(डॉ मोनिका ओझा खत्री)
हिन्दू समाज में चैत्र शुक्ल तृतीया का दिन गणगौर पर्व के रूप में मनाया जाता है। गणगौर लोकपर्व होने के साथ-साथ रंगबिरंगी संस्कृति का अनूठा उत्सव है। यह पर्व विशेष तौर पर महिलाओं के लिए ही होता है। नवरात्र के तीसरे दिन यानि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाने वाला गणगौर का व्रत स्त्रियों के लिए अखण्ड सौभाग्य प्राप्ति का पर्व है।
गणगौर दो शब्दों से मिलकर बना है,गण और गौर। गण का तात्पर्य है शिव (ईसर) और गौर का अर्थ है पार्वती। वास्तव में गणगौर पूजन माँ पार्वती और भगवान शिव की पूजा का दिन है। गणगौर राजस्थान की लोक संस्कृति का महापर्व है। इसमें शिव-पार्वती को माता गौरी व गण को ईश्वर शिवजी के रूप में पूजा जाता है। बताया जाता हैं माता पार्वती ने शंकर भगवान को पति (वर) रूप में पाने के लिए यह व्रत और तपस्या की थी। तब भगवान शंकर तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान मांगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा करती हैं। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी की शिव जी से शादी हो गई। तभी से कुंवारी कन्याएं इच्छित वर पाने के लिए ईसर यानी भगवान शंकर और माता पार्वती गणगौर की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पति की लम्बी आयु के लिए यह पूजा करती है। 16 दिनों तक चलने वाली गणगौर पूजा होलिका दहन के बाद वाले दिन से शुरू होती है। सबसे पहले चैकी लगाकर, उस पर स्वास्तिक बनाकर पानी से भरा कलश रखा जाता है। इसके बाद उस पर नारियल और पान के पांच पत्ते रखे जाते हैं। ये कलश चैकी की दाहिनी ओर रखा जाता है इसके बाद होली की राख या काली मिट्टी से सोलह छोटी-छोटी पिंडी बनाकर उसे चैकी पर रखा जाता है. इसके बाद गणगौर के गीत गाए जाते हैं। ऐसी पूजा शुरू के सात दिन करने के बाद सातवें दिन शाम को कुम्हार के यहां से गणगौर भगवान और मिट्टी के दो कुंडे लाए जाते हैं। गणगौर के आखिरी दिन तक इनकी विधि विधान से पूजा कर गणगौर भगवान को विसर्जित कर दिया जाता है और गणगौर का उद्यापन किया जाता है।
उत्तर भारत में गणगौर महिलाओं का उत्सव नाम से भी प्रसिद्ध है। कुंवारी लड़कियां मनपसंद वर की कामना करती हैं तो विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। अलग-अलग समूहों में महिलाओं द्वारा लोकगीत गाते हुए फूल तोड़ने तथा कुओं से पानी भरने का दृश्य लोगों की निगाहें ठहरा रहा है तो कहीं मोड़ रहा है। लोक संगीत की धुनें पारंपरिक लोक नृत्य पर हावी हो रही हैं।
गणगौर की पूजा में गाये जाने वाले लोकगीत इस अनूठे पर्व की आत्मा हैं। इस पर्व में गवरजा और ईसर की बड़ी बहन और जीजाजी के रूप में गीतों के माध्यम से पूजा होती है तथा उन गीतों के बाद अपने परिजनों के नाम लिए जाते हैं। राजस्थान के कई प्रदेशों में गणगौर पूजन एक आवश्यक वैवाहिक रस्म के रूप में भी प्रचलित है। गणगौर पूजन में कन्यायें और महिलायें अपने लिए अखंड सौभाग्य ,अपने पीहर और ससुराल की समृद्धि तथा गणगौर से हर वर्ष फिर से आने का आग्रह करती हैं।