जोश में होश नहीं खोने की नीति






पुलवामा हमले के बाद भारत का बच्चा-बच्चा जोश में है। हर किसी की चाहत यही है कि इस बार पाकिस्तान को हर्गिज माफ नहीं किया जाए। पूरा और कड़ा सबक सिखाया जाए ताकि भविष्य में ऐसी हिमाकत करने के बारे में वह सपने में भी ना सोच सके। यही सोच आम लोगों की भी है, सेना की भी और सरकार से लेकर समूचे विपक्ष की। हालांकि पाकिस्तान को सबक सिखाना बेशक बहुत जरूरी है और इसके लिये सरहद को लांघे बगैर जितने कदम उठाये जा सकते थे उसमें कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। लेकिन मसला है सरहद के उस पार से संचालित, नियंत्रित व पोषित हो रहे आतंकवाद का समूल विनाश करने की। निश्चित ही इस दिशा में हर संभव विकल्पों को आजमाने के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार चल रहा है जिसका नतीजा भी जल्दी ही सामने आ जाएगा। लेकिन मसला है कि आतंक के मामले में भारत अकेले पहल करके पाकिस्तान की सरहद के भीतर घुस कर कोई भी कार्रवाई करे तो यह मामला वैश्विक पहल का रूप ले लेगा। चुंकि दुनियां के तमाम देश किसी ना किसी प्रकार के आतंक को झेल रहे हैं लिहाजा बहुमत का समर्थन सरहद का उल्लंघन करके आतंक का सफाया करने की दिशा में ही है। इजरायल ने तो इसके लिये बिना शर्त पूरी मदद का वायदा भी कर दिया है और अमेरिका ने भी इशारों ही इशारों में यह जता दिया है कि अगर भारत ने ऐसी पहल की तो उसे पीछे से हर तरह की मदद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। यहां तक कि सऊदी अरब के उस युवराज सलमान ने भी आतंकवाद के खिलाफ भारत का हर कदम पर सहयोग करने का वायदा किया है जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा खैर-ख्वाह माना जाता है। लेकिन इतने से ही मामला पूरा नहीं हो रहा। यह पहली बार है जब आतंकवाद के मसले पर समूचा विश्व दो फाड़ दिख रहा है। बहुमत तो आतंक को मिटाने की सोच रखनेवालों का ही है लेकिन निजी स्वार्थ के लिये आतंक को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने को कूटनीति का हिस्सा मानने वाले भी गिनती में भले कम हो लेकिन वैश्विक व सैन्य प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। खास तौर से चीन जैसे देश ने तो सीधे ही पाकिस्तान को क्लीन चिट देते हुए पुलवामा को भारत के आंतरिक आतंकवाद का परिणाम बता दिया है। यह वही भाषा है जो इस मसले पर पाकिस्तान से सुनाई पड़ रहा है। लिहाजा भारत को जोश में आकर कोई भी कदम उठाने से पहले होश को संतुलित रखना ही होगा। यही वजह है कि भारत ने आतंकवाद के खिलाफ समान विचारधारा वाले देशों को साझा प्रयास करने के लिये मनाने की राह पकड़ी है। यह प्रयास कहीं से भी किसी कमजोरी या डर का परिणाम नहीं है बल्कि वास्तव में यह नीतिगत व कूटनीतिक परिपक्वता की निशानी है। एक मजबूत लोकतंत्र होने के नाते भारत को अपने राज्यक्षेत्र के भीतर आतंकरोध के लिए अपनी शासकीय नीतियों पर भरोसा है लेकिन सीमा पार से होते आतंकी हमलों को देखते हुए भारत पहले से ही आतंकरोध के लिए प्रभावी अंतरराष्ट्रीय सहयोग का समर्थन करता आया है। संयुक्त राष्ट्र की महासभा में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक सम्मलेन पर होने वाली चर्चा इसका प्रमाण है। प्रस्तावित सम्मलेन के समझौते में संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के लिए अपराधी को सजा देने या उसे प्रत्यर्पित