तूफान से पहले की खामोशी






भाजपा के भीतर इन दिनों सांगठनिक स्तर पर जो काट-पीट का खेल चल रहा है उसका शोर बाहर से भले ही सुनाई ना पड़ रहा हो लेकिन अंदरखाने कतई वैसी शांति नहीं है जैसी दिखाने या बताने की कोशिश की जा रही है। बाहर से तो यही दिखाई पड़ रहा है कि भाजपा के संस्थापकों में शुमार होने वाले लालकृष्ण आडवाणी सरीखे दिग्गज नेता को भी इस बार उनके परंपरागत गांधीनगर की सीट से लोकसभा का टिकट नहीं दिया गया लेकिन संगठन में इसको लेकर किसी ने उफ तक नहीं किया। बाहर से तो यही दिखाई पड़ रहा है कि शत्रुघ्न सिन्हा सरीखे कथित अनुशासनहीन से लेकर हुकुमदेव नारायण यादव सरीखे सर्वश्रेष्ठ सांसद का सम्मान प्राप्त नेता को इस बार लोकसभा का टिकट देने से परहेज बरत लिया गया लेकिन किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। बाहर से तो यही दिखाई पड़ रहा है कि तमाम चुनावी टिकट बड़ी ही शांति, सहमति और सामंजस्य के माहौल में चुनावी टिकट का बंटवारा हो रहा है जिसको लेकर कहीं कोई विरोध या असंतोष नहीं है। लेकिन अगर यह वास्तविक तस्वीर होती तो फिर कहना ही क्या।  लेकिन सच तो यह है कि पार्टी के भीतर एक अलग तरह की राजनीति हो रही है। पार्टी का एक बड़ा तबका एक अलग तरह की खिचड़ी पकाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है जिसकी हरकतों और पहलकदमियों से यह साफ तौर पर संकेत मिल रहा है कि कहीं ना कहीं मौजूदा वक्त में पार्टी के भीतर जो शांति, आमसहमति व सामंजस्य का माहौल दिखाई पड़ रहा है वह वास्तव में नजरों का धोखा है, छलावा है। लेकिन तमाम संकेतों और संदेशों के बावजूद कोई भी दावे से नहीं कह सकता कि आखिर पार्टी के भीतर क्या खिचड़ी पक रही है। हालांकि जिस तरह की महक उठ रही है उससे इतना तो स्पष्ट है कोई ना कोई जोरदार खिचड़ी पकाने की कोशिश अवश्य हो रही है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक की जमीनी राजनीति करनेवाली उमा भारती सरीखी नेत्री अचानक ही सक्रिय राजनीति से डेढ़ साल के लिये किनारा करने की घोषणा कर दे। उमा भारती की इस घोषणा में निश्चित ही कोई बड़ा संकेत छिपा हुआ है कि वह इस बार चुनाव नहीं लड़ना चाहतीं और डेढ़ साल तक सत्ता, संगठन व सरकार से पूरी तरह अलग हटकर गंगा यात्रा पर निकलना चाहती हैं। अगर यह उमा का गंगा प्रेम है तो उनको मोदी सरकार द्वारा गंगा सफाई विभाग से हटाया जाना भी इसकी पृष्ठभूमि में देखा जाएगा और जैसा कि उन्होंने दलील दी है कि वर्ष 2016 में ही उन्होंने सांगठनिक व चुनावी राजनीति से किनारा करने की बात पार्टी नेतृत्व को बता दी थी तो उनके इस मोहभंग के भी कई निहितार्थ अवश्य निकाले जाएंगे। यानि उमा ने पार्टी अध्यक्ष को जो पत्र लिखा है जिसे भाजपा के व्हाट्स एप ग्रुप पर शायद गलती से साझा करने के कुछ ही मिनटों बाद हटा लिया गया है वह सामान्य व साधारण अभिव्यक्ति का पत्र कतई नहीं है। साथ ही उस पत्र के सामने आने का वक्त भी ऐसा है जबकि महज एक ही दिन पूर्व उन लालकृष्ण अडवाणी को पार्टी ने इस बार उनकी