैं 

नागों का झुंड उनके 

आगे पीछे आँखे मूँद चलता है 

सीधी साधी लड़कियां 

आज भी भयभीत डसी जाती हैं 

वे पेड़ बन गई हैं 

निरंतर काटी जाती हैं