महामिलावट के गठजोड़ का अलगाव






लोकसभा चुनाव में भाजपा विरोधी वोटों के बिखराव को रोकने और मोदी सरकार की दोबारा वापसी की राह में कांटे बिछाने के अलावा जातीय व सांप्रदायिक समीकरणों को साधने की कोशिश में यूपी की राजनीति के दो विपरीत ध्रुव कहे जानेवाले सपा और बसपा ने एक मंच पर आने की जो पहल की थी वह प्रयोग बसपा की नजर में विफल साबित हुआ है। बसपा सुप्रीमो मायावती को इस बात दर्द बुरी तरह सता रहा है कि उन्हें सपा के साथ सीटों का तालमेल करके चुनाव लड़ने से कोई फायदा हासिल नहीं हुआ और जिन यादव वोटों को अपने परंपरागत मतदाताओं के साथ जोड़ने की उम्मीद में उन्होंने यह गठबंधन किया था उसमें यादव समाज ने उनके साथ धोखा कर दिया है। हालांकि वर्ष 2014 के आम चुनाव में शून्य पर सिमटने के लिये मजबूर हुई बसपा को इस बार दस सीटों पर जीत हासिल हुई है जबकि सपा को पिछली बार की ही तरह इस बार भी महज पांच सीटों से ही संतोष करना पड़ा है। इसके बावजूद बसपा नेत्री को इस बात का मलाल है कि इस बार यादव मतदाताओं ने उनके उम्मीदवारों को वोट नहीं दिया। कायदे से तो यह इल्जाम सपा को लगाना चाहिये कि बसपा के मतदाताओं ने उसके प्रत्याशियों को वोट नहीं दिया है। लेकिन इल्जाम लगाने की पहल बसपा ने कर दी है। खैर, यह इल्जाम लगाकर मायावती ने सीधे तौर पर एक तीर से दो निशाने साध लिये हैं। सबसे पहले तो इन्होंने उस गठबंधन को तिलांजलि देने की पहल कर दी है जिसे वास्तव में महामिलावट का गठबंधन करार देना ही बेहतर होगा। साथ ही दूसरी ओर इन्होंने अपने परंपरागत मतदाताओं के मन में सपा के प्रति खटास भी भर दी है ताकि गठबंधन के नाते इनके परंपरागत मतदाताओं की सपा के परंपरागत मतदाताओं के साथ जमीनी स्तर पर जो कथित नजदीकियां बढ़ी थी उसमें एक बार फिर से दूरी आ जाए और इनका वोटर सपा को समर्थन देने के बारे में कभी सपने में भी ना सोचे। हालांकि मायावती को अब इस बात की वैसे भी कोई परवाह नहीं है कि उनके इस कदम से भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोकने की पुरानी रणनीति का क्या भविष्य होगा। वैसे भी लोकसभा का चुनाव निपट जाने के बाद सपा और बसपा को आमने-सामने आना ही था। क्योंकि अब अगली लड़ाई वर्ष 2022 में प्रदेश के विधानसभा के लिये होगी जिसमें मुख्यमंत्री के ताज पर अपनी दावेदारी छोड़ना ना तो सपा को गवारा हो सकता है और ना ही बसपा को। लिहाजा आगामी दिनों में होने जा रहे ग्यारह विधानसभा सीटों के उपचुनाव में अलग अलग लड़कर ये दोनों ही दल अपने परंपरागत मतदाताओं को अपने खेमे में खींच लेने के लिये एक दूसरे पर जोरदार प्रहार की ही रणनीति अपनाएंगे ताकि भविष्य में मतदाताओं के मन में इस बात की कोई दुविधा ही ना रहे कि ये दोनों फिर से सरकार बनाने के लिये एकजुट भी हो सकते हैं। इसके लिये अगर इन ग्यारह सीटों के नतीजों में कोई उन्नीस-बीस भी हो जाये तो इसका कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि सूबे की भाजपा सरकार के पास बहुमत के लिये आवश्यक संख्याबल से कहीं अधिक आंकड़ा मौजूद है और इन सीटों की जीत या हार का उसके लिये भी कोई बड़ा मायने या मतलब नहीं होगा। लेकिन विचारणीय यह है कि आखिर ऐसी नौबत आई ही क्यों? दरअसल कायदे से देखा जाए तो प्रधानमंत्री मोदी ने सपा और बसपा के चुनावी गठजोड़ को महामिलावट के गठबंधन का जो नाम दिया था वह कतई गलत नहीं था। वास्तव में बीते ढ़ाई दशकों से इन दोनों दलों के बीच सांप और नेवले सरीखी लड़ाई रही है। साथ ही सूबे की सत्ता पर अधिकांश समय इन्ही दोनों दलों का कब्जा रहा है। ऐसे में सपा के राज में बसपा के पंरपरागत मतदाताओं पर अत्याचार और बसपा के राज में सपा के परंपरागत मतदाताओं को पड़ी मार की कहानियां किसी से छिपी हुई नहीं हैं। लेकिन केवल को भाजपा को हराने और अपना अस्तित्व बचाने के लिये जब इन दोनों ध्रुवों ने बंद कमरे की बैठक में एकजुट होकर चुनाव लड़ने का फैसला किया तो वही हुआ तो चुम्बक के दो विपरीत ध्रुवों को एक साथ लाने की कोशिश करने पर होता है। इन दोनों का सम्मिलन तो नहीं हुआ उल्टा ये दोनों एक दूसरे को धक्का देकर अपने से दूर करने में लग गए। साथ ही सीटों के बंटवारे में भी जिस कदर सपा ने बसपा को तरजीह दी और मायावती ने गेस्ट हाउस कांड को भुला कर सार्वजनिक तौर पर अखिलेश यादव को अपना आशीर्वाद दे दिया वह पूरा प्रकरण जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को हजम नहीं हो सका। वे सहजता से इसे स्वीकार ही नहीं कर सके। वैसे भी अस्तित्व बचाने और सत्ता की चाबी पर कब्जा जमाने की विवशता इन दोनों दलों की थी ना कि मतदाताओं की। मतदाता तो इनके साथ सिर्फ संवेदना और सिद्धांतों के आधार पर जुड़ाव महसूस करता रहा है। लेकिन जब मतदाताओं ने सिद्धांतों में स्वार्थ के लिये मिलावट होते हुए देखा तो उसने इन दोनों को छोड़कर उस भाजपा का साथ देना ही बेहतर समझा जिसके खिलाफ ये दोनों एक जुट हुए थे। बताया जाता है कि जिस सीट पर सपा के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे उन्हें बसपा के परंपरागत मतदाताओं ने अपना वोट नहीं दिया और जिस सीट पर बसपा के प्रत्याशी खड़े थे वहां सपा के मतदाताओं ने उसका साथ नहीं दिया। बल्कि ऐसी सभी सीटों पर सीधा फायदा भाजपा को मिला। बसपा के कोटे वाली सीटों पर यादव समाज ने भाजपा को वोट किया जबकि सपा के कोटे वाली सीटों पर बसपा के परंपरागत मतदाता भाजपा के साथ जुड़ गए। इसी का नतीजा रहा है कि भाजपा ने अपनी विजय पताका एक बार फिर लहराने में कामयाबी हासिल कर ली है।