असमान कारोबारी माहौल और नीतिगत कुंठा के लिए आखिर कौन है जिम्मेवार?

भारत में असमान कारोबारी माहौल और नीतिगत कंठा अब राष्ट्रीय चिंता का सबब बन चुका है। इस विषय पर व्यवस्था की रणनीतिक लापरवाही धीरे-धीरे उजागर हो रही है। लेकिन इससे उत्पन्न विषम परिस्थिति की नैतिक जिम्मेवारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। चाहे संसद हो या सरकार, न्यायपालिका हो या मीडिया, किसी के समझ में नहीं आ रह्म कि इतने बड़े आवाम को कैसे सन्तुष्ट किया जाए। लिहाजा, स्वाभाविक सवाल है कि इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? आलम यह है कि जातिवादी आरक्षण और साम्प्रदायिक/क्षेत्रीय भेदभाव की बात छोड़ दी जाए तो कतिपय वाजिब मुद्दे से प्रायः सभी जिम्मेवार लोग कतरा रहे हैं, क्योंकि डर है कि कहीं दलित और पिछड़ा तबका नाराज न हो जाए। क्योंकि ऐसा करने से उनका चोखा धंधा भी मन्दा हो सकता है। दरअसल, यह देश के उस सम्भ्रांत वर्ग की मनोदशा है जिस पर बाद बाकी लोगों की नैतिक जिम्मेवारी होती है। वो भी तब, जबकि उसे पता है कि देश में निजीकरण और भूमण्डलीकरण की 1991-92 से ऐसी अंधी लहर चली कि खेती- किसानी दोनों चौपट हो गई। उनके साथ अकुशल मजदूर और हुनरमंद कारीगर भी तबाह हो गए। अचरज की बात तो यह है कि छोटे-मोटे उद्यमियों और कारोबारियों की स्थिति भी दयनीय है। अमूमन, सरकारी कर्मचारियों, बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों फिर के कर्मचारियों, स्थापित पेशेवरों और उनसे जुड़े लोगों के अलावा सभी अपनी-अपनी आमदनी के जोड़- घटाव में ही व्यस्त हैं। हां, कुछ खानदानी सम्पत्तियों/परिसम्पत्तियों वाले, उसका गुणा-भाग करने वाले भी मालामाल हैं। एक हद तक सरकारी- जिससे निजी ठेकेदारों की भी चांदी है। लेकिन बाद बाकी मध्यम और निम्न वर्ग से हिंदुत्व जुड़े रोजगार बाजार को लकवा मार चुका है, क्योंकि सरकार की नीतियां ही बड़ी-बड़ी कम्पनियों के कारोबारी हितों की पक्षधर हैं। स्वाभाविक है कि बेरोजगार युवाओं का असन्तोष मौजूदा व्यवस्था के प्रति बढ़ेगा, और बढ़ता भी जा रहा है। ऐसा इसलिए कि हमारा देश नीतिगत अराजकता के दौर से गुजर रहा है। उसे न तो बढ़ती जनसंख्या के समुचित प्रबन्धन की बिकने फिक्र है और न ही आए दिन बढ़ती सामाजिक-व्यक्तिगत विषमता की। हालत यह है कि अपने-अपने क- हकूक के लिए लोग सड़कों पर संघर्षरत हैं, लेकिन हमारी सरकार हाथ पर हाथ धरे कुछ निहित कारणों के चलते लामबंद विदेशी पूंजीपतियों और उनके एजेंट की भांति काम कर रहे भारतीय औद्योगिक घरानों की खिदमतगार नजर आ रही है। यही वजह है कि दिन-प्रतिदिन स्थिति बिगड़ती जा रही है, जबकि सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी नजर आ रही है। शायद इसलिए निजीकरण के दौर में भी सरकारों का स्थायित्व नदारत है। चाहे पीवी नरसिम्हाराव की सरकार हो या अटल बिहारी बाजपेयी सरकार या फिर मनमोहन सिंह सरकार, क्रुद्ध मतदाताओं ने लगभग सबको धूल चटा दी। हालात चुगली कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार भी फिर से वापस नहीं आ पाएगी ! क्योंकि इस सरकार ने भी गरीबों की माला जपकर अमीरों के हितसाधक फैसले अधिक लिए हैं, जिससे इस सरकार के प्रति भी लोगों में सहानुभूति दिनोंदिन घट रही है। यदि हिंदुत्व का रक्षा कवच नहीं होता तो यह सरकार भी समय से पहले ही चलता कर दी गई होती। सवाल है कि हमारी लोकतांत्रिक सरकारें लोगों की जरूरतों को समझ नहीं पा रही हैं या फिर समझना ही नहीं चाह रही हैं। देश ने देखा है कि खेती-किसानी की बढ़ती लागत और अपेक्षाकृत कम फसल समर्थन मूल्य मिलने और उस न्यूनतम दाम पर भी फसल नहीं बिकने से किसान और कृषि मजदूर तबाह हो गए। अब भी उनकी स्थिति जस की तस है। इसी प्रकार औद्योगिक-डिजिटल क्रांति से उपजे मशीनीकरण ने अकुशल मजदूरों पर ऐसा कहर बरपाया कि उनकी मजदूरी भी छिन गई और रोजी-रोटी प्राप्ति की अन्य दूसरी सम्भावनाएं गायब। यही नहीं, औसतन कम पढ़े-लिखे लोगों के हाथों का हुनर वाला काम भी दिन-रात बढ़ते कम्प्यूटर बाजार और उससे विकसित हुए कारोबार ने छिन लिया। आज स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप जैसे अनगढ़ राग अलापने