आडवाणी की बेमानी नसीहत






भाजपा के वरिष्ठतम मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी ने लंबे समय के बाद अपनी चुप्पी तोड़ी है। अंतिम बार उन्हें देश ने तब सुना था जब बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत के बाद संसद के केन्द्रीय कक्ष में उन्होंने पार्टी के नवनिर्वाचित संसदीय दल को संबोधित किया था। हालांकि बाद में भी कुछ छिटपुट मौकों पर उनकी छोटी-मोटी प्रतिक्रियाएं अवश्य सामने आईं लेकिन वह बेहद ही संक्षिप्त और औपचारिक थीं जिसमें उनके दिल की बातें नहीं थीं। वास्तव में देखा जाए तो वर्ष 2014 के बाद वे चुप भी हो गए और उनके आस-पास के लोगों ने भी इस बात का खास तौर से ध्यान रखा कि वे चुप ही रहें। संसद और सड़क पर ही नहीं बल्कि संगठन में भी उनकी चुप्पी ही बीते कई सालों से उनकी पहचान बनी हुई है। कहने को भाजपा के मौजूदा निजाम ने आडवाणी को पार्टी का मुख्य मार्गदर्शक बनाया हुआ है और संगठन के पांच सदस्यीय मार्गदर्शक मंडल के वे वरिष्ठतम सदस्य हैं। लेकिन आडवाणी को चुप रखने के लिये किये जाने वाले तमाम जतनों की कड़ी में एक कदम यह भी उठाया गया कि पार्टी के उस मार्गदर्शक मंडल की एक बार भी बैठक ही नहीं बुलाई गई जिसके फोरम पर वह अपनी बात रख सकें। इसके अलावा पार्टी की हर तीन-छह महीने में होने वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी व राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठकों में भी आडवाणी को चुप होकर बैठने के लिये विवश किया गया और आडवाणी ने भी इसे अपनी नियति मानकर चुपचाप स्वीकार कर लिया। बीते पांच सालों में आडवाणी को राजनीतिक तौर पर मुखर होते हुए और पैंतरा दिखाते हुए सिर्फ एक बार देखा गया जब संसद भवन में स्थित उनके कार्यालय को उनके लिये आवंटित करने से बचने की कोशिश की गई। हालांकि वह कार्यालय किसी और को नहीं दिया गया था लेकिन राजग के नाम पर आवंटित उस कमरे को दोबारा यथारूप में आवंटित नहीं किया गया था। हालांकि आडवाणी को उस कार्यालय का उपयोग करने से किसी ने रोका नहीं था लेकिन चुंकि वह आवंटित नहीं हुआ था लिहाजा उन्हें वहां बैठना उचित नहीं लगा और वे भाजपा के संसदीय दल के कार्यालय में सामान्य कार्यकर्ताओं के साथ ही आकर बैठने लगे। आडवाणी को इस तरह खुले में बैठा देखकर पत्रकारों का जमघट लगने लगा और उनसे तमाम तरह के मसलों पर खुली बातचीत होने लगी। आडवाणी भी सभी मसलों पर बेबाकी से बोलने से परहेज नहीं बरत रहे थे। नतीजन उन दिनों भाजपा के लिये सिरदर्दी का सबब बनने वाली कई खबरें अखबारों में प्रकाशित होने लगीं। ऐसे में भाजपा के आला नेताओं के पास आडवाणी को पत्रकारों के जमघट से दूर करने के लिये उन्हें राजग का पुराना कार्यालय आवंटित करने के लिये विवश होना पड़ा और इस तरह एक बार फिर वे चुप्पी के अपने खोल में सिमट कर रह गए। उसके बाद वे हर मौके पर चुप ही रहे। कभी किसी को कुछ नहीं कहा। लेकिन उनकी यही चुप्पी उनके हितों की राह में अवरोधक बन गई। भाजपा ने तमाम ऐसे फैसले किये मानो आडवाणी का होना या ना होना उसके लिये कोई मायने ही ना रखता हो। कहा जा रहा था कि मोदी सरकार बनने के बाद अब भाजपा का संस्थापक होने की वजह से देश राष्ट्रपति पद के लिये भाजपा आडवाणी