अनुशासन का सबक






उत्तर पश्चिमी दिल्ली लोकसभा सीट से मौजूदा सांसद उदित राज को यह बात समझ में ही नहीं आ रही है कि आखिर इस बार पार्टी ने उन्हें चुनावी टिकट से वंचित करते हुए उनकी सीट से पंजाबी सूफी गायक हंसराज हंस को मैदान में क्यों उतारा है। लिहाजा उदित राज ने सार्वजनिक तौर पर पत्र जारी करके पार्टी से इसकी वजह जाननी चाही है। इस पत्र में उन्होंने आहत व कातर लहजे में लिखा है कि बीते लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व पर आंखें मूंद कर भरोसा करते हुए अपनी इंडियन जस्टिस पार्टी का भाजपा में विलय करके शायद उन्होंने गलती कर दी वर्ना आज उन्हें अपनी लोकसभा सीट से टिकट पाने में नाकामी का सामना नहीं करना पड़ता और अपना दल सरीखे भाजपा के स्थानीय सहयोगियों की ही तरह वे भी गठबंधन से बहुत कुछ हासिल कर सकते थे। उदित राज को अफसोस इस बात का भी है कि, ''पार्टी ने मेरे पक्ष को प्रस्तुत करने का मौका भी नही दिया घर में काम करने वाले की भी मर्जी पूछी जाती है लेकिन मुझसे टिकट देने या न देने के मामले में कभी पूछा ही नही गया। वह भी तब जबकि पार्टी द्वारा चार अलग-अलग एजेंसियों से कराए गए आंतरिक सर्वे में दिल्ली के तमाम भाजपाई सांसदों मुकाबले हर मामले में मेरा प्रदर्शन सबसे बेहतर आंका गया।'' दरअसल उदित राज को पहले ही यह अंदेशा हो गया था कि इस बार पार्टी उन्हें लोकसभा चुनाव के टिकट से वंचित कर सकती है। लिहाजा पार्टी पर दबाव बनाने के लिये वे लगातार प्रयास कर रहे थे और इसी सिलसिले में उन्होंने मीडिया के माध्यम से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को यहां तक संकेत दे दिया कि अगर उन्हें टिकट से वंचित किया जाएगा तो भाजपा से अलग होने से भी गुरेज नहीं करेंगे। हालांकि उदित राज की मानें तो बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ टिकट के मामले को लेकर उनकी सीधी बात नहीं हो पाई थी लेकिन राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी व रामलाल सरीखे पार्टी के अन्य तमाम नेताओं के साथ उन्होंने बात की थी और सबने उन्हें आश्वस्त किया था कि उनके साथ कतई अन्याय नहीं होगा। लेकिन इन आश्वासनों के बावजूद टिकट से वंचित किये जाने के बाद उदित राज का आक्रोश फूट पड़ा और उन्होंने ना सिर्फ सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्र मोदी द्वारा चलाए गए मैं भी चैकीदार अभियान से खुद को अलग करते हुए अपने नाम से चैकीदार शब्द हटा लिया बल्कि सार्वजनिक तौर पर यह जताने से भी परहेज नहीं बरता कि उन्हें पार्टी से बाहर निकल जाने के लिये मजबूर किया जा रहा है। पार्टी द्वारा टिकट से वंचित किये जाने की जो भी वजहें हो सकती हैं उनमें से पांच का जिक्र करते हुए उदित राज ने अपने सार्वजनिक पत्र में स्वीकार किया कि उन्होंने सांसद रहते हुए दलितों के हित में पार्टी लाइन से अलग हटकर कुछ काम अवश्य किये जिसके कारण वे संगठन के शीर्ष संचालकों की आंखों की किरकिरी बन गए। हालांकि एक बार को तो उदित राज ने बागी तेवर अपनाते हुए निर्दलीय तौर पर चुनावी पर्चा दाखिल करने के भी संकेत दिया लेकिन बताया जाता