देश एक बार फिर सूखे की चपेट में है। सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएं भारत का भविष्य निर्धारित करती है। पानी की कमी के कारण फसलें वर्षा पर आधारित है। ऐसे में इंडिया स्पेंड की सूखे पर रिपोर्ट पर गौर करें तो भयावह तस्वीर देखने को मिलती है। इस साल गर्मी ने अभी से रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया है। उत्तर भारत के अनेक क्षेत्रों में मई और जून की गर्मी अप्रैल में ही सताने लगी है। रिपोर्ट के अनुसार देश का 42 प्रतिशत भाग इस समय सूखे की चपेट में है। इसमें से 60 प्रतिशत हिस्सा तो कई सालों से सूखे की मार झेल रहा है। यह साल चुनावी साल है सरकार चुनावों से घिरी है। राजनीतिक दल भी चुनावों में व्यस्त हो रहे है। ऐसे में खेत खलिहान का तो राम ही रखवाला है। यहाँ तो राम ने भी मुंह फेर लिया है ऐसे में किसानों की पुकार सुनने वाला कोई नहीं है। राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी घोषणा पत्रों में किसानों के बहबूदी पर जोर शोर से चर्चा कर रहे है मगर सूखे के आसन्न संकट से निपटने को कोई तैयार नहीं है। यदि समय रहते सूखे का मुकाबला नहीं किया गया और प्रभावितों के रोजगार की व्यवस्था नहीं की गई तो स्थिति अधिक भयावह हो सकती है जिसकी अंदाजा लगाना मुश्किल है।
सूखे की सबसे ज्यादा मार राजस्थान, आंध्रा ,बिहार,गुजरात ,तेलंगाना, महाराष्ट्र और तमिलनाडु सहित उत्तर पूर्व के राज्यों को झेलनी पड़ रही है। इन राज्यों में देश की 40 प्रतिशत आबादी निवास करती है। हालाँकि कुछ प्रदेशों में वहां की सरकारों ने सूखा क्षेत्र अवश्य घोषित किया है मगर जो राहत कार्य होने चाहिए उनकी शुरुआत अब तक नहीं हो पायी है। इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार मानसून के पूर्व के तीन चार महीनों में स्थिति अधिक खराब होने की संभावनाए है जिसका तौड़ सरकार ने अभी तक नहीं निकाला है। वर्षा काम होने के कारण धरती में पानी की कमी हो रही है जिससे पेयजल के साथ सिंचाई के साधन भी प्रभावित हो रहे है। आने वाले दिनों में पीने के पानी की कमी से भी आम जन को जूझना पड़ सकता है।
भारत में सूखा एक स्थायी आपदा है जो हर साल 5 करोड़ भारतीयों को प्रभावित करता है। देश का 33 प्रतिशत हिस्सा लंबे समय से सूखे से प्रभावित है जबकि 68 प्रतिशत हिस्सा सूखाग्रस्त है। बताया जाता है 1997 के बाद से देश के सूखाग्रस्त क्षेत्र में 57 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जो बेहद चिंता जनक है। जब किसी क्षेत्र में वर्षा कम होती है या नहीं होती है तो इसे सूखा या अकाल कहा जाता है। इसके अलावा अन्य कारको में उच्च तापमान, तीव्र हवाएं, सापेक्षिक आद्रता, शुष्क वनस्पति, निम्न सरिता प्रवाह, मृदा में नदी का कम होना तथा जनसंख्या का प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा से अधिक होना आदि है। वर्षा की अनियमितता भी सूखा को उत्पन्न करने में योगदान देती है। सूखे के कारण प्रभावित क्षेत्र की कृषि एवं वहाँ के पर्यावरण पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था डगमगा जाती है। देश के अनेक क्षेत्रों में फिर से एक बार सूखे के दिन हैं। इसमें नया कुछ भी नहीं है। हर साल हम सूखे से जूझते हैं। इसका एकमात्र कारण मानसून है। मानसून अच्छा हो तो फसल लहलहाने लगेगी और मानसून गड़बड़ाया तो सूखे की मार झेलनी पड़ेगी।
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार यदि किसी क्षेत्र में सामान्य वर्षा यथार्थ वर्षा से 75 प्रतिशत कम होती है तो सूखा की स्थिति उत्पन्न होती है। मौसम विभाग ने सम्पूर्ण देश में सूखे की स्थिति का आकलन किया है। भारत की औसत भारित वर्षा 88 से0मी0 है। इसे भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा कहा जाता है। जब यथार्थ वर्षा औसत भारित वर्षा से 10 प्रतिशत कम हो तथा 20 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र प्रभावित हो तो सम्पूर्ण क्षेत्र में सूखे की स्थिति मानी जाती है।
भारत में सूखे के फलस्वरूप किसानों की आत्महत्या आम बात है। कर्जे के बोझ से परेशान और दुखी किसान सूखे की मार का शिकार हो जाता है। भारत में हर साल हजारों किसान इस अनहोनी के शिकार हो जाते है जिस पर अब तक कोई नियंत्रण नहीं पाया जा सका है।
मौसम के विषय में जानकारी मुहैया कराने वाली कंपनी स्काईमेट ने इस वर्ष मानसून के सामान्य से नीचे रहने का अनुमान लगाया है। एजेंसी के मुताबिक इस वर्ष जून से लेकर सितंबर के बीच मानसून सामान्य से नीचे रह सकता है। स्काइमेट के पूर्वानुमान के अनुसार, वर्ष 2019 में जून से सितंबर के चार माह के मानसून सीजन में दीर्घावधि औसत बारिश 93 फीसदी होने का अनुमान है। सूखा पड़ने की संभावना 15 फीसदी है, जबकि अत्यधिक बारिश की कोई संभावना नहीं है।