प्रस्ताव के मसौदे में पुलवामा आत्मघाती हमले की आलोचना की गई है और अजहर को अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों की प्रतिबंधित सूची में डालने की मांग की गई है। हालांकि अभी यह साफ नहीं है कि ड्रॉफ्ट रिजॉलूशन पर वोटिंग कब होगी, लेकिन पिछली बार की तरह चीन इस बार भी इसके खिलाफ वीटो का इस्तेमाल कर सकता है। इस बात का संकेत चीनी विदेश मंत्रालय के उस बयान से मिला है जिसमें मसूद के मसले पर अमेरिका के प्रस्ताव को लेकर काफी तीखी प्रतिक्रिया देते हुए चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने कहा है कि वॉशिंगटन द्वारा उठाए गए इस कदम से चीजें और उलझ सकती हैं क्योंकि यह बातचीत से प्रस्ताव के समाधान की बात नहीं है और इससे संयुक्त राष्ट्र की आतंकवाद विरोधी कमिटी के अधिकारों का हनन होगा। चीन के मुताबिक अमेरिका द्वारा पेश किया गया प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की एकजुटता के अनुकूल नहीं है बल्कि इससे चीजें और उलझेंगी। चीन की ओर से आए इस बयान को गहराई से समझा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि चीन ने एक बार फिर मसूद अजहर का बचाव करने में पाकिस्तान की मदद करने का पक्का इरादा कर लिया है। वैसे भी चीन को इसके लिये एक आधार उपलब्ध हो गया है क्योंकि पुलवामा आतंकी हमले को लेकर भारत द्वारा उपलब्ध कराए सबूतों की जांच का दिखावा करने के बाद पाकिस्तान ने ना सिर्फ सबूतों को अपर्याप्त बताया है बल्कि अपनी ओर से यह भी कह दिया है कि अब तक की जांच में इस बात का कोई प्रमाण सामने नहीं आया है जिससे मामले में जैश या किसी अन्य पाकिस्तानी संगठन का हाथ होने की तस्दीक हो सके। यानि पाक की जांच रिपोर्ट को स्वीकार करने का दिखावा करके चीन के लिये एक बार फिर मसूद के मसले पर वीटो पावर लगाने का आधार उपलब्ध हो गया है। इससे पहले भी मसूद अजहर को ब्लैकलिस्ट करने के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंध समिति में चार बार प्रयास हो चुके हैं। दरअसल चीन के समीक्षकों का मानना है कि भारत और चीन को इस मुद्दे को सुलझाने के लिए गहन वार्ता आरम्भ करनी चाहिए। भारत के द्वारा पक्के प्रमाण उपलब्ध करवाने के बावजूद चीन और प्रमाण मांग रहा है जिससे ये पता चलता है कि इस मुद्दे पर फिर से मतदान करने से पहले चीन बहुत दुविधा में है। दरअसल चीन चाहता है कि पाकिस्तान आतंकवाद प्रायोजित करने वाला देश न कहलाया जाए। वर्ना ऐसा होने पर उसके निजी आर्थिक हित प्रभावित होंगे। इसी वजह से वह मसूद का ही नहीं बल्कि हाफिज सईद सरीखे पाक में मौजूद तमाम आतंकी सरगनाओं का बचाव करने के लिये विवश हो रहा है। लेकिन वह भारत से भी अपने रिश्ते बिगाड़ना नहीं चाहता। तभी तो बीते दिनों भारत में चीन के राजदूत लुओ शाओ हुये ने कहा था कि मसूद अजहर का मामला सुलझ जाएगा।
उन्होंने आशा जताई कि नई दिल्ली और पेइचिंग के बीच आगे होने वाली वार्ता से मुद्दा सुलझाया जा सकेगा। हालांकि इस में कोई संदेह नहीं है कि मसूद के मसले पर चीन की प्रतिक्रिया की निंदा की जा रही है और पाकिस्तान से इसकी दोस्ती सवालों के घेरे में है। इतना ही नहीं, दुनिया के सभी देश ये भी देख रहे हैं कि चीन अपने निकट सहयोगी का किस हद तक बचाव करने का इच्छुक है। सच्चाई ये है कि चीन अपनी सामरिक साझेदारी और पाकिस्तान में किए गए बहुत अधिक निवेश को बचाने के लिए पाक का सहयोग करता है। लेकिन अब चीन को यह तय करना होगा कि वह आतंक के मसले पर भारत के साथ है या नहीं। भारत के साथ अब समूचा विश्व एकजुट है और इसी का प्रमाण है कि पहले फ्रांस ने प्रस्ताव दिया और अब अमेरिका ने मसूद पर प्रतिबंध के लिये प्रस्ताव पेश किया है। हालांकि अभी यह साफ नहीं है कि ड्रॉफ्ट रिजॉलूशन पर वोटिंग कब होगी, लेकिन यह अंदाजा तो लग ही रहा है कि पिछली बार की तरह चीन इस बार भी इसके खिलाफ वीटो का इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन अब अगर चीन ने अपने रूख में बदलाव करने की पहल नहीं की तो यह उसके लिये काफी महंगा सौदा साबित हो सकता है क्योंकि समूचे विश्व में आतंकवाद को लेकर अब उसके अलग-थलग पड़ने की संभावना काफी प्रबल दिख रही है। विश्व के कई देश यह मांग कर चुके हैं कि सुरक्षा परिषद के मौजूदा स्वरूप में बदलाव किया जाए और भारत को भी इसमें जगह दी जाए। निश्चित ही चीन का मौजूदा अड़ियल रूख इस मांग को मजबूत ही करेगा। दूसरी ओर अमेरिका पहले ही बता चुका है कि अगर चीन ने अपने रूख में बदलाव नहीं किया तो उसके अधिकारों को लेकर अलग से भी विचार हो सकता है। ऐसे में अगर मसूद का मसला कल को चीन के गले की फांस बन जाए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। लिहाजा आग से खेलने की नीति में बदलाव करके आतंक के खिलाफ वैश्विक एकजुटता में सहयोग करने के आलावा अब चीन के पास दूसरा कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। अगर वह आग को बुझाने के लिये आगे नहीं आया तो उसके दामन पर भी इस आग की चिंगारियां गहरा प्रभाव छोड़ सकती हैं और उस दाग को बर्दाश्त करना शायद चीन के लिये बेहद दुखदाई होगा।