है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने उनका मान-मनौवल करके उन्हें सब्र करने के लिये सहमत कर लिया है और इसी का नतीजा रहा कि आखिरकार उदित राज ने अपने नाम के आगे दोबारा चैकीदार शब्द जोड़ लिया है। यानि उदित राज की नाराजगी को दूर करने का आश्वासन भी दिया ही गया होगा और अगर उनका संगठन या सरकार में इस्तेमाल नहीं किया जाता है तो अपनी अलग दुनिया बसाने के लिये तो स्वाभाविक तौर पर स्वतंत्र ही हैं। लेकिन सवाल अब भी बरकरार है कि आखिर पार्टी को उनका टिकट काटने के लिये मजबूर क्यों होना पड़ा। दरअसल इसकी सबसे बड़ी वजह तो निश्चित ही जमीनी समीकरण ही हैं जिसके तहत हर एक पर सीट पर जीत सुनिश्चित करना आवश्यक है। यानि पार्टी को अवश्य ही यह फीडबैक मिला होगा कि इस बार अगर उदित राज को मैदान में उतारा गया तो इससे नुकसान हो सकता है लिहाजा उनकी जगह हंसराज हंस के रूप में एक प्रसिद्ध सूफी गायक को मैदान में उतारा गया है जो दलित भी है, पंजाबी भी और युवाओं में लोकप्रिय भी। लेकिन अगर उदित राज को यह लग रहा है कि उनकी मनमानी हरकतों के कारण उन्हें टिकट से वंचित किया गया है तो निश्चित तौर पर इसके लिये उन्हें आत्मचिंतन करना चाहिये। माना कि अपने हिसाब से उन्होंने हर कदम अपने समाज की भलाई के लिये ही उठाया और सरकार को दलित हितैषी एजेंडे पर काम करने के लिये मजबूर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन राजनीति का तकाजा यह भी है कि जनता के साथ ही संगठन के हितों को भी तवज्जो दी जाए और दोनों के बीच संतुलन बनाकर ही आगे बढ़ा जाए। इसी को एक अर्थ में सांगठनिक अनुशासन भी कहते हैं और संगठन के प्रति समर्पण भी। लेकिन इस लिहाज से देखा जाए तो बेशक उदित राज ने इंजपा का भाजपा में विलय कर दिया लेकिन वे उस मानसिकता व कार्यप्रणाली से बाहर नहीं निकल सके जो इंजपा सुप्रीमो के तौर पर तो ठीक हो सकती थी लेकिन भाजपा के कार्यकर्ता के तौर पर उन्हें वैसा नहीं करना चाहिये था। जब पार्टी में सदस्य के तौर पर वे शामिल हो गये तो उसके बाद कोई कदम उठाने से पहले आवश्यक था कि वे पहले पार्टी को विश्वास में लेते और वरिष्ठ नेताओं की अनुमति से ही किसी काम को आगे बढ़ाते। लेकिन ना तो उन्होंने दलित कानून की व्यवहार्यता में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किये गये बदलाव का विरोध करने के मामले में ऐसा किया और ना ही एससी एसटी एक्ट और रोस्टर प्वाइंट के मामले में हुए दलित आंदोलन के साथ जुड़ने से पहले पार्टी को विश्वास में लेना जरूरी समझा। बल्कि इनकी कार्यप्रणाली से यही संदेश जा रहा था कि मोदी सरकार द्वारा दलितों के हित में किये जाने वाले सभी काम इनके ही दबाव के कारण संभव हो पा रहा है। यानि ये दलित राजनीति का पुरोधा बनने की कोशिश में भाजपा संगठन और मोदी सरकार से भी आगे दिखना चाह रहे थे। निश्चित ही इस तरह की कार्यप्रणाली को अनुशासनहीनता के नजरिये से ही देखा जाएगा और आज अगर इन्हें लग रहा है कि इनकी इन्हीं हरकतों के कारण पार्टी ने इनको टिकट से वंचित किया है तो जरूरी है कि वे इस सब पर आत्मचिंतन करें और अपने कामकाज के तौर तरीकों में बदलाव लाएं।