भारत चीन रिश्तों के नए आयाम






इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अगर चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपना अड़ियल रूख बरकरार रखा होता और पाकिस्तान के हितों की रक्षा के लिये जैश सरगना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकियों की सूची में शामिल किये जाने के प्रस्ताव का परंपरागत तौर पर विरोध जारी रखा होता तो आज भारत को आतंक के साथ जारी निर्णायक लड़ाई में जो बड़ी सफलता हासिल हुई उसमें दिक्कतों का सिलसिला आगे भी जारी रह सकता था। हालांकि चीन ने मसूद के मसले पर लाए गए प्रस्ताव को पारित होने से रोकने के लिये इस बार क्यों हस्तक्षेप नहीं किया और क्यों इस मसले से उसने खुद को अलग कर लिया इसको लेकर अलग से विस्तृत बहस हो सकती है और इसके पीछे छिपे तमाम सकारात्मक व नकारात्मक कारणों को गिनाया जा सकता है। लेकिन इसका एक आयाम तो यह अवश्य ही है कि अब चीन की भारत को लेकर नीति भी बदल रही है और सोच भी। अब तक भारत को अपनी बराबर का समझने में जिस चीन को हेठी महसूस होती थी वही अब भारत की भावनाओं के साथ खिलवाड़ की परंपरा का परित्याग करके हमारी संप्रभुता का सम्मान करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इसी का नतीजा है कि बीते दिनों चीन ने भारत के उस नक्शे को स्वीकार्यता दी जिसमें हमारी उस जमीन को पूरी तरह हमारा दर्शाया गया है जिस पर चीन बेवजह दावेदारी जता कर सरहद पर तनाव का माहौल बनाता आ रहा था। इसके अलावा बीते सप्ताह बीजिंग में आयोजित हुई चीन की बेहद खर्चीली व महात्वाकांक्षी 'वन बेल्ट वन रोड' परियोजना के तहत दूसरी बेल्ट एंड फोरम इनिशिएटिव की बैठक में शिरकत करने के लिये आए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को जिस तरह से वहां औकात बताते हुए जलील किया गया और इससे इतर भारत के साथ शीर्ष स्तर की शिखर वार्ता की जरूरत पर बल दिया गया उससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि चीन ने अब तक भारत और पाक को एक बराबर का समझने के अपने नजरिये में बदलाव करना आरंभ कर दिया है। उसे बेहतर महसूस हो चला है कि मौजूदा वक्त में हर स्तर पर भारत कितना आगे निकल चुका है और पाकिस्तान किस कदर रसातल की ओर अग्रसर है। वैसे भी पाकिस्तान ने चीन का अब तक दोहन ही किया है जबकि भारत के साथ चीन के बराबरी और साझेदारी के ही रिश्ते रहे हैं। चाहे वह आर्थिक संबंध हों या सैद्धांतिक, वैचारिक, व्यावहारिक या सांस्कृतिक। हर मामले में भारत ने चीन के साथ एक बराबरी का रिश्ता कायम करने की दिशा में ही पहलकदमी की है। ना तो कभी भारत ने चीन से कोई विशेष लाभ लेने की कोशिश की है और ना ही उसके लिये किसी भी स्तर पर आगे बढ़कर कोई समस्या उत्पन्न करने की पहल की है। वह तो चीन ही था जो अपनी विस्तारवादी नीति व प्रभुत्ववादी फितरत के तहत भारत को बेवजह आंखें दिखाता रहता था और भारत के हितों और नीतियों के आड़े आता रहता था। लेकिन अब अगर चीन को भारत के साथ अपने रिश्ते सुधारने और आपसी रिश्तों में समभाव के साथ विश्वास को प्रगाढ़ करने की जरूरत महसूस हो रही है तो निश्चित ही यह स्वागत योग्य है। