सियासत में सकारात्मकता की जरूरत






इस बार का लोकसभा चुनाव कतई सामान्य नहीं है। यह चुनाव देश की दिशा तय करेगा। यह तय होगा कि राजनीति दोबारा जातिवाद, संप्रदायवाद और परिवारवाद के दौर में लौटेगी या विकासवाद का ही सिक्का चलेगा। राजनीति दोबारा गठबंधन की सरकारों के दौर में लौटेगी और मजबूर सरकारों का सिलसिला दोबारा शुरू होगा या अब सशक्त भारत के लिये मजबूत सरकार का दौर लगातार आगे बढ़ेगा। यानि देश जिस दोराहे पर खड़ा है वहां से तीसरा कोई रास्ता नहीं निकलता। या तो आगे बढ़ना है या देश को दोबारा पीछे लौटना है। ऐसे निर्णायक चुनाव के बावजूद यह देखकर किसी को भी निराशा हो सकती है सियासत में सकारात्मक सोच व दृष्टिकोण का भारी अभाव दिख रहा है। होना तो यह चाहिये कि इस बार के चुनाव में चुनाव में फालतू मसले नहीं उठने चाहिए। आम आदमी के सरोकार से जुड़े जमीनी मुद्दे पर ही बहस को केन्द्रित रहना चाहिए। मुख्यधारा की बहस में बेरोजगारी, किसान आत्महत्या और  महिला सुरक्षा के साथ अन्य जनसरोकार के मुद्दे शामिल होने चाहिए। लेकिन यह विडंबना ही कही जाएगी कि 17वीं लोकसभा के महासमर से जमीनी सवाल गायब हैं। डिबेट का रुख बेहद संकीर्ण हो गया है। मीडिया की भूमिका सुनिश्चित विचारधारा की तरफ बढ़ती दिखती है। चुनावी फैसले आने से पूर्व ही चैनलों पर सरकारें बना दी जा रही हैं। एंकर पत्रकार की भूमिका में कम पार्टी प्रवक्ता में अधिक दिखते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति का यह सबसे विभत्स चेहरा है। यह वजह है कि राजनीति और मीडिया से वैचारिक मुद्दे गायब हैं। बेकार की बहसों को दिखाया जा रहा है। जनता का ध्यान मुख्य मसलों से भटकाया जा रहा है। सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों में सिर्फ सत्ता की होड़ मची है। जाति-धर्म की बात कर वोटरों को भावनात्मक मसलों से जोड़ा जा रहा है। चुनाव में युवा वोटरों की संख्या सबसे अधिक है। आठ करोड़ से अधिक नए मतदाता जुड़े हैं। लेकिन युवाओं की बात राजनीतिक दलों के एजेंडे से गायब है। भारत में बेरोजगारी का ग्राफ दुनिया में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। युवा रोजी.रोटी की तलाश में निराश है। शहरों में पशुओं को चराने के लिए शिक्षित युवाओं के उपयोग का सरकारें बेशर्म प्लान तैयार कर रही हैं। युवाओं के लिए रोजगार की बात उठाने के बजाय पकौड़े की राजनीति की जा रही है। महिलाओं की सुरक्षा, भुखमरी, प्रतिभाओं का पलायन, किसानों की आत्महत्याएं और बीमार उद्योग व स्वास्थ्य सुविधाएं, चिकित्सकीय सुविधा के अभाव में हो रही मौतें मसला नहीं बन रहीं। चुनाव भारत में हो रहा है लेकिन इसकी गूंज पाकिस्तान में है। यहां के नेताओं की स्पीच को पाकिस्तानी मीडिया अपनी डिबेट का हिस्सा बना रहा है। इससे बड़ी शर्म की बात हमारे राजनीति के लिए और क्या हो सकती है कि कोई सेना के शौर्य पर राजनीति कर रहा है तो कोई आतंकियों के लिए जी जैसी आदर्श शब्दावली का उपयोग करता दिखता है। सेना की वर्दी पहन कर प्रचार किया जा रहा है। राजनीतिक इश्तहारों में सेना का उपयोग किया जा रहा। पुलवामा, अभिनंद और एयर स्ट्राइक को राजनीति का हिस्सा बना दिया गया है। राष्टªवाद की आड़ में अवाम को भावनात्मक रुप से प्रभावित करने की कोशिश हो रही है। जबकि 1965 में पूर्व पीएम लालबहादुर शास्त्री ने चीन के खिलाफ युद्ध लड़ा। इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कराए। