सत्य का सबूत मांगने का मकसद






भारतीय वायुसेना को पाकिस्तान में घुसकर पुलवामा का हिसाब किताब  बालाकोट में चुकता करने के बाद अगर यह बताने के लिये विवश होना पड़ा है कि लाशें गिनना उसका काम नहीं है तो निश्चित ही यह बेहद गंभीर बात है। आज सियासत में बढ़त हासिल करने के लिये जिस तरह से सेना को घसीटने की कोशिश की जा रही है वह बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है। बेशक यह कोशिश हर तरफ से हो रही है। सत्तापक्ष की ओर से भी और विपक्ष की ओर से भी। लेकिन दोनों ही सूरतों में सियासत का मोहरा बनने के लिये विवश तो सेना को ही किया जा रहा है। आज भारतीय सेना के पराक्रम से पूरा पाकिस्तान सहमा हुआ है। समूचा विश्व हमारी सराहना कर रहा है। बालाकोच में वायुसेना द्वारा मंगल के दिन जोरदार दंगल किये जाने के नतीजे में जैश का पूरा कुनबा ही पाकिस्तान में लापता दिखाई दे रहा है। ऐसे में अगर कोई सेना के पराक्रम का सबूत सार्वजनिक करने का दबाव बनाए तो उसे सतही तौर पर राष्ट्रविरोधी बताकर उसकी आलोचना कर देना तो बेहद ही आसान है। लेकिन जरूरत है उस मांग के पीछे की सोच को निष्पक्षता व तटस्थता से समझने की। हालांकि सत्तारूढ़ भाजपा की ओर से बालाकोट हमले का सबूत मांगे जाने को सेना के पराक्रम पर अविश्वास का नाम दिया जा रहा हो, लेकिन यह सच नहीं है। सच तो यह है कि हमारी सेना किसी दल या संगठन की नहीं बल्कि पूरे देश की है। जितनी सरकार की है उतनी ही जनता की। उसकी नजर में सभी बराबर हैं और उसके प्रति सबके मन में गर्व व सम्मान भी एक समान ही है। यानि सेना को जितना प्यार भाजपा करती है उससे जरा भी कम कोई भाजपाविरोधी पार्टी नहीं करती। चाहे कांग्रेस हो सपा, बसपा या आप। सबके लिये हमारी सेना पराक्रम गर्व का ही विषय है। दूसरी ओर पाकिस्तान की हरकतों से नाराजगी भी सबमें एक समान ही है। अगर ऐसा नहीं होता तो बालाकोट हमले के बाद 21 विपक्षी दलों द्वारा संयुक्त रूप से पारित किये गये प्रस्ताव में पाकिस्तान की निंदा और सेना का यशगान व सलाम करते हुए इस मसले पर पूरी तरह सरकार और देश के साथ खड़े होने की बात नहीं गई होती। इससे पहले पुलवामा हमले के बाद बालाकोट हमले से काफी पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने खुद ही सामने आकर आतंक की ना सिर्फ निंदा की थी बल्कि इसका बदला लेने के लिये सरकार द्वारा किये जानेवाले किसी भी फैसले को अपना पूरा समर्थन देने की बात भी कही थी। इसके बाद आज अगर कांग्रेस, राकांपा, तृणमूल या राजद सरीखे दल बालाकोट हमले का सबूत सार्वजनिक किये जाने की बात कह रहे हैं तो निश्चित ही यह विशुद्ध चुनावी राजनीति का मसला है। आज के विपक्षी दलों को सत्ता में रहते हुए व्यवस्था के कामकाज का जितना अनुभव है उसका चवन्नी भर भी मौजूदा वक्त के सत्ताधारियों को नहीं है। वे बेहतर जानते हैं कि भारत की सेना जब किसी लक्ष्य को तय करती है तो उसके बाद सिर्फ सफलता ही मिलती है। खास तौर से तब जबकि पूरी तरह सोच-विचार करने के बाद पूरी रणनीति बनाकर भारतीय वायुसेना ने निर्धारित प्रहार किया हो तो वह लक्ष्य अभेद्य रह जाए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। यानि विपक्ष को भी बालाकोट में