बेवजह बदनाम हो रहा भाजपा का निजाम







कहते हैं कि कर्म पर ही इंसान नियंत्रण रख सकता है। लेकिन किस कर्म का क्या परिणाम होगा इस पर किसी का जोर नहीं चलता। कई बार भला करने निकलो तो बुरा हो जाता है और कोई बुरा करना चाहे तो भी भला कर बैठता है। कई बार थोड़ी सी भलाई का काम करने से भी दुनिया भर की प्रशंसा मिल जाती है और कई बार नेकी कर और दरिया में डाल की परंपरा का अनुपालन करने में ही भलाई दिखाई पड़ती है। लेकिन इस सबसे अलग हटकर कई बार किना कुछ किये ही यश अथवा अपयश का भागीदार बनना पड़ता है। बिना गलत किये ही अपयश का भागीदार बनने का सबसे बेहतरीन उदाहरण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ही हैं। बीते कई सालों से मोदी और अमित शाह की जोड़ी को इस बात के लिये गैरों से लेकर अपनों तक की अनवरत नाराजगी और आलोचना झेलनी पड़ रही है कि उन्होंने तानाशाही नीतियां अपनाते हुए मनमाने ढ़ंग से भाजपा के संस्थापकों व वरिष्ठ नेताओं को किनारे लगा दिया। चाहे लालकृष्ण आडवाणी को संगठन व सत्ता की सक्रिय राजनीति से अलग करते हुए लोकसभा के टिकट से भी वंचित करने का मामला हो अथवा सुमित्रा महाजन से लेकर कलराज मिश्रा, डाॅ मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, करिया मुंडा और शांता कुमार सरीखे नेताओं को मुख्य धारा की राजनीति से अलग करके घर बैठने पर मजबूर करने का। इसका जिम्मेवार सीधे तौर पर मोदी-शाह की जोड़ी को ही ठहराया जा रहा है। सबकी उंगलियां इन पर ही उठ रही हैं।

अपनी पार्टी के असंतुष्ट नेताओं की जमात भी इन बुजुर्ग नेताओं के साथ मोदी-शाह द्वारा बदसलूकी किये जाने की दलील देकर छाती पीट रही है और विरोधियों को तो स्वाभाविक तौर पर मौका मिल रहा है मोदी-शाह को क्रूर, तानाशाह, असहिष्णु और एहसान फरामोश यानि कृतघ्न बताते हुए इन पर कीचड़ उछालने व बदनाम करने का। जबकि सच तो यह है कि 75 वर्ष से अधिक उम्र के नेताओं को सत्ता व संगठन की जिम्मेवारियों से मुक्त किये जाने की नीति 2009 के लोकसभा चुनाव से पूर्व ही संघ व भाजपा के तत्कालीन शीर्ष नेताओं द्वारा परस्पर सहमति से तय कर ली गई थी और इसी के तहत राष्ट्रीय व प्रादेशिक से लेकर स्थानीय स्तर तक पार्टी के बुजुर्ग नेताओं व कार्यकर्ताओं के लिये सम्मान व अभिनंदन के साथ विदाई का समारोह भी आयोजित किया गया। ऐसे ही समारोह में विजय कुमार मलहोत्रा को भी सक्रिय राजनीति से सन्यास दिया गया था और उसी राह पर चलते हुए बीते लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश के शीर्षस्थ नेताओं में शुमार होनेवाले कैलाश जोशी ने स्वेच्छा से सन्यास लिया था। आगे भी उसी नीति का अनुसरण हुआ जिस पर अमल करने के अलावा मोदी-शाह के पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। वर्ना मौजूदा दौर की इस सफलतम सियासी जुगल जोड़ी का बस चलता तो ये ऐसे फैसले कतई ना लेते जिससे इन पर तानाशाही से संगठन चलाने का इल्जाम भी लग रहा है, व्यक्तिगत तौर पर अफसोसनाक स्थिति का सामना भी करना पड़ रहा है और राजनीतिक तौर पर उसकी भरपाई करने के लिये अलग से एड़ी-चोटी का जोर भी लगाना पड़ रहा है। आज स्थिति यह है कि आडवाणी और डाॅ जोशी से लेकर कलराज मिश्रा, सुमित्रा महाजन, कैलाश जोशी, विजय कुमार मलहोत्रा, शांता कुमार, करिया मुंडा, यशवंत सिन्हा और बीएस येदियुरप्पा सरीखे जमीनी व धुरंधर नेताओं को सक्रिय राजनीति से अलग करने के बाद पार्टी के मौजूदा निजाम के सामने उनके परंपरागत सीटों को बचाए रखने की चुनौती आ गई है।