करने के वैधानिक सिद्धान्तों पर मंजूरी शामिल है जिसका विरोध करने वाले देशों में पाकिस्तान सबसे ऊपर है। अमरीका पर वर्ष 2001 में हुए 9/11 के आतंकी हमलों के बाद से आतंकरोध के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सक्रिय भूमिका निभा रही है। इस सन्दर्भ में परिषद् अपने प्रस्तावों पर भरोसा करती है जो इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य राष्ट्रों पर लागू होते हैं और संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अंतर्गत आते हैं। परिषद् के पाँच स्थाई सदस्य अपनी वीटो शक्ति या विशेषाधिकार द्वारा फैसले लेते हैं। सुरक्षा परिषद् के उपायों में विस्तृत आर्थिक और व्यापारिक प्रतिबन्ध, हथियारों से जुड़े सरकारी प्रतिबंध सूची में शामिल समूहों या व्यक्तियों पर लगाये जाने वाले वित्तीय या वस्तुपरक प्रतिबंध शामिल हैं। पाकिस्तान द्वारा पोषित  लश्कर-ए-तैय्यबा द्वारा 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पर किए गए आतंकी हमलों के बाद भारत के सन्दर्भ में आतंकरोध मामले में सुरक्षा परिषद् के प्रभाव की वास्तविक परीक्षा थी। परिषद ने लश्कर-ए-तैय्यबा के सरगना हाफिज सईद और जाकिर रहमान लखवी को 10 दिसंबर 2008 को प्रतिबंध उपाय सूची में शामिल किया था। हालांकि मुंबई आतंकी हमले के दस वर्षों से भी अधिक समय बाद आज भी सूचीबद्ध इन व्यक्तियों पर सुरक्षा परिषद् द्वारा प्रतिबंध लगवाने की भारत की कोशिशें सफल नहीं हुई हैं। इस की वजह पाकिस्तान द्वारा इन प्रवर्तन उपायों को न मानना और चीन द्वारा इस सन्दर्भ में उसे दिया जाने वाला पुरजोर समर्थन है। जैश-ए-मोहम्मद का सरगना, मसूद अजहर दो अन्य आतंकियों के साथ दिसंबर 1999 में 155 भारतीय नागरिकों के बदले अफगानिस्तान में तालिबान को सौंपा गया था। पुलवामा हमले की जिम्मेदारी लेने वाले जैश-ए-मोहम्मद को अफगानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय बलों और अफगानी बलों के खिलाफ अलकायदा और तालिबान के साथ मिलकर आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने और अन्य कारणों के चलते अक्टूबर 2001 से ही सुरक्षा परिषद की ओर से प्रतिबन्ध के लिये निशाने पर रखा गया है। इसने अक्टूबर 2001 में श्रीनगर की विधानसभा और दिसंबर 2001 में नई दिल्ली की संसद सहित भारत के लोकतान्त्रिक संस्थानों पर भी आतंकी हमले किए हैं। जनवरी 2016 में पठानकोट हवाईअड्डे और सितम्बर 2016 में उरी में किए गए जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी हमलों के बाद सुरक्षा परिषद् के अधिकतर सदस्यों ने इसका समर्थन किया था कि जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को सुरक्षा परिषद् की प्रतिबंध सूची में शामिल करने का भारत का अनुरोध मान लिया जाये। लेकिन इस प्रयास को चीन के कारण अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। पुलवामा हमले का दावा करने वाले जैश-ए-मोहम्मद पर कार्यवाही करने को लेकर इस बार भी परिषद के पाँच स्थाई सदस्यों में एक राय नहीं है। अमरीका, रूस और फ्रांस ने जैश-ए-मोहम्मद की जहाँ अधिकारिक निंदा की है, वहीं चीन और ब्रिटेन इस सन्दर्भ में खामोश हैं। लिहाजा होश की जरूरत इसलिये है ताकि इन दोनों वीटो पावर वाले देशों पर भी आतंकरोधी अभियान का हिस्सा बनने के लिये समूचे विश्व का दबाव बनाया जाए ताकि इस बार आतंक के खिलाफ निर्णायक जंग को अंजाम दिया जा सके।