गुड़ जैसी बातें तो करो






कहते हैं कि बनिया गुड़ ना भी दे मगर गुड़ जैसी बातें ही करता रहे तो उसके प्रति ग्राहकों का स्नेह, समर्थन और विश्वास बना रहता है। लेकिन गुड़ भी ना दे और नीम जैसी कड़वी बातें भी सुनाए अथवा गुड़ तो दे मगर गुड़ देने के साथ ही हिकारत और जलालत से भरी खरी-खोटी सुना दे तो ऐसे बनिये के पास नकद वाला तो दूर की बात रही यहां तक कि उधार लेने वाला ग्राहक भी जाने से कतराता है। यह बात जीवन के हर पहलू पर लागू होती है। यहां तक कि सियासत में भी। तभी तो सियासत के लिये संयमित व स्नेह सिक्त भाषा को आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य माना गया है। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह की बातें देश के व्यापारी वर्ग के लिये कही हैं वह ना सिर्फ अपमानजनक बल्कि निंदनीय भी है। राहुल गांधी ने कथित तौर पर कांग्रेस की न्याय योजना के लिये ‘चोर व्यापारियों’ से धन जुटाने की बात कही है। उनकी इस बात से व्यापारी वर्ग का आहत व अपमानित महसूस करना स्वाभाविक ही है। उसमें करेले पर नीम की बात यह रही कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में व्यापारियों के लिये गिनी-चुनी तीन बातें ही कही गई हैं और वह भी ऐसी जिसे लागू कर पाना संभव ही नहीं है। मसलन कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा है कि जीएसटी के वर्तमान स्वरुप को बदल कर वह नया जीएसटी कानून लाएगी जिसमें सभी वस्तुओं पर कर की दर एक समान होगी। कांग्रेस ने यह भी कहा है कि ई-वे बिल को समाप्त किया जाएगा तथा नया व्यापार शुरू करने वाले लोगों को पहले तीन वर्ष तक कोई इजाजत लेने की जरूरत नहीं होगी। यहां प्रश्न उठता है कि वर्तमान जीएसटी कर प्रणाली जीएसटी कॉउन्सिल ने तय की है जिसमें कांग्रेस शासित राज्यों के वित्त मंत्री भी शामिल हैं और अब जब यह एक स्थायी कर प्रणाली का रूप लेने जा रही है ऐसे में कोई दूसरी नई कर प्रणाली लाना इतने बड़े देश में आसान है क्या? भारत विविधताओं का देश है और विभिन्न वर्गों के लोग यहां रहते हैं। ऐसे में यदि सभी वस्तुओं पर एक कर लगता है तो निम्न वर्ग अथवा अमीर वर्ग सबको एक समान कर ही देना पड़ेगा जो अपने आप में एक बड़ी विसंगति होगी। निम्न आय वाले व्यक्तियों द्वारा उपयोग में लाई जा रही वस्तुओं पर कर की दर कम हो और संपन्न वर्ग द्वारा उपयोग में लाइ जा रही वस्तुओं की दर अधिक हो, यह आदर्श कर प्रणाली है। उधर दूसरी ओर अंतर्राज्यीय व्यापार में यदि ई-वे बिल को समाप्त कर दिया जाता है तो दो या उससे अधिक राज्यों के बीच होने वाले अवैध व्यापार को कैसे रोका जायेगा, यह बड़ा सवाल है। इसके साथ ही व्यापार में अनेक प्रकार के केंद्र एवं राज्य सरकार के कानून हैं जिनके अंतर्गत व्यापार करते समय लाइसेंस अथवा इजाजत लेना आवश्यक है। इजाजत न लेने की चुनावी घोषणा का मतलब समझना बेहद ही मुश्किल है। वैसे भी कारोबार करने के लिये जिन तकरीबन सवा दर्जन प्रकार के लाईसेंस व इजाजत की जरूरत होती है उसमें कुछ केन्द्र द्वारा दी जाती है और कुछ राज्य द्वारा। अगर केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनती है और यह मान भी लिया जाए कि वह नियमों में ढ़ील देने के वायदे को पूरा करेगी तो इसके लिये उसे तमाम नियमों में संशोधन के लिये संसद से कानून पारित कराना होगा। उसके बाद भी सरकारी अनुमति की आवश्यकता तब तक बनी रहेगी जब तक राज्य सरकारें भी केन्द की नीति का अनुसरण ना करें। और अगर केन्द्र व राज्य दोनों ही इस योजना को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ती हैं तो ग्राहकों का हित प्रभावित होगा क्योंकि तमाम इजाजत की जरूरत सुरक्षा और उपभोक्ताओं के हितों से जुड़ी हुई है। बड़ा सवाल तो यही है कि क्या सरकार पहले उन सभी केंद्रीय कानूनों को बदलेगी और क्या राज्य सरकारें कांग्रेस के कहने पर अपने कानून बदलेंगी। यानि समग्रता में समझें तो कांग्रेस ने व्यापारी वर्ग को झुनझुना थमाने का ही काम किया है और उन्हें बहलाने और बरगलाने की ही कोशिश की है। वह भी तब जबकि देश के व्यापारी वर्ग को किसी भी मायने में कतई हल्के में नहीं लिया जा सकता है। तकरीबन 42 लाख करोड़ का सालाना कारोबार करनेवाले व्यापारी वर्ग का देश के सकल घरेलू आय में 45 फीसदी का योगदान रहता है। कृषि के बाद सबसे अधिक रोजगार सृजित करने वाले और देश के 30 करोड़ लोगों को रोजगार देनेवाले तकरीबन सात करोड़ व्यापारियों के बारे में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया है और कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में जिस तरह से हवा-हवाई बातें की हैं उससे तो यही लगता है कि व्यापारी वर्ग के लिये ना तो गुड़ जैसी मीठी बातें कहना जरूरी समझा गया है और ना ही उन्हें ठोस तरीके से उनके मसलों को सुलझाने व उनकी मांगों को पूरा करने का गुड़ देना आवश्यक महसूस किया गया है। अव्वल तो कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में व्यापारियों को केवल तीन मुद्दों तक ही सीमित रखा गया है और उन तीन मुद्दों पर किये गये वायदे भी इस कदर अर्थहीन एवं तर्कहीन हैं जो कभी पूरे नहीं हो सकते हैं। इसके अलावा व्यापारियों के लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल आज तक किसी भी राजनेता ने कभी नहीं किया। उल्टा व्यापारियों को अपने पाले में खींचने के लिये हमेशा ही सभी राजनीतिक दल लालायित रहे हैं। सिफ इस लिये नहीं क्योंकि व्यापारियों की समाज में हिस्सेदारी बड़ी है बल्कि इस लिये क्योंकि समाज की सोच और मतदाताओं के विचारों पर व्यापारी वर्ग का बड़ा व गहरा असर पड़ता है। लेकिन राहुल ने न्याय योजना को लागू करने के लिये आवश्यक धन का इंतजाम कथित तौर पर ‘चोर व्यापारियों’ से वसूली करके करने की जो बात कही है और इस मसले पर जिन शब्दों का इस्तेमाल किया है वह बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण व निंदनीय ही कहा जाएगा जिसका आने वाले चुनावों में कांग्रेस को भारी कीमत भी चुकानी पड़ जाए तो किसी को कतई आश्चर्य नहीं होना चाहिये।