इस्लामिक स्टेट के सहचरों पर दया-दृष्टि आतघाती होगी








रक्तरंजित, बर्बर ,पिशाच और अमानवीय मानसिकताओं और इसके सहचरों पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाना सही में न केवल आत्मघाती है, खतरनाक है, रक्तरंजित हिंसा, रक्तरंजित आतंकवाद को आमंत्रण देना जैसा है, बल्कि विभिन्न मजहबी और धार्मिक समूहों में घृणा का बीजारोपन करना है , मजहबी हिंसा की आग पर पानी डालने के वैश्विक अभियान को कमजोर करना है और अब तक ऐसी मानसिकताओं के खिलाफ मिली वैश्विक सफलताओं को बेअर्थ करना ही माना जाना चाहिए। अगर रक्तरंजित, पिशाच, बर्बर और अमानवीय मानसिकताएं मर रही हैं, अपना अर्थ खुद खो रही हैं, इसके सहचर अगर खुद हाशिये पर खडे हैं, अपनी करतूतों की सजा भुगत रहें हैं तो फिर ऐसी मानसिकताओं को और ऐसे सहचरों को मरने या फिर खुद नष्ट होने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए, ऐसी मानसिकताएं, ऐसे सहचर कोई दया-करूणा के पात्र नहीं हैं, क्योंकि ऐसी मानसिकताएं, ऐसे सहचर रक्तरंजित, पिशाच और अमानवीयता की ऐसी वीभत्स करतूतों को अंजाम दिये है, जिसके उदाहरण कम ही मिलते हैं, बल्कि यह कहना सही होगा कि रक्तरंजित,पिशाच, अमानवीय मानसिकताओं और सहचरों की करतूतों को सुनकर शरीर में कंपकंपी होने लगती है, आधुनिक युग में ऐसी बर्बरता पर चिंता की लकीरें खडी हो जाती हैं। मूर्खता में कहिये या फिर पागलपन मे कहिये, कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में रक्तरंजित, पिशाच, बर्बर , अमानवीय और पाषाण युग की मानसिकताओं का संरक्षण मिला है, सहयोग मिला है। संरक्षण सहयोग न सिर्फ मजहबी तौर पर मिला है बल्कि मजहबी आधार पर स्थापित सत्ता से भी मिला है। जब मजहबी व्यवस्था और मजहबी सत्ता ऐसी मानसिकताओं का संरक्षण और सहयोग दे रही थी तब इसके दुष्परिणामों का आकलन तक नहीं की थी। अगर दुष्परिणामों का आकलन किया होता और मानवता को कसौटी देखा होता तो फिर ऐसी मानसिकताएं और ऐसे सहचर निर्दोष लोगों की जिंदगियां न तबाह की होती और न ही विभिन्न धार्मिक समूहों में घृणा का बीजारोपण करने में सफल होती।

               यहां हम इस्लामिक स्टेट की रक्तरंजित, पिशाच, बर्बर, पाषाण, और अमानवीय मानसिकताओं व सहचरों की बात कर रहे हैं। इस्लामिक स्टेट ने कुछ मुस्लिम देशों में कैसी हिंसक, रक्तरंजित, पिशाच, बर्बर , पाषाण और अमानवीय मानसिकताओं का बीजारोपण किया था और हिंसा-आतंकवाद की कैसी आग लगायी थी, मानवता को किस प्रकार से लहूलुहान कर रखा था, यह किसी से छिपा हुआ विषय नहीं है, यह सब पूरी दुनिया आसानी से जानती है। इस्लाम के नाम पर खडी की गयी ऐसी मानसिकताओं से सिर्फ उन मुस्लिम देश ही आक्रांत नहीं हुए, प्रभावित नहीं हुए बल्कि अमेरिका, यूरोप का उदार और बहुलतावाद पर आधारित सामाजिक व्यवस्था भी प्रभावित हुई थी, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश की व्यवस्था भी प्रभावित हुई थी। कुछ समय के लिए ऐसी चिंता दुनिया पसरी थी कि कहीं यह बर्बर मानसिकताएं कुछ मुस्लिम देशों की सीमाओं से निकल कर दुनिया के सभ्य सामाजिक व्यवस्था को भी अपने आगोश में न ले लें, क्योंकि उस काल में गैर मुस्लिम देशों के मुस्लिम युवक-युवतियां भी इस्लामिक स्टेट के लिए मरने और मारने पर उतारू थी। इस्लामिक स्टेट वैसे मुस्लिम युवक-युवतियों के लिए आईकाॅन बन गया था जो इस्लाम के नाम पर न केवल पागलपन के शिकार हो गये थे बल्कि इस्लामिक स्टेट को  अपना आईकाॅन मान कर उसके पक्ष में हिंसा और आतंकवाद बरपाने के कार्य किये थे। दुनिया से हजारों मुस्लिम युवक-युवतियां इस्लामिक स्टेट की ओर से लड़ने इराक और सीरिया गये थे। इराक में कूर्द आबादी ने वीरता दिखायी थी, कूर्द महिला बटालियन के सामने इस्लामिक स्टेट के पांव उखड गये, पांव जमे नहीं। इराक में अमेरिका ने भी अपने हमलो से इस्लामिक स्टेट की कब्र खोदी थी, जबकि सीरिया में रूस ने अपने घातक और हिंसक जहाजों से इस्लामिक स्टेट के युवक-युवतियों का कब्रगाह बना डाला था।

