(आर.के. सिन्हा)
बिहार की बेगूसराय सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कन्हैया कुमार की भाजपा के कद्दावर नेता गिरिराज सिंह के हाथों चार लाख मतों से करारी हार से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आत्मा अवश्य ही प्रसन्न हुई होगी। दिनकर जी इसी बेगूसराय की धरती से थे। उसी बेगूसराय की जनता ने कम्युनिष्ट कन्हैया को धूल में मिला कर रख दिया है। वो मोदी लहर में बह कर बंगाल की खाड़ी में जा गिरे। उनकी हार से यह संकेत साफ है कि देश अब गाली-गलौज करने वालों को संसद में भेजने के मूड में नहीं है। देश उन्हें भी स्वीकार नहीं करेगा जो देश की सेना पर कश्मीर में बलात्कार करने के मिथ्या आरोप लगाएंगे और देश के टुकड़े करने के नारे लगायेंगें।
कन्हैया की कैंपन को गति देने के लिए उनके जे.येन.यू. वाले टुकड़े-टुकड़े गैंग के मित्र सारे देश से बेगूसराय में डेरा डाले हुए थे। कन्हैया के लिए प्रगतिशील राजनीति करने वाले वामपंथी धड़ों के दर्जनों दिग्गज बेगूसराय पहुंचे और डेरा डाले रहे, पर बात नहीं बनी। जावेद अख्तर भी बेगूसराय गए थे। ये भी लगता है कि कन्हैया का मोदी पर हल्ला बोलना बेगूसराय की स्वाभिमानी देशभक्त जनता को तनिक भी पसंद नहीं आया। यह सब सोशल मीडिया पर भी इस तरह का वातावरण बना रहे थे कि मानो भारतीय सेना को बलात्कारी कहने वाला कन्हैया कुमार ने भाजपा के गिरिराज सिंह को हरा ही दिया हो।
नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपशब्दों की बौछार करने वाले कन्हैया के कारण बेगूसराय पर सारे देश की निगाहें तो जरूर थीं। पर गिरिराज सिंह शुरू से ही कह रहे थे कि वे बेगूसराय में जीत दर्ज करेंगे। हालांकि शुरू में वे इधर से लड़ने के मूड में नहीं थे। उन्हें इसका भी मलाल था कि उनसे बिना पूछे उनकी लोकसभा सीट क्यों बदल दी गई। वे इसे बिहार के सुशिल मोदी गैंग का षडयंत्र मान रहे थे । लेकिन, अब ये बातें इतिहास का हिस्सा बन चुकी हैं। बेगूसराय में आरजेडी के तनवीर हसन भी मैदान में थे। वे भी कद्दावर अल्पसंख्यक नेता हैं । पर मोदी के कद और काम के आगे सब पानी भरते नजर आए।
बेगूसराय की धमाकेदार फतेह करने से गिरिराज सिंह का कद तो निश्चित ही बढ़ेगा। वे 2002 में पहली बार बिहार विधान परिषद के सदस्य (एमएलसी) बने थे। वे 2008 से 2013 के बीच बिहार की नीतीश कुमार सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। भाजपा ने आगे 2014 में उन्हें बिहार के नवादा से लोकसभा चुनाव में उतरा। 2014 में भी वे लड़ना बेगुसराय से ही चाहते थे पर उन्हें नवादा भेज दिया गया था । पर उन्होंने वहां भी जीत दर्ज की। साल 2014 में जब सांसद बनकर आये तब गिरिराज सिंह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब दो साल बाद राज्य मंत्री बना दिया। बाद में जब कैबिनेट मंत्री कलराज मिश्र कैबिनेट से बढती उम्र के कारण हटाये गए तब गिरिराज जी को स्वतंत्र प्रभार का मंत्री बनाया गया जो एक तरह से कैबिनेट मंत्री के बराबर का दर्जा है ।
पर बात तो कन्हैया कुमार की हार के कारणों पर हो रही है। कन्हैया भारतीय सेना को बार-बार बलात्कारी कहता रहा। उसने न जाने कितनी बार कहा कि भारतीय सेना कश्मीर में बलात्कारों में लिप्त है। बाकी किसी को जिताओ, जनता ने भी शायद यह तय ही कर लिया की कोई जीते एतराज नहीं, पर वतन के रखवालों के खिलाफ़ शर्मनाक बयानबाजी करने वाले कन्हैया को जिताना लोकतान्त्रिक अपराध होगा।
