परंपरा को सहेजता एक आयोजन, विरासत और शुद्धता से जोड़ने का अनूठा प्रयास


              (डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा)


राजस्थान की राजधानी जयपुर की आमेर की खूबसूरत वादियों के किनारे जल महल के सामने बने राजस्थान हाट का नजारा 14 से 17 मार्च तक अद्भूत और अनूठा इस मायने मेें था कि स्वाद, चहक, खुषबू और महक से सराबोर प्रदेष के कोने-कोने के व्यंजनों, मसालों, पात्रों का इस तरह का मेला संभवतः समूचे देष में पहली बार आयोजित किया गया था। हाट पर ही कुलचे-कड़ाई चल रहे थे तो मसालों की पिसाई, चाक पर मिट्टी के पात्रों को आकार देते कलाकार, घाणी से तेल की पिराई और इसके साथ ही राजस्थानी लोकानुरंजन के आयोजन। व्यंजन प्रतियोगिताएं तो कुकरी टिप्स और शैफ की क्लास के साथ ही पपेट शो, लोकनृत्यों का आयोजन। कहीं कच्ची घोड़ी का नृत्य तो कहीं विगुल वादन, कहीं परंपरागत कार के साथ सेल्फी तो कहीं हेरिटेज राजस्थान हाट के किसी हेरिटेज कोने को यादगार बनाती सेल्फी। मेले में ही व्यंजनोें और मसालांे के उद्भव से लेकर आज तक की विकास यात्रा की जानकारी। मजे की बात यह कि आयोजन भी राज्य सरकार के उद्योग विभाग द्वारा नवाचार के रुप में किया गया। बेहद रिस्की यह आयोजन खाद्य व्यापार से जुड़े संघों और इलेक्ट्रोनिक  व प्रिंट मीडिया के सहयोग और सहभागिता से जयपुरवासियों के लिए यादगार बन गया। आए दिन मिलावट की खबरों और फास्ट फूड के अत्यधिक उपयोग से स्वास्थ्य पर पड़ रहे विपरीत प्रभाव के बीच लोगों को प्रदेष के अंचल विषेष के परंपरागत व्यंजनों और कांजी बड़े- दही बड़े, मिर्च बड़े, परंपरागत कचोड़ी, कचोड़ा और ना जाने कितने ही परंपरागत व्यंजनों और चाट के चटकारें लेते जयपुरवासियों को देखा गया। ऐसा लग रहा था जैसे समूचा राजस्थान अपनी परंपरा को सहेजे और समेटे राजधानी के राजस्थान हाट पर सिमट गया हो। एक और जैसलमेर के घोटुआं लड़डू तो दूसरी और फलोदी के गाल के, जयपुर के भगत के लड्डू, तो जैसलमेर की ही चमचम, दौसा के डोयटा, गंगापुर के खीरमोहन, अलवर के केक, बीकानेर के रसगुल्ले व केसरवाटी, जयपुर की प्रसिद्ध रबडी और और तो और आलू प्याज की सब्जी व बेजड़ की रोटी तक लोगों की पसंद बन रही थी। चैखी ढ़ाणी के व्यंजनों के साथ ही परंपरागत चूरमा बाटी दाल जोबनेर का कलांकद, गंगानगर का पंजाबी ढ़ाबा और भी बहुत कुछ यह तो बानगी मात्र है। दौसा के डोयटे और गंगापुर के खीर मोहन की खरीद के लिए लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। डोयटा के तैयार होने में समय लगने के बावजूद लोग प्रतीक्षारत देखे गए।


