जंग में जोरदार टकराव का अभाव






लोकसभा चुनाव के लिये सभी सेनाएं आपस में भिड़ चुकी हैं और पहले चरण का युद्ध अब निर्णायक दौर की ओर भी बढ़ चला है। तकरीबन पूरी तस्वीर अब साफ हो चुकी है और जमीनी मुकाबले शुरू हो गए हैं। कायदे से तो पहले चरण के जंग में ही सबसे जोरदार टकराव होना चाहिये था जिससे आगे की तस्वीर भी साफ होती और सभी सेनाओं का दमखम भी दिख जाता। लेकिन अफसोसनाक तथ्य यह है कि लोकतंत्र के इस महामुकाबले में जैसी जोरदार होने की अपेक्षा रहती है उसका कहीं नामो-निशान ही नहीं दिख रहा है। टकराव ऐसा हो रहा है मानों जमीनी युद्ध नहीं बल्कि रंगमंच पर जंग का अभिनय किया जा रहा हो। जमीनी जंग में एक दूसरे पर आमने सामने का प्रहार करके विरोधी को लहुलुहान करके परास्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है जबकि रंगमंच पर होने वाले युद्ध के अभिनय में अलग-अलग योद्धा अलग-अलग ही तलवार भांजते रहते हैं और उनका सीधा टकराव कभी जानलेवा रूप नहीं ले पाता है। ऐसा ही युद्ध इस बार लोकसभा के चुनाव में भी दिख रहा है। कहने को तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुकाबले के लिये कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मैदान में उतरे हुए हैं लेकिन इन दोनों के बीच कोई संघर्ष का माहौल बन ही रहा है। राहुल अगल सुर में मोर्चा संभाले हुए हैं जबकि मोदी अलग ही राग में आलाप ले रहे हैं। इन दोनों के बीच कोई ताल-मात्रा का टकराव ही नहीं दिख रहा है। राहुल की कोशिश है कि लंबी-चैड़ी घोषणाएं करके जनता-जनार्दन को सम्मोहित किया जाए जबकि मोदी का प्रयास है कि अपने काम-काज का हिसाब देकर लोगों को इस बात से सहमत किया जाए कि ‘काम करे जो, उम्मीद उसी से हो।’ राहुल ने अब तक जो घोषणाएं की हैं उनमें मुख्य रूप से न्यूनतम आय गारंटी योजना, महिला सशक्तिकरण का प्रयास, गरीबी के खिलाफ निर्णायक युद्ध, रोजगार के अवसर सृजित करने के उपाय और स्वरोजगार को अधिकतम बढ़ावा देने का प्रयास शामिल है। दूसरी ओर मोदी की अगुवाई में भाजपा की ओर से जो जनसभाएं की जा रही हैं उसमें कहीं भी इस बात पर जोर नहीं दिया जा रहा है कि भविष्य में वे अभी से बेहतर क्या करनेवाले हैं बल्कि लोगों को यही बताने का प्रयास किया जा रहा है कि मोदी सरकार अब तक क्या कर चुकी है। चाहे विकास की योजनाओं की बात हो या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये उठाए गए कदमों की अथवा देश को वैश्विक आंकड़ों व विश्वमंच पर आगे बढ़ाने की। हर बात वहीं से शुरू की जा रही है कि क्या हो चुका है। यानि समग्रता में देखें तो ना विपक्ष की ओर से सरकार की किसी ऐसी नाकामी को सत्यापित करने की कोशिश हो रही है जिससे आम लोगों में मोदी सरकार से निजात पाने की भावना जागृत हो और ना ही भाजपा की ओर से ऐसी कोई बात कही जा रही है जिससे विपक्ष के साथ मोदी सरकार की तुलना की जा सके। दोनों पक्ष अलग सुर में अलग राग आलाप रहे हैं जिनके बीच तुलना करके बेहतर का चयन करने की नौबत ही नहीं बन पा रही है। सच पूछा जाए तो विपक्ष इस बार जिस कदर बिखरा हुआ, भ्रमित और भटका हुआ दिखाई पड़ रहा है उसकी कतई कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। ना तो विपक्षी दलों के बीच मुद्दों पर कोई एकमतता दिख रही है और ना ही विचारों में एकरूपता। राष्ट्रीय स्तर पर एक मंच पर आकर भाजपा को टक्कर देने की कोशिशें तो पहले ही दम तोड़ चुकी हैं अब प्रादेशिक स्तर पर भाजपा के खिलाफ घेराबंदी तैयार करने की कोशिशों में भी कतई दम नहीं दिखाई पड़ रहा है। बल्कि विपक्ष की पूरी कोशिश अब सिर्फ इस बात पर केन्द्रित होती दिख रही है कि किसी भी प्रकार से उस परंपरागत भाजपा विरोधी वोट को अपनी झोली में डाल लिया जाए जो किसी भी सूरत में भाजपा के पक्ष में मतदान करने के बारे में सोच भी नहीं सकता है। इसमें अजीब बात यह है कि अगर इस भाजपा विराधी वोटबैंक को भी किसी तरह एक विकल्प देने का प्रयास किया जाता तो निश्चित ही उससे भी उम्मीद बंध सकती थी लेकिन हालत यह है कि सूबाई स्तर पर भी इस प्रकार का समीकरण बन गया है जिसमें वह मतदाता भ्रमित अवस्था में ही है जिसे भाजपा को हरा सकनेवाले विकल्प की शिद्दत से तलाश है। वैसे भी हर चुनाव का सिद्धांतिक पहलू यही रहता है कि आम तौर पर मतदाताओं के तीन वर्ग होते हैं। एक वर्ग वह होता है जो अपने पसंद के दल का हद से अधिक समर्थन करते हुए आखें मूंद कर उसके पक्ष में मतदान करता है जबकि एक वर्ग ऐसा होता है जो हद से अधिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने के कारण खास दल के खिलाफ मतदान करने के अलावा किसी अन्य विकल्प पर विचार करने की जहमत भी नहीं उठाता है। इन दोनों के अलावा मतदाताओं का एक तीसरा वर्ग भी होता है जो ना तो अंधभक्त होता है और ना ही किसी का अंधविरोधी। इसे ही फ्लोटिंग वोट कहा जाता है जो आम तौर पर किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाता है। चुंकि निर्णायक भूमिका निभानेवाले इस वर्ग को रिझाना ही सबसे बड़ी चुनौती होती है लिहाजा इसी वर्ग का समर्थन पाने के लिये तमाम दल यह साबित करने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं कि वे क्यों सबसे बेहतर हैं और उनका विरोधी कैसे उनसे कमतर है। कायदे से देखा जाए तो इस निर्णायक मतदताओं के वर्ग के पास अभी तक कोई ऐसा सवाल ही पैदा नहीं किया जा सका है ताकि वे मौजूदा सरकार को बदलने के विषय में सोचने की जहमत उठाएं। उनके समक्ष बेहतर विकल्प के तौर पर खुद को प्रस्तुत करने की गंभीर कोशिश किसी भी विपक्षी दल की ओर से नहीं की जा रही है। ना तो नेतृत्व के स्तर पर कोई विकल्प पेश किया जा सका है और ना ही विचारधारा अथवा भविष्य के विजन के स्तर पर। हालांकि अभी भविष्य के लिये औपचारिक विजन यानि घोषणापत्र का प्रस्तुतिकरण किसी ओर से नहीं हुआ है लिहाजा अंतिम उम्मीद अब उससे ही है ताकि लोकसभा की जो जंग आरंभ हुई है उसमें जोरदार टकराव तो हो।