परंपरागत सीट गांधीनगर से लोकसभा का टिकट नहीं देने का ऐलान किया है जिन्हें उमा अपने धर्मपिता का दर्जा देती हैं। साथ ही उमा का पत्र तब सामने आया है जब केन्द्र की वाजपेयी केबिनेट में सबसे कम उम्र के मंत्री रहे व भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीतने की क्षमता रखनेवाले मौजूदा वक्त के इकलौके अल्पसंख्यक नेता शाहनवाज हुसैन को भाजपा ने इस बार लोकसभा के टिकट से वंचित करने की औपचारिक घोषणा कर दी है जो उमा को अपने राजनीतिक जीवन की धर्ममाता का दर्जा देते रहे हैं। यानि समग्रता में देखें तो उमा ने ऐसे वक्त में सत्ता, संगठन व सरकार से तय समय के लिये किनारा करने का ऐलान किया है जब उनके धर्मपिता को ही नहीं बल्कि धर्मपुत्र को भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने चुनावी राजनीति से अलग-थलग कर दिया है। हालांकि उमा अकेली नहीं हैं जिन्होंने पार्टी नेतृत्व को विश्वास में लिये बगैर मनमर्जी से चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की हो बल्कि ऐसा कदम सबसे पहले विदेशी मंत्री सुषमा स्वराज ने उठाया था जब उन्होंने पार्टी को सूचित किये बगैर स्वास्थ्य कारणों की आड़ लेते हुए इस बार लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ने का सार्वजनिक तौर पर ऐलान कर दिया था। इसी प्रकार बताया जाता है कि राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से लेकर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौड़ तक ने इस बार खुद ही पहल करके चुनाव से अलग रहने का निर्णय लिया है। वह भी तब जबकि पार्टी ने पहले ही यह ऐलान कर दिया है कि 75 वर्ष की उम्र से अधिक के नेताओं को सक्रिय राजनीति से अलग रखने का सैद्धांतिक फैसला चुनावी टिकट के मामले में लागू नहीं होता है बल्कि इस फैसले के तहत सिर्फ उन्हें पद पर बिठाने से परहेज बरता जाएगा। इसके बावजूद एक खास तरह की सोच रखनेवाले नेताओं की जमात में से कुछ को पार्टी टिकट नहीं दे रही है और कुछ खुद ही चुनाव लड़ने से इनकार कर रहे हैं तो समग्रता में देखने पर पूरा मामला दूरगामी तौर पर एक तयशुदा दिशा की ओर बढ़ता हुआ ही दिख रहा है। वैसे यह बात तो निपट अनाड़ी को भी शायद ही अलग से बताने की जरूरत हो कि सियासत का असली लक्ष्य होता है संगठन के सहयोग से चुनावी भवसागर को सफलता पूर्वक पार करके सत्ता के शिखर पर कब्जा जमाना। ऐसे में अगर ऐन चुनाव के वक्त पुराने व जमीनी महारथियों का एक बड़ा वर्ग चुनावी भवसागर में उतरने से ही परहेज कर रहा हो और सत्ता के लिये होनेवाले इस संघर्ष में शिरकत करने से किनारा कर रहा हो निश्चित ही यह कोई सामान्य मसला नहीं है। निश्चित ही यह पूरा मामला किसी दूरगामी राजनीति की ओर इशारा कर रहा है और यह दर्शा रहा है कि संगठन के भीतर काफी उच्च तापमान का लावा धधक रहा है जिसके बह निकलने की राह 23 को आने वाले चुनाव परिणामों से ही तय होगी। उसके बाद ही यह तय होगा कि यह ज्वालामुखी फटेगा या भीतर ही भीतर उसे शांत व ठंडा होने के लिये विवश होना पड़ेगा।