ऐसा इसलिए कि धनबल और बाहुबल बहुत कम लोगों के पास है, जिससे हमारा लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। समाज में बहुत से लोग हैं जिनके पास न धन है, न बाहुबल है, जिससे एक धनी अथवा बाहुबली व्यक्ति के चुनाव जीतने की संभावना अधिक बलवती हो जाती है।
लिहाजा, राजनीतिक दल भी किसी भी तरह से चुनाव जीतने और सत्ता हथियाने की गरज से ऐसे लोगों को टिकट देकर आगे बढ़ाते हैं, जिससे पूरी व्यवस्था ही सवालों के घेरे में खड़ी है। सच कहा जाए तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिस आजाद भारत के ग्राम स्वराज और सत्य-अहिंसा उतप्रेरित भारतीय का सपना संजोए हुए थे, वह आज तार-तार प्रतीत हो रहा है।
इस परिप्रेक्ष्य में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिरकार भारतीय लोकतंत्र में सही चुनाव और फ्रीडम ऑफ फियर कैसे स्थापित किया जा सकता है? इस दिशा में किसी न किसी को तो सोचना ही होगा। लेकिन समाज के बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी अधिक बनती है। यह कौन नहीं जानता कि बढ़ते अपराध, अपराधियों के उद्योगपतियों से सांठगांठ, मीडिया के पूर्वाग्रह से सारा समाज दिग्भ्रमित हो चुका है। कुल मिलाकर धनबल और बाहुबल से लोकतंत्र को, लोकतांत्रिक संस्थाओं को संचालित करने की अथक कोशिशें जारी हैं, जिससे न केवल सभ्य समाज, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को खतरा है, क्योंकि संगठित अपराध और सत्ता संरक्षित अपराधिक प्रवृति उनकी जड़ में है।
गत दिनों इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में गांधी की 150वीं जयंती वर्ष पर आयोजित एक सामूहिक परिचर्चा के क्रम में उठे कतिपय सवालों पर अपनी बात रखते हुए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री चावला कहा था कि चुनावी भ्रष्टाचार एक गम्भीर समस्या है। आलम यह है कि संसदीय, असेम्बली और स्थानीय निकायों के अलावा अब छात्र संघ के चुनावों और अन्य संस्थागत चुनाव भी धनबल, बाहुबल और संगठित अपराध से प्रभावित हो रहे हैं, जो राष्ट्रीय चिंता का विषय है।
बड़ी चतुराई पूर्वक उन्होंने सीएमएस नामक एक एजेंन्सी की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि मतदाता अब नेताओं से वोट के बदले नगद अथवा कतिपय सामान की अपेक्षा रखते हैं। कर्नाटक के 45 प्रतिशत लोग और दिल्ली के 25 प्रतिशत लोग इसी मानसिकता के हैं। इसलिए सवाल यह है कि आखिरकार कानूनन इसे कैसे रोका जा सकता है। क्या सोशल कंट्रोल, सेल्फ कंट्रोल या फिर ज्यूडिशियल कंट्रोल से इसे काबू में किया जा सकता है? यदि नहीं तो फिर उपाय क्या है, इसे सोचे बिना गांधी के सपनों के भारत की परिकल्पना किसी दिवा स्वप्न जैसी है।
देखा जाए तो समूचा ऑडियंस उस वक्त हतप्रभ रह गया जब उन्होंने दो टूक कहा कि इन स्थितियों और परिस्थितियों से उपजे सवालों का मेरे पास कोई आसान उत्तर नहीं है। लेकिन एक उत्तर है, जो मेरी फीलिंग्स है और देश वासियों की आम समस्या से जुड़ी है। वह यह कि यदि कोई व्यक्ति जनहित से जुड़े सवालों को भी सिस्टम के समक्ष उठाने की चेष्टा करता है और बात न्यायालय तक पहुंचती है, तो सबसे बड़ी दिक्कत जो आमलोग महसूस करते हैं, वह यह कि कोर्ट में वकील बड़े महंगे हैं, न्याय दीर्घसूत्री है, और क्रिमिनल जस्टिस की अवधारणा को जाने अनजाने में 'आत्मसात' करके यह लोकतंत्र विकृत होते जा रहा है।
असलियत है कि राजनीतिक दल भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि दागी लोगों को टिकट मिलने और उनके जीत जाने से पूरी व्यवस्था ही सवालों के घेरे में खड़ी है। इस स्थिति को काबू में करने के लिए कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे राजनीतिक दलों को ही आगे आने होगा। राष्ट्रहित में कोई निर्णायक पहल करनी होगी। चावला के शब्दों में कहूं तो, "भले ही संसदीय चुनावों की खर्च सीमा 70 लाख हो, लेकिन कुछ लोग 50 से 70 करोड़ रुपये खर्च करके भी व्यवस्था की पकड़ में नहीं आते, यह गम्भीर बात है। यदि इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना है तो स्टेट फंडिंग या फिर किसी अन्य प्रारूप पर देश को संवेदनशीलता पूर्वक विचार करना होगा।"
सीधा सवाल है कि जब महात्मा गांधी शक्ति के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे, तो आज तक यह क्यों नहीं किया गया। क्योंकि आज भी अधिकांश शक्ति दिल्ली में निहित है, जिसकी समृद्धि आज भी गांवों को मुंह चिढ़ाती प्रतीत होती है। यह ठीक है कि सबके वोट की कीमत समान है, लेकिन अन्य नीतिगत विसंगतियां प्रभावित पक्ष को उकसाती हैं। देश में बढ़ते आतंकवाद, उग्रवाद और संगठित अपराध की जड़ में कुछ ऐसी ही भावना निहित है, जिसे हतोत्साहित करने की जरूरत है। यह ठीक है कि मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में चावला ने वोट डालने से तबतक वंचित रखे गए दलितों व कमजोर वर्ग के लोगों के लिए हजारों सहायक बूथ उनके टोले के समीप डोर स्टेप पर बनवाकर उन्हें चुनाव की मुख्य धारा में ले आये, जिसे एक उल्लेखनीय चुनाव सुधार समझा जाता है। क्योंकि इससे प्रभुत्वशाली वर्ग का वोटिंग वर्चस्व टूटा है। लेकिन सवाल फिर वही कि अन्य चुनावी सुधारों की गति धीमी क्यों है, किसके हित साधन के लिए आयोग लेटलतीफ दिख रहा है, या फिर वह नख-दंत विहीन सिंह अथवा विषदंत हीन सर्प की तरह है तो फुंफकार तो सकता है, लेकिन उससे डरना सियासत दानों की फितरत नहीं, जिससे कतिपय व्यवस्थागत विकृतियों को प्रश्रय मिलता है।