वायुसेना द्वारा किये गये आतंकियों के संहार को लेकर कतई कोई शक या सुबहा नहीं है। यह सबको पता है कि वायुसेना के हर आॅपरेशन की तीन अलग-अलग कैमरों से रिकार्डिंग होती है जिसे सबूत के तौर पर कभी भी प्रस्तुत किया जा सकता है। साथ ही इस बार जो बम इस्तेमाल किये गये है वे इजरायल के ‘दागो और भूल जाओ’ वाली सटीकता पर आधारित हैं और इनकी खासियत है कि ये लक्ष्य पर जाकर फटने से ऐन पहले तक की तस्वीर कंट्रोलर को प्रेषित कर देते हैं। यानि यह तस्वीरें अलग से सामने रखी जा सकती हैं जिसमें ध्वस्त हुए आतंकी कैम्प को बम के छूने तक की तस्वीरें शामिल होंगी। इसके बावजूद अगर सबूत की मांग की जा रही है और सरकार को इस मसले पर उकसाने का प्रयास किया जा रहा है तो उसकी एकमात्र वजह है सेना के पराक्रम का राजनीतिकरण होने के कारण विपक्ष का चुनावी डर। विपक्ष को डर है कि मतदान के मौके पर अगर उन सबूतों को अचानक सामने रखा गया तो राष्ट्रवाद की ऐसी लहर चलेगी जो बीते लोकसभा चुनाव में बही मोदी लहर से भी कहीं अधिक प्रचंड होगी। विपक्ष की यह आशंका कतई गलत भी नहीं है। जिस तरह से बालाकोट के मामले को लेकर भाजपा को श्रेय दिया जा रहा है और ‘मोदी है तो मुमकिन है’ जैसे नारे जोर पकड़ रहे हैं उससे साफ है कि देश में राष्ट्रवाद की लहर जोर-शोर से चल निकली है। उसमें विपक्ष के सारे हथियार कुंद हो गए हैं। तमाम मुद्दे पीछे रह गए हैं। नए मुद्दों पर चर्चा हो नहीं रही। ऐसे में पाकिस्तान से लगातार बढ़ रहे तनाव और सरहद पर अशांति के बीच जिस तरह से वायुसेना भी कह रही है कि अभी उसका मिशन जारी है और थलसेना भी पूरे जोश में है ऐसे में अगर पाक में पल रहे आतंक के खिलाफ कुछ और कामयाबी मिल गई तो मोदी की दोबारा सत्ता में वापसी की संभावना ही नहीं बल्कि पूरा चुनाव एकतरफा हो जाएगा जिसमें पहले से ही वजूद बचाने की जद्दोजहद कर रहे विपक्ष के लिये अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो सकता है। लिहाजा विपक्ष ने आक्रमण को ही बचाव के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हुए सरकार पर पहले से ही धावा बोल देना बेहतर समझा है। विपक्ष की कोशिश है कि सबूत मांगने के बहाने सरकार पर ‘ये दिल मांगे मोर’ का दबाव बनाए रखा जाए ताकि अव्वल तो जब बालाकोट हमले की तस्वीरें सार्वजनिक हो तो अपने दबाव को उसकी वजह बनाई जाए और सेना अगर कोई कार्रवाई करे तो उसके राजनीतिक लाभ में हिस्सेदारी का प्रयास किया जाए। दूसरी ओर सरकार की ओर से बालाकोट का राजनीतिक लाभ बटोरने की कोशिशें तो चल ही रही है लिहाजा अब अगर विपक्ष भी इसमें अपने मुताबिक राजनीतिक समीकरण तलाशने की कोशिश कर रहा है तो उसे सिरे से गलत कैसे कहा जा सकता है। बेहतर होता कि सेना के पराक्रम को सियासी समीकरण के तहत भुनाने की कोशिश किसी ओर से नहीं होती और सैन्य मामलों में पूर्ववर्तियों पर हमला करने से परहेज बरता जाता। लेकिन जब कोई भी पक्ष यह समझने के लिये तैयार ही नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई, सीवीसी, चुनाव आयोग और अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह अगर सेना को लेकर भी सियासत हो रही है तो आखिर इसके लिये किसी एक को जिम्मेवार कैसे बताया जा सकता है।