(श्रद्धांजलि-स्वः राधापद दत्त)
स्वः राधापद दत्त से मेरा परिचय सन 1998 ई. में हुआ था। पहली ही मुलाकात में उनके आकर्षक व्यक्तित्व ने मुझे काफी प्रभावित किया। बाद में उनसे बातों ही बातों में पता चला कि वह मेरे परदादा के अंतरंग थे और उन्हें रामगहन भईया कहकर पुकारते थे और उनका और हमारा पारिवारिक रिश्ता काफी पुराना हैं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद की पीढ़ी में अपने देश और समाज के लिए कुछ करने की गहरी मनोकांक्षा थी। उनके पिताजी के घर शाम के समय गाँव के कुछ लोगों के साथ वे और मेरे परदादा अक्सर बैठ कर गाँव की समस्याओं पर विचार करते थे। स्वः राधापद दत्त के पिताजी गाँव के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तथा उनके खुशहाल भविष्य के बारे में गम्भीरता से शोचते थे और इसीलिए उन बैठकों में गाँव में एक विद्यालय खोले जाने पर विशेष जोर रहता था। स्वः राधापद दत्त जी के यहाँ मैं जब भी जाता वह मुझे अपनी किताबों के भण्डार से कोई न कोई किताब निकाल कर थमा देते, जिसमें स्वामी विवेकानन्द की जीबनी, स्वामी जी व उनकी वाणी, स्वामी स्वरूपानन्द की लिखी कुछ किताबे तथा महापुरूषों की जीवनियाँ आदि शामिल थीं।
स्वः राधापद दत्त जी असम सरकार के कर्मसंस्थापन विभाग में कार्यरत थे। इस दौरान लोगों को इसकी अच्छी जानकारी और फायदा दिलाने पर उनका हमेशा ध्यान रहता था। वे इसके लिए लोगों को साक्षात्कार की तैयारी करने का गुढ़ सिखाते। इसके साथ ही कर्मसंस्थापन संबंधी किसी भी कार्य को लेकर जो कोई भी मिलता था उसको वे दिलखोलकर सहायता प्रदान करते थे। न जाने कितने लोगों को एक अच्छी नौकरी पाने में और सफल जीवन का अवसर दिलाने में उन्होंने मदद की। यही नहीं, जनजाती लोगों के प्रति उनके मन में आपार प्रेम था। कर्मसंस्थापन विभाग में कार्य करते हुए बीच-बीच में दूरदराज की जनजातियों के गाँवों में वे जाते और कर्मसंस्थान विभाग के कार्य के बारे मेंलोगों को जागरूक करते थे। उन्हें आत्मनिर्भर बनाने और विकास की प्रक्रिया से जोड़ने में उनकी गहरी भूमिका थी। जनजाति बंधुओं के लिए उनके मन में अपार प्रेम का पता मुझे इस बात से लगा कि कभी बातों-बातों में उन्होंने यह चर्चा की थी कि हाफलांग में एक केन्द्रीय विद्यालय खुलवाने के लिए उन्हें काफी भाग-दौड़ करनी पड़ी। इसका उन्हें सुफल भी मिला और विद्यालय आज पूरी सफलता से चल रही हैं। उनका मानना था कि जनजातियों के बच्चों की उन्नति के लिए अच्छी शिक्षा वहुत चरूरी हैं। कर्मसंस्थापन विभाग में अपने कार्यभार से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात वे बनबासी कल्याण आश्रम से जुड़े तथा दूरदराज के गाँवों में रहनेवाली जनजातियों की खुशहाली व उन्नती के लिए खुद को समर्पित कर दिया। वे जब भी किसी बच्चों से मिलते उसकी शिक्षा दिक्षा के संदर्भ में जरूर बात करते और उनसे जितना हो पाता मदत करते। समाजिक कार्यों में हमेशा अपना सहयोग देने के लिए उनकी तत्परता प्रेरणा दायक है और उनका आदर्श व्यक्तित्व उन्हें जानने वाले हर मनुष्य के लिए कमनीय हैं।