सही दिशा में सबरीमाला मामला






केरल स्थित भगवान अय्यप्पा के सबरीमाला मंदिर का मामला जब सियासत की खींचतान से हटकर न्यायालय की चैखट पर पहुंचा है तो एक बार फिर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाने की राह तैयार होती हुई दिखने लगी है। हालांकि पूरा इंसाफ तो अदालत ने पहले ही कर दिया था लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा के साथ खिलवाड़ करते हुए इस पर राजनीति का तांडव आरंभ हो गया। जिस सत्ताधारी दल भाजपा की यह प्राथमिक जिम्मेवारी है कि वह देश की संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा और गरिमा की रक्षा करे उसने ही आगे बढ़कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उंगली उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। खास तौर से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सार्वजनिक मंच से सीधी उंगली उठाते हुए इस पर पुनर्विचार किये जाने की मांग कर दी। यहां तक कि सबरीमाला मंदिर के संचालक ट्रेवनकोर देवास्वाम बोर्ड ने इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दी जिसके तहत सभी उम्र के महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी गई थी। बोर्ड की देखा देखी तकरीबन डेढ़ दर्जन संस्थाओं की ओर से साठ से अधिक याचिकाएं दाखिल कर दी गईं। दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिये जाने के बाद जिन दो महिलाओं ने चोरी छिपे मंदिर में जाकर भगवान अय्यप्पा के दर्शन किये थे उन्होंने भी दोबारा दर्शन की अनुमति और सुरक्षा की मांग करते हुए अदालत में याचिका दाखिल कर दी। दूसरी ओर बीते दिनों प्रयागराज में कुंभ मेला क्षेत्र में विश्व हिन्दू परिषद की अगुवाई में आयोजित हुए संत समाज के धर्म संसद ने औपचारिक तौर पर इस मामले में एक प्रस्ताव पारित करते हुए इसे राम मंदिर मसले सरीखा मामला करार दिया। प्रस्ताव में कहा गया कि जिस तरह से अयोध्या का राम मंदिर मसला हिन्दू व भारतीय समाज की संस्कृति से जुड़ा हुआ मामला है उसी प्रकार सबरीमाला का मामला भी हिन्दुओं की सनातन परंपरा से जुड़ा मसला है जिस पर कोई फैसला करने का अदालत को अख्तियार ही नहीं है। इन तमाम दबावों के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस मसले पर दाखिल पुनर्विचार याचिकाओं को स्वीकार कर लिया ताकि कल को अदालत के इंसाफ पर कोई सवाल ना उठे। अदालत ने सभी पक्षों को एक बार फिर मौका दिया अपनी बात कहने का और यह साबित करने का कि महिलाओं का प्रवेष निषेधित करना क्यों आवश्यक है। हालांकि इस मामले को लेकर जमीनी स्तर पर तमाम राजनीतियां हुईं जिसमें केरल की वामपंथी सरकार को स्वाभाविक तौर पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक आचरण करना था लेकिन उसके द्वारा ऐसा किये जाने के नतीजे में तमाम कथित अय्यप्पा भक्तों और हिन्दूवादी संगठनों व संस्थाओं ने आसमान सिर पर उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि जिन दो महिलाओं ने चोरी छिपे मंदिर में दर्शन किये उन पर भी हमले हुए और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को सीधे तौर ठेंगा दिखाते हुए ना सिर्फ मंदिर के शुद्धिकरण का दिखावा किया गया बल्कि यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई कि भविष्य में गर्भधारण कर सकने में सक्षम महिला