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी पोखरण परीक्षण किया। कांग्रेस ने पंजाब से आतंकवाद का सफाया किया। क्या यह उपलब्धियां नहीं थीं। यह क्या एयर और सर्जिकल स्टाइक से कम हैं। कांग्रेस राज में इसकी किसी को भनक तक नहीं लगी। क्योंकि यह सुरक्षा और सेना से जुटे मसले हैं। जिसका अधिकार सिर्फ सेना को है। लेकिन अब उसकी उपलब्धियों का राजनीतिक इस्तेमाल भी होने लगा है। बदली भूमिका में आज की सेना का शौर्य भी राजनीति का विषय बन गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनमत एक संवैधानिक और स्वस्थ परंपरा है। दुनिया में जहां भी यह स्वस्थ अधिकार कायम हैंए वहां लोकतंत्र बेहद मजबूत और सुदृढ़ है। वैचारिक रुप से स्वस्थ लोकतंत्र में अच्छे विचारों का विशेष महत्व है। आम चुनाव सरकारों के कामकाज का विश्लेषण भी होता है। लोग अपनी पसंद की सरकार के लिए मतदान करते हैं। भारत दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र है। देश की जनता 17 वीं लोकसभा का चुनाव करने जा रही है। लेकिन तथ्यहीन और भावनात्मक मुद्दे उठाकर वोट हासिल करने में राजनैतिक दल जुटे हैं। भारत के आम चुनाव में पाकिस्तान और आतंकवाद छाया है। भाजपा जहां राष्टªवाद जैसे भावनात्मक मसले उठाकर वोट बैंक को मजबूत करना चाहती है। वहीं कांग्रेस राफेल, किसान, आतंकी सम्मान में जी लगा महासमर फतह करना चाहती है। सोशल मीडिया चुनावों में बेहद अहम भूमिका निभाने जा रहा है। दलीय समर्थक सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर पूरी तरह सक्रिय हो गए हैं। सभी राजनैतिक दल और राजनेता इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। पीएम मोदी अब खुद ब्लाग पर आ गए हैं। सोशल मीडिया पर निष्पक्ष और तार्किक बहस के बजाय केंद्रीय विचारधारा का युद्ध चल रहा है। राजनीतिक से जुड़े दल एक दूसरे को कोसने में लगे हैं। जिसकी वजह से लोकतंत्र में वैचारिकता का सीधा अभाव दिखता है। लोकतंत्र में चुनाव अहम होते हैं। जनता सरकारों का चुनाव करती है। लेकिन आज की राजनीति में राजनीतिक दल अपना दृष्टिकोण रखने के बजाय एक दूसरे के कपड़े उतारने में लगे हैं। किसी भी राजनीतिक दल के पास देश की वर्तमान समस्या को कोई हल नहीं दिखता है। बेगारी दूर करने के लिए किसके पास क्या नीतियां है? कश्मीर पर उनके पास क्या सुझाव है? सेना की शहादत पर विराम कैसे लगाया जाए? नक्सलवाद की समस्या का जमीनी हल क्या होगा? समाज में महिलाओं की सुरक्षा कैसे हो? आबो हवा में बढ़ते प्रदूषण पर कैसे रोक लगायी जाय? सांप्रदायिक हिंसा, क्षेत्र और भाषावाद की नफरत कैसे दूर की जाय? आरक्षण के जरिए प्रतिभाओं के हनन को रोकने के लिए बीच का रास्ता क्या बने? ऐसे मसलों पर राजनीतिक दलों का कोई दृष्टिकोण नहीं दिखता है। निश्चित की इस नकारात्मकता से आगे बढ़ने की जरूरत है जिसकी पहल करने के लिये राजनीतिक दलों को आगे आना ही होगा। वर्ना नकारात्मक सोच से की जानेवाली कोशिशों का सकारात्मक परिणाम निकलना बेहद मुश्किल है।