दिग्गी के दांव का असर






देश के सबसे चर्चित लोकसभा सीटों में शुमार होनेवाली मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की लोकसभा सीट का समीकरण वाकई बेहद दिलचस्प हो गया है। हालांकि यह भाजपा की परंपरागत सीट है जिस पर वर्ष 1984 में आखिरी बार कांग्रेस को जीत नसीब हुई थी। उसके बाद से कांग्रेस के लिये यह सीट जीत पाना कभी संभव नहीं हो सका। लेकिन इस तथ्य के बावजूद कांग्रेस ने इस बार दस साल तक लगातार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे सूबे के अपने सबसे वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को मैदान में उतार कर ऐसा दांव चल दिया है जिसकी समुचित काट तलाश पाना भाजपा के लिये बेहद मुश्किल हो रहा है। दिग्विजय के मुकाबले अपने उम्मीदवार का नाम तय करने को लेकर भाजपा में भारी पसोपेश की स्थिति दिख रही है और पार्टी यह तय ही नहीं कर पा रही है कि सूबे में दिग्गी राजा के कद की बराबरी करने में सक्षम पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान को मैदान में उतारा जाये या फिर किसी नए चेहरे को आगे करके यह दर्शाने की कोशिश की जाए कि मौजूदा वक्त में ना सिर्फ दिग्विजय बल्कि कांग्रेस की भी इतनी मजबूत हैसियत नहीं है कि उससे पार पाने के लिये शिवराज सरीखे बड़े कद के नेता को चुनावी मैदान में उतारने के लिये मजबूर होना पड़े। स्थिति यह है कि अगर भाजपा शिवराज को मैदान में उतारती है तो इससे दिग्विजय को भोपाल भेजकर कांग्रेस ने जो जाल बिछाया है उसमें वह सीधे तौर पर फंस जाएगी और अगर किसी नए चेहरे को आगे करने का फैसला किया जाता है तो भोपाल की परंपरागत सीट पर अपना कब्जा बरकरार रख पाना पार्टी के लिये मुश्किल साबित हो सकता है। दरअसल पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनाव में कांटे की कड़ी टक्कर के बीच कांग्रेस को बेशक कुछ सीटों की बढ़त हासिल करके मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बनाने का मौका मिल गया हो लेकिन लोकसभा चुनाव में जमीनी तौर पर कांग्रेस के लिये चुनौती बदस्तूर बरकरार है। बल्कि लोकसभा चुनाव में भी भाजपा पर बढ़त कायम करके कांग्रेस के लिये यह दिखाना बेहद आवश्यक हो गया है कि विधानसभा में उसे हासिल हुई जीत किसी तुक्के का परिणाम नहीं थी। इसी चुनौती का हल तलाशते हुए कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को भोपाल से उतार कर भाजपा को ऐसी दुविधा में डाल दिया है जिसमें अगर पार्टी दिग्गी राजा के खिलाफ मजबूत घेराबंदी करने की पहल करती है तो उसके नतीजे में पूरे सूबे में यह संदेश जाएगा कि कांग्रेस की जमीनी मजबूती से भाजपा डर गई है। ऐसे में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का जोश आसमान पर पहुंचना तय है जिससे भोपाल की सीट बेशक गंवानी पड़े लेकिन समूचे सूबे में कांग्रेस की स्थिति काफी मजबूत हो जाएगी। स्थिति यह है कि अगर भाजपा ने भोपाल के निवर्तमान सांसद आलोक संजर को भी दोबारा टिकट दिया तो वह फैसला भी कांग्रेस के पक्ष में ही जाएगा क्योंकि अव्वल तो संजग के खिलाफ जमीनी स्तर पर भारी नाराजगी का माहौल बताया जा रहा है और दूसरे पिछले चुनाव में मोदी लहर में जीते संजर के लिये दिग्गी के सामने टिक पाना निहायत ही मुश्किल है। हालांकि पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय से लेकर आभास प्रमुख धनराज गिरी के अलावा दिग्विजय द्वारा छोड़े गए भगवा आतंकवाद के सुर्रे का शिकार हो चुकीं साध्वी प्रज्ञा ठाकुर तक के नाम पर भाजपा में चर्चा अवश्य चल रही है लेकिन अंतिम तौर पर कोई ऐसा नाम तय कर पाना पार्टी के लिये अभी तक संभव नहीं हो पाया है जो भोपाल का गढ़ भी सुरक्षित रख सके और उसको आगे करने पर ऐसा भी ना लगे कि दिग्गी को अधिक महत्व दिया जा रहा है। हालांकि दिग्विजय को भोपाल से उतारे जाने को भी जानकार कांग्रेस की अंदरूनी उठापटक से जोड़कर ही देख रहे हैं। भोपाल के बारे में कहा जा रहा है कि यह सीट दिग्विजय को रास नहीं आ रही थी। वे अपने परंपरागत राघोगढ़ से ही चुनाव लड़ना चाह रहे थे। लेकिन उनके विरोधियों ने उन्हें यह कह कर चने की झाड़ पर चढ़ा दिया कि चुंकि वे बड़े कद के नेता हैं लिहाजा उन्हें अपनी छवि के मुताबिक कठिन लेकर बड़ी चर्चा में आने लायक सीट से चुनाव लड़ना चाहिये ताकि कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़े और उनकी शख्सियत का पार्टी को फायदा भी मिले। यही सब कह सुन कर उनके तमाम कथित मित्रों ने उन्हें भोपाल से लड़ने के लिये सहमत कर लिया। मकसद साफ था कि अव्वल तो दिग्गी राजा इसी चुनाव में पूरी तरह निपट जाएं और गलती से जीत भी जाएं तो उनके भोपाल से लड़ने की बात को सूबाई से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक भुनाया जाए। तभी तो दिग्गी को आगे करने के बाद कांग्रेस ने शिवराज को चुनौती देने में देर नहीं की। लेकिन भाजपा के लिये इस सबसे असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई है। अब अगर शिवराज को उतारा जाता है तो भाजपा को उनकी जीत से भी नुकसान है और हार से भी। अगर शिवराज जीत गए तो दिग्गी राजा का सार्वजनिक जीवन समाप्त हो जाएगा जिनकी कथनी और करनी को भुनाकर भाजपा अब तक देश व मध्य प्रदेश में मतदाताओं की सहानुभूति बटोरती आ रही है। दूसरी ओर अगर दिग्गी की जीत हो गई और शिवराज हार गए तो प्रदेश की राजनति में इसका दूरगामी परिणाम होगा क्योंकि शिवराज की विधानसभा के बाद लोकसभा की हार कांग्रेस को पूरी तरह सूबे में स्थापित कर देगी और प्रदेश में भाजपा के कार्यकर्ताओं व समर्थकों के मनोबल पर इसका भारी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इन्ही तमाम समीकरणों को तौलते हुए भाजपा कतई जल्दबाजी में कोई फैसला करने के पक्ष में नहीं दिख रही है। भाजपा की कोशिश है कि इस पूरे मामले में सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। यानि भोपाल की सीट पर से कब्जा भी ना छूटे और दिग्विजय की इतनी बड़ी हार भी ना हो कि उनका राजनीतिक कैरियर ही समाप्त हो जाए। साथ ही भाजपा ऐसा कोई फैसला भी नहीं करना चाहेगी जिससे यह लगे कि वह कांग्रेस के बिछाए जाल में उलझ कर रह गई है। ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भोपाल को लेकर जारी भ्रम, संशय, उहापोह व असमंजस की स्थिति कब और कैसे दूर होती है।