(डॉ कामिनी वर्मा)
जीव और पर्यावरण का अन्योन्याश्रित संबंध सृष्टि के आरम्भ से ही रहा है। पर्यावरण से इतर मानव जीवन की कल्पना भी नामुमकिन है। वह हर पल पर्यावरण से आवृत्त है । चतुर्दिक पर्यावरण से घिरा वह पर्यावरण से प्रभावित भी होता है । और अपने कार्य व्यवहार से उसपर अपना प्रभाव भी डालता है। दोनो एक दूसरे के निर्माता और विकृतकर्ता हैं। यह क्रम एक सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत चलता रहता है। जिसकी तरफ सामान्यतः हमारा ध्यान ही नही जाता है। परंतु जब अकाल , भूकम्प, अतिवृष्टि,अनावृष्टि, तूफान, भूस्खलन जैसी घटनाएं सामने आती है तब हमारा ध्यान पर्यावरण संरक्षण की ओर जाता है।
मानव जीवन को पुष्पित, पुल्लवित व आनंददायी बनाने के लिए प्रकृति ने उसे जन्म से ही निशुल्क उपहार में सभी संसाधन उपलब्ध कराए हैं! जब तक प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का सीमित मात्रा में उपभोग हुआ तब तक पर्यावरण संतुलित रहा। परंतु औद्योगिक क्रांति, जनसंख्या ,विस्फोट, शहरीकरण और विकास के कारण मनुष्य द्वारा भूमि, जल, वायु और प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक दोहन किये जाने के कारण प्राकृतिक असुंतलन का प्रभाव न सिर्फ उसपर पड़ रहा है बल्कि पेड़, पौधे , पशु पक्षी तथा अन्य जीवधारियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर आ गयी है । औद्योगिक इकाईयों के अपशिष्ट पदार्थ, धूल, रासायनिक, द्रव्य, गैस, धुआं, रेडिशन, उर्वरकों ने जल और वायु को गंभीर रूप से प्रदूषित किया है। जिससे मनुष्य शारीरिक और मानसिक दोनो प्रकार के रोगों से ग्रसित हो रहा है। अतः आज के भौतिकवादी समय मे हमारे सामने पर्यावरण में संतुलन स्थापित करना चिंतनीय विमर्श है। प्रकृति की क्षमता और भूसंपदा सीमित है , परन्तु मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रवृतियां अनन्त हैं, इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाकर स्वस्थ और संतुलित पर्यावरण का निर्माण किया जा सकता है। हिंदुस्तान में मानव जीवन का वनस्पतियों के साथ उल्लासपूर्ण सहअस्तित्व आदिम काल से ही रहा है! वैदिक काल मे मनीषी प्रकृति के उपासक थे। गीता में कृष्ण में स्वयं को सभी वृक्षों में 'अश्वत्थ ' कहते है। महाभारत में वृक्ष को पूज्य माना गया है।
बौद्ध व जैन धर्मों में भी वृक्षों को पवित्र माना गया है। मध्यकाल में मुगलों द्वारा लगाए गए बिजौर, निशांत , चश्माशाही, शालीमार बाग व अशोक द्वारा सड़क के दोनो ओर छायादार व फलदार वृक्ष लगाना उसके धम्म कार्यों में था। तुलसी, पीपल, नीम,आंवला की पूजा आज भी की जाती है। वास्तव में वृक्ष और वनस्पति
को धर्म से जोड़ने का उद्देश्य लोगों को उनके महत्व के प्रति सचेत करके उनका संरक्षण करना था । वृक्ष निशुल्क ऑक्सीजन प्रदान करके मानवजीवन के लिए हानिकारक कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषण करके वातावरण में संतुलन स्थापित करते है और उनकी जड़े जमीन को कसकर पकड़े रहकर बाढ़ व भूस्खलन वाले क्षेत्रों में धरती को मजबूती प्रदान करती है।
पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका सदैव प्रशंसनीय रही है। 1730 में राजस्थान के खेजड़ली गाँव की महिला अमृता देवी अपनी तीन बेटियों के साथ राजा के सिपाहियों द्वारा वृक्षों को काटने से बचाने के लिए वृक्षों से लिपट गयी और वृक्षों के साथ कटकर चारों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। इसके बाद 365 लोगो ने वृक्षों को बचाने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। 1973 में उत्तर प्रदेश के चमौली में चिपको आंदोलन के प्रणेता यद्द्पि सुंदरलाल बहुगुणा थे परंतु। वृक्षों को कटने से बचाने में गौरा देवी और चमौली गाँव की महिलाओं का योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्होंने 26 मार्च 1974 को जंगल को अपना मायका बताकर रेणी के वृक्षों को कटने से बचा लिया। 1987 में पर्यावरणविद वंदना शिवा के नेतृत्व में नवधान्या आन्दोलन महिलाओं द्वारा चलाया जा रहा है । इसमे जैविक कृषि के लिए लोगों को प्रेरित करने के साथ किसानों को बीज वितरित किये जाते है तथा जंकफूड व हानिकारक कीटनाशकों व उर्वरकों के दुष्परिणामो के प्रति जागरूक किया जाता है । नर्मदा बचाओ आंदोलन और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में मेधा पाटेकर की महती भूमिका है।
पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन में महिलाओं की भूमिका देखते हुए राष्ट्रीय वन नीति 1988 में उनकी सहभागिता को स्थान दिया गया। 2006 में राजस्थान के राजसमन्द जिले के पिपलन्तरी गाँव मे पुत्री के जन्म पर 111 पौधे लगाने का नियम बनाया । और इस योजना की उपलब्धियों को देखते हुए 2008 में इस गाँव को निर्मल गाँव का पुरस्कार भी मिला।
आज पर्यावरण संकट विस्फोटक स्थिति तक पहुँच गया है ।ग्लोबल वार्मिंग, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, वायुमंडल में जहरीली गैसों के प्रसार से सैकडों तरह की नई नई बीमारियां जन्म ले रही है। ऐसे चुनौती पूर्ण समय में महत्वपूर्ण दिवसों पर हमे पौधे अवश्य लगाने चाहिए और समाज मे सभी को जागरूक भी करना चाहिए। घर की खाली जगह पर किचन गार्डन बनाये जा सकते है जिसमे सूंदर फूलों वाले व आसानी से तैयार हो जाने वाले सब्जी के पौधे भी लगाए जा सकते है।
प्लास्टिक के बारे कहना है यह नष्ट नही होता है और होता भी है तो 500 से अधिक वर्ष का समय लगता है । और यह हर प्रकार से पर्यावरण के लिए घातक है। अतः घर से बाहर जाते समय कपड़े अथवा जूट का बैग लेकर जाना चाहिए । प्लास्टिक के बर्तनों का उपयोग नही करना चाहिए। फ्रिज में प्लास्टिक की बोतलों की जगह स्टील व काँच की बोतलें रखनी चाहिए । भोजन पैक करने के लिए एल्युमीनियम फॉयल का प्रयोग न करके कागज व सूती कपड़े का प्रयोग करना चाहिए। ईंधन वाले वाहनों का सीमित प्रयोग करें ।
जल और नदियाँ प्राचीन काल से ही जीवन दायिनी मानी जाती रही हैं परंतु आज ये इतनी प्रदूषित हो गयी है कि इनके संकट पर ही अस्तित्व संकट उतपन्न हो गया है। औद्योगिक कल कारखानों , विभिन्न अनुष्ठानों, स्नान दान , अंत्येष्टि व अस्थियों के बहाए जाने से नदियाँ दूषित होने के साथ साथ उथली हो रही है ।
हमारे प्राचीन शास्त्रों में नदियों को स्वच्छ व अविरल रखने के लिए नियम बनाये गए थे जैसे कि नदी के समीप शौच व कुल्ला न करना, बाल न झाड़ना, फूलमाला, वस्त्र व कूड़ा न डालना नदी में स्नान करने से पूर्व घर से स्नान करके स्वच्छ होकर जाना आदि नियमो को यदि हम आत्मसात कर ले तो निश्चित ही कुछ सीमा तक प्राकृतिक स्रोतों के साथ सामन्जस्य स्थापित किया जा सकता है और पर्यावरण की रक्षा में उपयोगी इकाई बना जा सकता है।