           इस्लामिक स्टेट को जब सफलताएं मिल रही थी, इस्लामिक स्टेट को जब दुनिया भर के आतंकी मानसिकताओं का समर्थन मिल रहा था तब इस्लामिक स्टेट से लड़ने वालों की जमात काफी तेज थी पर जैसे ही इस्लामिक स्टेट को असफलताएं मिलनी शुरू हुई और प्रतिक्रिया गत हिंसा तेज हुई वैसे ही इस्लामिक स्टेट की तरफ से लड़ने वाले लड़ाकों का मनोबल टूटने लगा, उनकी कथित वीरता खोने लगी, उनके सिर पर मौत का भूत नाचने लगा, जो इस्लामिक स्टेट के लड़ाके हिंसा कर खुश होते थे, विरोधियों को सरेआम गर्दन काट खुशी मनाते थे, विरोधी समुदाय की महिलाओं को रखैल बना कर खुश होते थे, को जब अपनी जान खतरे में पडी और करतूतों का दंड सामने दिखने लगा तो फिर ऐसे समूह के लोगों में भगदड मची, इस्लामिक स्टेट छोड़कर भाग खडे हुए। सबसे बडी बात यह है कि भागने के क्रम में इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट के दहशतगर्द बडी संख्या में मारे गये। इसके अलावा अपने-अपने देश में गये, जहां पर उन्हें कानूनों का सामना करना पडा। भारत में भी इस्लामिक स्टेट के कई आतंकवादी घर वापसी के दौरान पकडे गये, जिन्हें जेल हुई है। 

            दुनिया अभी संशकित हैं, संशकित क्यों हैं, इसके कारण स्पष्ट है, सीरिया और इराक से इस्लामिक स्टेट का सफाया जरूर हुआ है, इस्लामिक स्टेट की स्पष्ट हार हुई है पर इस्लामिक स्टेट की बर्बर, पिशाच, पाषाण और रक्तरंजित मानसिकताएं घ्वस्त नहीं हुई, जमींदोज नहीं हुई हैं, शेष हैं। इस्लामिक स्टेट ने अपनी नीति बदली है, अपने लडने के तरीके बदले हैं। इस्लामिक स्टेट ने यह समझ लिया है सीरिया और इराक में अब उसके पांव फिर से जमने वाले नहीं है। इसलिए इस्लामिक स्टेट ने अपने बचे हुए हिंसक आतंकवादियों की स्वदेश वापसी की नीति बनायी। इस्लामिक स्टेट ने अपने हिंसक सहचरों से जाकर कह दिया है कि अपने-अपने देश जाकर इस्लाम के शासन के लिए हिंसा और आतंकवाद का रास्त अपनाने के लिए प्रयास करें। इस्लामिक स्टेट की इस स्पष्ट नीति ने दुनिया की गुप्तचर एजेंसियों की नींद उड़ायी हैं।

            सबसे खतरनाक बात यह है कि इस्लामिक स्टेट के हिंसक सहचरों के पक्ष में कई मुस्लिम संगठन सामने आ गये हैं जो इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों को मानवाधिकार के नाम पर माफी देने के लिए अभियानरत है। दो ऐसे प्रंसग है जिस पर दुनिया भर में चर्चा हो रही है, एक खास समुदाय इसके पक्ष में आकर समर्थन कर रहा है। एक प्रसंग इस्लामिक स्टेट की दुल्हन के रूप में चर्चित हुदा मुथाना और दूसरा प्रसंग शमीमा बेगम का है। ये दोनों इस्लामिक स्टेट की दुल्हन के रूप में कुख्यात रही हैं। हुदा मुथाना अमेरिकी तो शमीमा बेगम ब्रिटेन की नागरिक थी। ये दोनों महिलाएं अपनी कम उम्र में ही अपने-अपने देश से भाग कर इराक और सीरिया चली गयी जहां पर इस्लामिक स्टेट की ओर लडी। इस्लामिक स्टेट की पराजय के बाद ये दोनों राहत शिविरों में रह रही हैं। इन दोनों महिलाएं घर वापसी चाहती हैं। इन दोनो महिलाओं की घर वापसी के लिए काॅन्सिटयूशनल लाॅ सेंटर फाॅर मुस्लिमम्स जैसे संगठन अभियानरत है। काॅन्सिटयूशनल लाॅ सेंटर फाॅर मुस्लिमम्स संगठन का कहना है कि ये दोनों लडकियां कम उम्र इस्लामिक स्टेट में शामिल हुई थी अब इन्हें शांति में विश्वास है, इसलिए इन्हें वापस आने दिया जाना चाहिए। इस प्रसंग पर अमेरिका और ब्रिटेन मे बहस भी गर्म है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने हुदा मुथाना की वापसी रोकने का आदेश दिया है, ब्रिटेन भी अपनी नागरिक रही शमीमा बेगम की वापसी देने के पक्ष में नहीं हैं। फिर भी ये दोनों प्रसंग कोर्ट में है। अगर कोर्ट इन दोनों को अपने-अपने देश में वापसी का फैसला देता है तो फिर इस्लामिक स्टेट के बचे-खुचे हिंसक सहचरों की मानसिकताएं ही प्रबल और मजबूत होंगी।

       हिंसक और खतरनाक मानिकसताएं दम तोडती है तो दम तोडने दिया जाना चाहिए। हिंसक और खतरनाक मानिकसताएं और इसके सहचर अगर जमींदोज होते हैं तो जमींदोज होने दिया जाना चाहिए। कभी अमेरिका और यूरोप ने मानवाधिकार के नाम पर आतंकवादी संगठनों के संरक्षण दिये, जिसका दुष्परिणाम कभी ओसामा बिन लादेन के रूप में तो कभी अलकायदा तो कभी इस्लामिक स्टेट की हिंसा के तौर पर दुनिया झेली है। इसलिए इस्लामिक स्टेट के हिंसक सहचरों पर कोई दया-दृष्टि आत्मघाती होगी।