हर्गिज मंदिर में प्रवेश ना कर सके। लेकिन मामला जब अदालत में दोबारा खुला तो किसी के पास ना तो महिलाओं के साथ भेदभाव करनेवाली परंपरा के पक्ष में कोई धार्मिक आधार उपलब्ध था और संवैधानिक। महिलाओं के प्रवेश की इजाजत का विरोध करने में अग्रणी भूमिका निभानेवाले मंदिर प्रशासन को साफ शब्दों में अदालत में स्वीकार करना पड़ा कि अदालत का फैसला पूरी तरह सही है और सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत मिलनी ही चाहिये। यहां तक कि बोर्ड के वकील ने तो एक कदम आगे बढ़ कर यह भी स्वीकार किया कि दस से पचास के आयुवर्ग की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने का सीधा मतलब है संविधान के अनुच्छेद 25-1 का सीधे तौर पर उल्लंघन करना जो कि मानव मात्र को अपने मनचाहे धर्म को मानने और मनचाहे इष्ट की अराधना करने की पूरी स्वतंत्रता देता है। हालांकि बोर्ड के रूख में आए इस बदलाव ने अदालत को भी चकित किया लेकिन निश्चित ही बोर्ड का मौजूदा रूख स्वागत योग्य है। कहते हैं कि जब जागो तभी सवेरा। किसी परंपरा के पीछे कोई सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, धार्मिक या संवैधानिक आधार मौजूद हो तो उसका अनुपालन अवश्य होना चाहिये। लेकिन मनगढ़ंत किस्से कहानियों के आधार पर ऐसी परंपरा को जारी रखने की इजाजत कोई भी सभ्य समाज हर्गिज नहीं दे सकता जो लिंग, उम्र या जाति के आधार पर भेदभाव करता हो। वैसे भी सनातन धर्म में किसी भी स्तर पर किसी भेदभाव के लिये कोई जगह हो ही नहीं सकती। खास तौर से जिन परंपराओं को आधार मानकर उनका अनुपालन किया जाता रहा है वे किसी खास कालक्रम में बेशक अमल में आयी हों लेकिन वह वक्त बीत जाने और उसके पीछे के कारण के भी लोप हो जाने के बाद उसकी पूंछ पकड़े रहने को कैसे सही कहा जा सकता है। बेशक एक वक्त था जब जौहर और सती प्रथा की आवश्यकता समाज को थी लेकिन उस दौर के गुजरने के बाद जब उसका कोई मतलब नहीं रह गया तो समाज ने आगे बढ़कर उसका प्रतिकार किया और उससे अपना पिंड छुड़ाया। इसी प्रकार एक वक्त था जब समुद्र पार करके विदेश जाने वालों को जाति व्यवस्था से बाहर मान लिया जाता था लेकिन आज के दौर में उस परंपरा के बारे में जान व सुनकर सिर्फ हंसी ही आ सकती है। ठीक वैसी ही बेमानी व आधारहीन परंपरा है ब्रह्मचर्य के नाम पर मनगढ़ंत बातें बनाना उसके लिये एक ऐसे देवता का सृजन कर लेना जिसे महिलाएं छू भी ना सकें। निश्चित ही ऐसी परंपराएं ना सिर्फ महिला विरोधी बल्कि ओछी व संकुचित मानसिकता की परिचायक हैं जिसमें बदलाव होना ही चाहिये। वैसे भी सबरीमाला मंदिर के संचालक बोर्ड द्वारा अदालत के पूर्व फैसले से सहमति जता दिये जाने और उसके पक्ष में ही अपनी बात रखे जाने के बाद अब इस मामले में दाखिल बाकी याचिकाएं काफी हद तक महत्वहीन हो गई हैं। लिहाजा अब सबको इंतजार है सर्वोच्च न्यायालय के भावी निर्णय का जो उसने फिलहाल सुरक्षित रख लिया है।  उम्मीद की जानी चाहिये कि अब 12 फरवरी से शुरु होनेवाली कुंभम् उत्सव के मौके पर सैकड़ों-हजारों महिलाएं मंदिर प्रवेश करेंगी। निश्चित ही उसके लिये केरल सरकार को सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करना होगा और यह आशा भी की जानी चाहिये कि तब तक हमारे हिंदुत्ववादी संगठन और राजनीतिक दल अपने दुराग्रह व विघटनकारी फितरत से मुक्त हो जाएंगे।