भारतीय सेना पर कश्मीर में रेप जैसा जघन्य आरोप लगाने वाले कन्हैया कुमार के आरोप को देखने के लिए आप यू ट्यूब का सहारा ले सकते हैं। यानी वह यह तो कभी कह ही नहीं सकता कि उसने भारतीय सेना पर कभी इतना गंभीर आरोप नहीं लगाये। उससे पूछा जाना चाहिए कि वह किस आधार पर सरहदों की निगाहबानी करने वाली भारतीय सेना पर आरोप लगा रहा है? उसके पास अपने आरोपों को साबित करने के किस तरह के पुख्ता प्रमाण हैं? कन्हैया भले ही चुनाव हार गया पर अब भी उसे देश को तो बताना ही होगा कि उसने भारतीय सेना पर कश्मीर में बलात्कार करने संबंधी आरोप किस आधार पर लगाए थे? भारतीय सेना पर मिथ्या आरोप लगाने वाले कन्हैया ने सेना पर आरोप तो लगा दिए पर उसे तब सेना का अदम्य साहस और कर्तव्य परायणता दिखाई नहीं दी जब सेना ने जान पर खेलकर कश्मीर से लेकर केरल में बाढ़ से त्राहि-त्राहि करती जनता को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया था और बाढ़ पीड़ितों के जानमाल की रक्षा की थी ।
कन्हैया कुमार आज देश को तोड़ने वाली मानसिकता और विचारधारा के प्रतीक बन चुके हैं। वो जब जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष थे, उस दौरान वहां पर उन्हीं के नेतृत्व में संसद हमले के गुनाहगार अफजल का जन्मदिन मनाया जा रहा था। यह दुखद है कि कन्हैया को “लिट फेस्टिवलों” में भी भारतीय सेना को बुरा-भला कहने का मंच मिलने लगा था। उसे “लिट फेस्टिवलों” में बुलाया जा रहा था। लखनऊ लिट फेस्टिवल में कन्हैया कुमार को वक्ता के रूप में बुलाया गया था। तब उनके वहां वक्ता के रूप में बुलाए जाने पर कसकर हंगामा भी हुआ था और वहां ''कन्हैया कुमार वापस जाओ''के नारे भी लगाए गए थे। पर वामपंथी आयोजकों की कृपा इस राष्ट्रद्रोही को महिमामंडित करती ही रही।
कन्हैया कुमार ने 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में भड़के दिल-दहलाने वाले सिख विरोधी दंगों के लिए कांग्रेस को क्लीन चिट दे दी थी। ये दंगे कम और दिन-दहाड़े नर संहार ज्यादा था। एक बार राहुल गांधी से मिलने के बाद कन्हैया कुमार यह कहने लगे थे कि 1984 के दंगे भीड़ के उन्माद के कारण ही भड़के। वे एक तरह से कांग्रेस को प्रमाणपत्र दे रहे हैं कि उसकी 1984 के दंगों में कांग्रेसियों की कोई भूमिका ही नहीं थी। क्या कांग्रेस के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को 1984 के दंगों को भड़काने में उम्र कैद होने के बाद भी वे यही कहते रहे कि उस भयावह दंगों में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी? सज्जन कुमार के अलावा और भी कई कांग्रेसियों पर 1984 के दंगे भड़काने के आरोप सिद्ध हो चुके हैं। ये सभी दिल्ली की मंडोली जेल में जीवनभर रहने वाले हैं। आरोप तो कमलनाथ पर भी हैं पर उन्हें तो राहुल गाँधी ने अपनी बेशर्मी का हद पार करके मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री ही बना दिया है।
कन्हैया लगभग सवा चार लाख मतों से मात खा गए हैं। अब उन्हें जनता के बीच में आने में शर्म भी आनी चाहिए। उन्हें अब समझ में अच्छी तरह से आ जाना चाहिए कि यह देश सब कुछ स्वीकार कर सकता है पर राष्ट्रीयता के सवाल पर किसी भी तरह का समझौता मुमकिन है ही नहीं। उन्होंने बेगूसराय के मतदाताओं का भी अपमान किया, उन तत्वों को वहां पर ले जाकर जो उधर भी नारे लगा रहे थे ' लेके रहेंगे आजादी।' इन सिरफिरे लोगों को यह पता नहीं है कि बिहार की जनता के खून में राष्ट्र भक्ति कूट-कूट कर भरी हुई है। बिहारी जनता देश तोड़ने वालों को कभी भी स्वीकार नहीं करती, किसी भी कीमत पर।
(लेखक राज्य सभा सांसद हैं)