अगर ये सभी चुनाव लड़ रहे होते तो इनकी जीत के प्रति तो निश्चिंत हुआ ही जा सकता था। यानि इनके नहीं लड़ने से तात्कालिक नुकसान की संभावना तो मौजूदा निजाम को ही है जिसके लिये इस बार के चुनाव में हर एक सीट बेहद ही महत्वपूर्ण है। मोदी-शाह की जोड़ी ने तो इस बार के चुनाव में यह व्यवस्था लागू करने की भी कोशिश की कि 75 वर्ष से अधिक उम्र वालों को केवल सत्ता या संगठन में जिम्मेवारी देने पर प्रतिबंध लगा रहने दिया जाए लेकिन उनके चुनाव लड़ने को प्रतिबंधित ना किया जाए। लेकिन शायद इस जुगल जोड़ी की बात को लेकर संघ व संगठन में आम सहमति नहीं बन सकी। सच तो यह है कि पार्टी के संस्थापकों व बुजुर्ग नेताओं को सत्ता व संगठन से अलग करने संबंधी फैसला लेने की हैसियत और क्षमता भी इन दोनों के पास नहीं है।

भले ही मौजूदा दौर में भारतीय राजनीति के आकाश में ये दोनों धूमकेतु की तरह चमक रहे हों लेकिन इन दोनों को भी पता है कि आखिरकार संगठन के सहयोग ने ही इन्हें यह चमक दी है और यह संगठन अगर इनको चमका-दमका सकता है तो किसी और को इनसे भी आगे ले जाना संगठन के लिये कोई बड़ी बात नहीं है। आज ये दोनों जैसे भी हैं वह संगठन के कारण ही हैं। लिहाजा इन्हें अपनी हैसियत और स्थिति का पता ना हो ऐसा होना तो संभव ही नहीं है। तभी तो इन दोनों के नेतृत्व में संचालित हो रही पार्टी अपनी ओर से सुमित्रा महाजन को टिकट से वंचित करने का फैसला नहीं ले पा रही थी। वह तो बाद में पार्टी का असमंजस दूर करने के लिये सुमित्रा ने खुद ही ऐलान कर दिया कि वे इस बार लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगी। उनके इस ऐलान के पीछे सांगठनिक अनुशासन के अनुपालन और मर्यादा की रक्षा का दबाव ही था। रहा सवाल आडवाणी का तो उन्हें 2009 के चुनाव में ही बता दिया गया था कि यह उनका आखिरी चुनाव होगा। लेकिन अंतिम समय तक सत्ता का मोह छोड़ना आडवाणी को गवारा नहीं हुआ लिहाजा पार्टी को मजबूर उन्हें 2014 में लोकसभा का टिकट देना पड़ा। लेकिन इस बार भी जब आडवाणी ने अपनी ओर से राजनीति से सन्यास का ऐलान करने की पहल नहीं की तो विवश होकर पार्टी को उन्हें टिकट से वंचित करना पड़ा। वैसे भी संस्थापक बुजुर्गों को अगर मोदी-शाह की जोड़ी ने अपनी मनमानी नीति के तहत दूध में पड़ी मक्खी की तरह सत्ता व संगठन से निकाल फेंकने की जुर्रत की होती तो संघ से लेकर संगठन तक में विद्रोह और बगावत का कितना भयानक ज्वालामुखी सुगल उठा होता इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। लेकिन किसी दूसरे के कुछ बोलने की बात तो दूर रही अलबत्ता जिनका टिकट कटा है और जिन्हें किनारे लगाया गया है वे भी अपना विरोध दर्ज नहीं करवा पा रहा हैं तो इसकी इकलौती वजह यही है कि इन मामलों में मोदी-शाह की कोई भूमिका ही नहीं है। 

 

 



 



 



 















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