मसालों की मिलावट और फास्टफूड से परेशान नागरिकों के लिए राजस्थान के उद्योग विभाग की पहल इस तरह में से विषेष मायने रखती हैं कि मसालें हमारे दैनिक उपयोग की वस्तु होने के बावजूद मसालोें में ही सबसे अधिक मिलावट के मामलें सामने आते हैं। इसके साथ ही परंपरागत व्यंजनों को भुलाकर आज हम रेडी टू इट या यों कहें कि फास्ट फूड की और बढ़ते जा रहे हैं। स्वास्थ्य के सारे गुणों को समेटे हमारे परंपरागत खान-पान की व्यवस्था पूरी तरह से तहस नहस होती जा रही हैं वहीं हमारी ही चीजों को नाम व पैकिंग बदल कर अब कई गुणा दामों में हमें परोसा जा रहा है और हम मजे से अपनाते जा रहे हैं। ऐसे में इस तरह का आयोजन अपनी उपादेयता रखता है। खाने -पीने की सामग्री में सबसे अधिक मिलावट को देखते हुए जनस्वास्थ्य के प्रति सजग और संवेदनशीलता का परिचय देते हुए उद्योग आयुक्त कृष्णाकांत पाठक ने यह अभिनव पहल की और नाम दिया रसोई 2019ःस्वाद राजस्थान का। खास बात यह कि इसे व्यंजनोें और मसालों का प्रदर्षन या बिक्री ही एकमात्र उद्देष्य ना होकर रसोई के काम आने वाले एक एक मसाले के उद्भव उसकी विषेषता, स्वास्थ्यवर्द्धकता और उपयोग की भी पूरी जानकारी। खाद्य तेलों की जानकारी के साथ ही पीली सरसों के तेल की गुणवत्ता और आज उपयोग में आ रहे बहुत से तेलों से स्वास्थ्य पर पड़ते दुष्प्रभाव की जानकारी। जलेबी कहां से आई तो 200 साल पुराने डोयटे या 2 हजार साल पुराने व्यंजन या नवाचार में गुलाब जामुन से बनते समोसे यों कहंे कि पुरातन और अध्यानुतन का अद्भुत संगम। यही कारण रहा कि जयपुरवासियांे ने रसोई 2019 को हाथोंहाथ लिया।
समूचे विश्व में भारत की गणना सबसे बड़े मसाला उत्पादक, निर्यातक और उपभोक्ता के रूप में की जाती है। देश में उत्पादित करीब साठ किस्म के मसालों में से 17 प्रमुख बीज मसालों का मुख्य उत्पादक प्रदेश राजस्थान है। जीरा, धनिया, मैथी, सौंफ, अजवाईन, मिर्च आदि के उत्पादन एवं गुणवत्ता के लिए मरू प्रदेश की जलवायु सबसे उपयुक्त मानी जाती है । देश में कुल उत्पादित मैथी का लगभग 80 फीसदी उत्पादन राजस्थान में होता है। नागौर, जोधपुर, जालौर और पाली इलाके में जीरे का उत्पादन प्रमुखता से होता है। कोटा- झालावाड का धनिया विश्व प्रसिद्ध है । मथानिया, खंडार आदि की मिर्च की पूरे देश में अलग पहचान है। राजस्थान समूचे देश में मसाला बीज के उत्पादन में अग्रणी प्रदेश होने के बावजूद निकटतम प्रदेशों की मंडियों में यह मसाले ग्रेडिंग, पैकिंग आदि के लिए जाते है। अन्य प्रदेशों की मंडियांे की मसालों की मंडियों के रुप में विकसित और पहचान बन गई है।


रसोई 2019 के आयोजन से दो बातें साफ हो जाती है। एक तो यह कि परंपरागत व्यंजनों का आज भी विषिष्ठ महत्व है और उन्हें सहेजने और संरक्षित करने की आवष्यकता है। मसालों की हमारी विस्तृत परंपरा को बनाए रखने और उसे आगे बढ़ाने की आवष्यकता। कहा जाता है कि जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन मात्र कहावत नहीं है, रसोई में ही हमारे स्वास्थ्य का राज छिपा है। दौड़ भाग की जिंदगी में भी दो मिनट से लेकर कई घंटों में तैयार होने की हमारी विषाल परंपरा रही हैं। दो घंटे से लेकर कई माह तक सुरक्षित रहने वाले आहार हमारी परंपरा में रहे हैं आज इनके खोते अस्तित्व को बचाए रखने की आवष्यकता है। हलवाई को हम कारीगर तो मानने को तैयार है पर इसे उद्योग का आकार भी नहीं दे पाएं हैं। आज भी हम नहीं जानते कि गुलाबजामुन का हमषक्ल होने के बावजूद छेने की यह गंगापुर की मिठाई खीर मोहन कैसे हो गई। नमक या आटे की भी सब्जी कल्पनीय है। आखिर इस विरासत को आगे लाने की पहल करनी ही होगी। उद्योग विभाग की इस पहल की निरंतरता बनानी होगी वहीं समूचे देष के व्यंजनों को एक ही जगह लाने के प्रयास भी करने होंगे ताकि समूचे देष की सांस्कृतिक विरासत से रुबरु हो सके।