वाले देश ने देखा है कि कैसे नीतिगत लापरवाहियों के चलते उसके ग्रामीण कुटीर उद्योग-धंधे बर्बाद हो गए, जिससे शहरों की ओर पलायन बढ़। पहले महानगरों ने शहरों को बर्बाद किया, फिर शहरों ने गांवों को, क्योंकि चाहे संसद हो, या सरकार, न्यायपालिका हो या मीडिया, किसी ने आम आदमी की दैनिक जरूरतों की चिंता नहीं की, लेकिन सोशल मीडिया, टीवी स्क्रीन्स और अखबारी पन्नों पर बेतहाशा सपने दिखाए। सवाल है कि जब निजीकरण की आड़ लेकर सरकार जैसे-तैसे अपनी जिम्मवारियां कम करती गई, तो नेताओं और अधिकारियों के करीबियों से जुड़े एनजीओज और विभिन्न निजी कम्पनीज ने ऐसी लूट मचाई कि सामाजिक नैतिकता भी शरमा गई, लेकिन दण्डित बहुत कम हुए। सच कहा जाए तो देश की इस नीतिगत लुज-पुंजता से आम किसानों, मजदूरों, कारीगरों को भारी क्षति हुई, जबकि पढ़े-लिखे लोगों और पूंजीपतियों ने इसे अच्छा अवसर समझा और जिसे जहां मौका मिला, देश को लूटकर अपना घर भर लिया। लेकिन ऐसे लोगों पर कार्रवाई नहीं होगी, क्योंकि पर्याप्त कानून का अभाव है। देखा जाए तो इस स्थिति के पीछे असमान कारोबारी माहौल और नीतिगत कुंठा दोनों ही जिम्मेवार है। यही वजह है कि इससे छोटे-मोटे उद्यमी-कारोबारी भी हमेशा ही चिंतित रहते हैं। लेकिन यह स्थिति बड़े कारोबारियों-पूंजीपतियों के लिए आमतौर पर फायदेमंद साबित होती है। निजीकरण शायद इसलिए भी हमारी संसद और सरकार दोनों बेपरवाह बनी रहती है। वो यह भी नहीं समझती कि इससे छोटे-मोटे लोगों को नौकरीपेशा भी प्रभावित होता है। सवाल है कि यदि आप कारोबारी हित के मद्देनजर किसी विषय-विशेष को लेकर केंद्र अथवा राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित भी करते हैं तो उस विषय-वस्तु को समझने से लेकर कारोबार हित के जिससे अनुरूप कानून बनाने की प्रक्रिया इतनी लम्बी और जटिल है कि जबतक पर्याप्त कानून बन पाता है। तबतक छोटे-मोटे कारोबारी बर्बाद हो किसी जाते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि कभी-कभी सरकार ऐसी जरूरी मांगों/बातों पर गौर करने की जरूरत भी नहीं समझती है, क्योंकि पूंजीपतियों/थैलीशाहों के द्वारा उनका मुंह बन्द कर दिया गया होता है। ऐसे में आम कारोबारी या तो सफर करते हैं या फिर कुछ वक्त के बाद वैसे काम-धन्धे से पलायन को मजबूर, जो कि बड़े पूंजीपतियों के परोक्ष मकसद में शामिल होता है। समझा जाता है कि बाजार में जब प्रतियोगिता समाप्त हो जाती है तब थैलीशाहों-पुंजीपतियों से हित जुड़े लोगों को बेशुमार फायदा होता है। क्योंकि बाजारू एकाधिकार हो जाने के चलते वो मनमानी कीमतें वसूल पूंजीपतियों पाते हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों, किसके लिए और कब तक? अपने देश में असमान कारोबारी माहौल एक ऐसा विषय है जिसमें 1990 के के के दशक से अंतराल दर अंतराल पर इजाफा ही होता जा रहा है। इस दौर में निजीकरण के बढ़ते प्रचलन से न केवल आपसी कारोबारी प्रतिस्पर्धा बढ़ी है बल्कि विभिन्न उत्पादों की गुणवत्ता में भी भारी गिरावट आई है। भारतीय बाजारों में गुणवत्ताहीन चाइनीज उत्पादों की बेशूमार आपूर्ति से न केवल भारतीय विनिर्माताओं को क्षति हुई है, बल्कि गुणवत्तायुक्त सामानों का उत्पादन करने वाली फैक्ट्रियां भी उन्हें बन्द करनी पड़ी जिससे आम उपभोक्ताओं को वाजिब कीमत अदा करने के बाद भी सही समान मिलना किसी दिवास्वप्न सरीखा हो चुका है। कहना न होगा कि किसी क्षेत्र में असमान कारोबारी माहौल कानूनन है तो किसी दूसरे क्षेत्र में एक समान कानून के अभाव में ऐसी स्थिति कायम है। इस स्थिति के चेक एंड बैलेंस की जिम्मेवारी सरकार और उसके मातहत प्रशासन की है, लेकिन उसे अपनी मौलिक और नैतिक जिम्मेवारियों का एहसास कहां है? अब तो ऐसा आलम है कि छोटेमोटे उद्योग संगठनों-कारोबारी संगठनों की मांग भी सरकार अनसनी कर दे रही है, क्योंकि वह कहीं परोक्ष तो कहीं प्रत्यक्ष रूप से बाष्ट्रीय कम्पनियों की हित संरक्षक बन चुकी है। सरकार के मातहत काम करने वाले प्रशासन को भी पता होता है कि ऐसा माहौल बड़े पूंजीपतियों के लिए फायदेमंद होता है। लेकिन हमारी संसद और सरकार दोनों ही छोटे कारोबारियों और आमलोगों के दूरगामी हितों से बेपरवाह नजर आती है।