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि चीन के रूख में आई यह नरमी भी उसके अपने स्वार्थों के कारण ही है और वह अपनी वन बेल्ट वन रोड परियोजना को कामयाब बनाने के लिये भारत को इस पहल के साथ जोड़ने के लिये आकुल व्याकुल है। लेकिन भारत को भी अगर अपने हितों को प्रथामिकता देते हुए चीन के साथ किसी साझेदारी की राह पर आगे बढ़ने में कोई नुकसान ना हो तो इस पर विचार करने में कोई हर्ज नहीं है। खास तौर से जिस वन बेल्ट वन रोड परियोजना की बात है तो उसको लेकर भारत की मुख्य आपत्ति यही है कि अव्वल तो चीन ने यह जानते हुए भी इस परियोजना को गुलाम कश्मीर के उस हिस्से से गुजारने के लिये पाकिस्तान के साथ समझौता किया है जिस जमीन का मालिकाना हक स्पष्ट तौर पर भारत के पास है। लेकिन परियोजना से भारत के अलग रहने के बाद भी इस पर काम तो चल ही रहा है। लिहाजा ऐसी सूरत निकालने का विचार क्यों नहीं किया जा सकता कि गुलाम कश्मीर से होकर गुजरनेवाले इस परियोजना के हिस्से को लेकर चीन को सममत किया जाए कि वह भारत के साथ इसके लिये समझौता करे और यह सुनिश्चित करे कि परियोजना के उस हिस्से की रक्षा, सुरक्षा और संरक्षा भारत द्वारा ही की जाएगी और उसमें पाकिस्तान या किसी अन्य मुल्क का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। वैसे भी बीते दिनों बीजिंग में हुई दूसरी बेल्ट एंड फोरम इनिशिएटिव की बैठक में 36 देशों के प्रमुखों ने भाग लिया। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सहित लगभग 90 संगठनों के 5000 से अधिक प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया, जिसमें, मीडिया, अकादमिक, कॉर्पोरेट सहित अन्य क्षेत्रों के लोग शामिल थे। इस बैठक में इन्डोनेशिया को छोड़कर सभी दक्षिण-पूर्व के देश शामिल हुए। इसी तरह तुर्कमेनिस्तान को छोड़कर सभी मध्य एशियाई देश, 8 दक्षिण एशियाई देशों में 2 देश, पूर्व एशिया से मंगोलिया, पश्चिम एशिया से यूएई, रूस और अज़रबैजान समेत 12 यूरोपीय देश, 5 अफ्रीकी देश और एक लैटिन अमरीकी देश चिली इस बैठक में उपस्थित रहे। तीन दिवसीय सम्मेलन के बाद एक संयुक्त घोषणा पत्र जारी किया गया जिसमें कहा गया कि हम सभी देशों की संप्रभुता और उसके राष्ट्रीय एकीकरण का सम्मान करते हैं और यह प्रतिबद्धता जताई गई कि सभी देशों को अपने नियमों और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप अपनी विकास योजनाओं को परिभाषित करने की प्राथमिक जिम्मेदारी और उसका अधिकार है। इस प्रस्ताव को अगर वाकई गंभीरता से लागू किया जाता है और इस परियोजना में भारत के हितों को उच्च वरीयता देते हुए पाकिस्तान को प्रथमिकता देने की नीति में बदलाव किया जाता है तो इस मामले में आगे की बातचीत का सिलसिला आरंभ करने की दिशा में तो पहलकदमी की ही जा सकती है। वैसे भी रूस के इस परियोजना से जुड़ने के बाद अगर इसी बहाने चीन और भारत के रिश्ते भी आपसी विश्वास और भरोसे के साथ आगे बढ़ते हैं तो चीन, रूस और भारत की संयुक्त ताकत समूचे विश्व को अपने इशारों पर नचाने में आसानी से कामयाब हो सकती है। लेकिन यह राह बड़ी खतरनाक भी हो सकती है क्योंकि चीन की रीति, नीति और फितरत पर आंखें मूद कर भरोसा करने का खामियाजा पहले भी कई देश भुगत चुके हैं जिसमें भारत भी शामिल है। लिहाजा इस दिशा में जो भी करना है वह बेहद सोच समझ कर और अपने हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए बराबरी के स्तर पर ही किया जाना बेहतर होगा।