को ही अपना उम्मीदवार बनाएगी। लेकिन आडवाणी के नाम पर पार्टी ने विचार करना भी जरूरी नहीं समझा और रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बना दिया गया। यहां तक कि अब आडवाणी को संसद की सदस्यता से भी वंचित होने के लिये विवश किया गया है और उनकी परंपरागत गांधीनगर की सीट से उन्हें इस बार पार्टी ने टिकट ही नहीं दिया है। आडवाणी की सीट से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने खुद चुनावी मैदान में ताल ठोंक दी है। लेकिन इतना कुछ होने के बाद भी आडवाणी की चुप्पी नहीं टूटी। अब उनकी चुप्पी टूटी भी है तो ऐसे मसले पर जो ना सिर्फ बेमानी है बल्कि उसको जानते तो सभी हैं लेकिन मानने से कतराते हैं। हालांकि आदर्श राजनीतिक सिद्धांतों के तहत आडवाणी ने बिल्कुल सही फरमाया है कि राजनीतिक विरोधियों को अपना निजी दुश्मन मानकर नहीं चलना चाहिये और ऐसे लोगों को सीधे-सीधे देश का दुश्मन नहीं बता देना चाहिये जो आपकी सोच या सिद्धांतों से सहमत नहीं हो। वास्तव में देखें तो आडवाणी ने बात बिल्कुल ठीक कही है लेकिन राजनीति का जितना पतन हो चुका है और इसकी मर्यादा जिस कदर तार-तार हो चुकी है उसके बाद अब इन सैद्धांतिक बातों का कोई मतलब नहीं दिखाई पड़ता है। हालांकि इस पर अलग से बहस हो सकती है कि राजनीति के पतन व क्षरण के लिये कौन कितना जिम्मेदार है। लेकिन इस बात में तो कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि इस हम्माम में सभी नंग-धड़ंग ही हैं। फिर कौन किसको कहे नंगा और कैसे बहें सिद्धांतों की गंगा। मौजूदा माहौल में तो गंगा बह ही नहीं सकती यहां तो गटर का पानी ही बह रहा है। अब तक किसी भी नेता पर निजी हमला करने से परहेज बरतने की नीति को सभी मानते आ रहे थे लेकिन मोदी को प्रधानमंत्री पद पर स्वीकार नहीं कर पानेवालों ने उन पर जितने निजी हमले किये उसके बाद भाजपा के पास भी मोदी पर हमला करनेवालों के खिलाफ सीधा मोर्चा खोलने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा। तभी तो राहुल गांधी ने मोदी को चोर प्रचारित करना शुरू किया तो भाजपा ने भी राहुल के हेराफेरी करके करोड़ों की संपत्ति अर्जित करने के मसले को उछालने में देर नहीं की। अब दोनों तरफ से सैद्धांतिक कम और निजी आरोप-प्रत्यारोप व लांक्षन अधिक लगाए जा रहे हैं। इसी प्रकार अब तक विदेश नीति के मामले में सत्तापक्ष को हमेशा ही विपक्ष का पूरा व खुला समर्थन मिलता आ रहा था। खास तौर से पाकिस्तान के मसले पर तो सरकार के किसी भी कदम की विपक्ष ने आलोचना करके घरेलू राजनीति में बढ़त लेने के बारे में विचार भी नहीं किया। लेकिन अब वह माहौल ही नहीं है। अब तो सेना प्रमुख को गली का गुंडा कहा जा रहा है। पाकिस्तान की ओर से आतंकी हमला हो तब भी सरकार को दोषी ठहराया जाता है और अगर सरकार की सहमति से सेना सरहद पार जाकर कार्रवाई करे तब भी लांक्षन लगाया जाता है कि सेना के खून की दलाली की जा रही है। ऐसे में अब आडवाणी ने चुप्पी तोड़ी भी है तो उसका कोई मायने-मतलब निकालना बेकार ही है। यह ऐसा ही है जैसे घर के बुजुर्ग हर मामले में अपने बच्चों को ही अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं। यह जानने के बाद भी कि उनका बच्चा बेहतर नहीं बेहतरीन है।