‘सवाल सीबीआई की आग में राख होती साख का’






वाकई गजब की आग दहक उठी है सीबीआई सरीखी ऐसी संस्था में जो स्वायत्त है, खुद-मुख्तार है। जिसकी स्वायत्तता को बरकरार रखने के इंतजाम कागजी तौर पर इतने ठोस हैं कि सरकार भी सीबीआई के मुखिया को ना तो अपनी मर्जी से पद से हटा सकती है और ना ही उसके दो वर्ष के तयशुदा कार्यकाल की सीमा में कोई फेरबदल कर सकती है। चुंकि सीबीआई के मुखिया की नियुक्ति में प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल होते हैं लिहाजा ये तीनों मिलकर ही इस संस्था में कोई फेरबदल कर सकते हैं। ऐसे किलानुमा स्वायत्तता की व्यवस्था के बाद अगर संस्था के दो शीर्षतम अधिकारी आपस में लड़ जाएं, दोनों एक-दूसरे को भ्रष्ट व रिश्वतखोर साबित करने में जुट जाएं और दोनों की यह लड़ाई अदालत की दहलीज तक पहुंच जाए तो मामले की असाधारण संगीनता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। संस्था भी वह जो कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी हो। ऐसे में दांव पर सिर्फ उस संस्था की साख ही नहीं लगती बल्कि देश की प्रतिष्ठा और सरकार की प्रशासनिक क्षमता भी सवालों के घेरे में आ जाती है। लिहाजा जब सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना ने लंबे समय से जारी अपने शीतयुद्ध को सार्वजनिक तौर पर आर-पार की लड़ाई में तब्दील करने की पहलकदमी कर दी तो सरकार के लिये मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते रहना नामुमकिन हो गया। हालांकि इन दोनों के बीच लंबे समय से जारी शीतयुद्ध की सरकार अंतिम वक्त तक अनदेखी ही करती रही। ना तो वर्मा द्वारा अस्थाना की पदोन्नति का विरोध किये जाने का गंभीरता से संज्ञान लिया गया और ना ही अस्थाना द्वारा वर्मा के खिलाफ की जाने वाली शिकायतों को कभी विशेष महत्व दिया गया। सरकार साक्षी भाव से तटस्थ और निष्पक्ष की बनी रही। लेकिन बात जब एफआईआर दर्ज कराने और अस्थाना की गिरफ्तारी की संभावना तक पहुंच गई तब कुछ ऐसा बच ही नहीं गया जिसकी अनदेखी की जा सके। बात केवल इन दोनों की आपसी लड़ाई की नहीं बल्कि मामला सीबीआई की साख का हो गया जिस पर यह तोहमत लग रही थी कि अपराधियों से रिश्वत लेकर सीबीआई के शीर्ष अधिकारी जांच को बाधित करते हैं और मुजरिमों को राहत पहुंचाते हैं। ऐसे में यह मानना पड़ेगा कि सीमित विकल्पों के बावजूद सरकार ने जो प्रभावी कदम उठाए उससे बेहतर और कुछ भी नहीं हो सकता था। हालांकि इन दोनों की लड़ाई में कौन पीड़ित-प्रताड़ित है और कौन साजिशकर्ता मास्टरमाइंड इसका फैसला तो समुचित व निष्पक्ष जांच के बाद ही होगा। लेकिन फिलहाल सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती थी सीबीआई की साख को बरकरार रखना, संस्था के काम को प्रभावित होनेे से बचाना और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करना। इन चुनौतियों से निपटने के लिये सरकार ने ना सिर्फ कार्रवाई में निष्पक्षता सुनिश्चित की बल्कि दोनों के साथ एक-बराबर सलूक करते हुए पूरे मामले को निर्णायक परिणति तक पहुंचाने का प्रभावी इंतजाम भी कर दिया। सरकार ने लंबी छुट्टी पर भेजा तो दोनों को भेजा। एसआईटी से दोनों की बराबर जांच कराने की बात कही गई। दोनों के कार्यालय को एक बराबर तरीके से खंगाला गया और उसमें संस्था के किसी तीसरे को घुसने की इजाजत नहीं दी गई। सीबीआई की कमान भी नंबर तीन कहे जानेवाले नागेश्वर राव को सौंपी गयी जिन्होंने दोनों द्वारा नियुक्त किये गये उनके करीबी अधिकरियों का थोक के भाव में तबादला सुनिश्चित किया। यानि समग्रता में देखें तो विवश होकर सरकार द्वारा सीबीआई में किये गये हस्तक्षेप को किसी भी लिहाज से कतई पक्षपातपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। ऐसे में बेहतर होता कि सरकार द्वारा विवशता में उठाए गए इस कदम का एहतराम और सम्मान किया जाता। लेकिन चुनावी वर्ष होने के कारण हर मामले का राजनीतिक पहलू उभारने और सरकार की शासन व प्रशासन क्षमता पर उंगली उठाकर अपनी राजनीति चमकाने का मौका भला कोई कैसे हाथ से जाने दे सकता है। तभी तो वर्मा को सीबीआई का निदेशक बनाये जाने का विरोध करनेवाले अब उन्हें लंबी छुट्टी पर भेजे जाने का भी विरोध कर रहे हैं। विरोध कभी इस स्तर का कि वर्मा के कांधे पर बंदूक रखकर सवोच्च न्यायालय से ऐसा कारतूस हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है जिससे सरकार की पगड़ी पर सीधा निशाना दागा जा सके। कांग्रेस तो एक कदम और आगे बढ़ गई और उसने सीबीआई की साख बचाने के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को असंवैधानिक व नियमों के खिलाफ बताते हुए पूरे मामले को राफेल सौदे से जोड़ दिया। जबकि यह सामान्य समझ की बात है कि आखिर राफेल खरीद के मामले से सीबीआई का क्या संबंध हो सकता है? सीबीआई को जब ना तो सरकार ने और ना ही अदालत ने राफेल सौदे की जांच के लिये अधिकृत किया है तो यह कहना वाकई मजाकिया ही है कि राफेल की जांच करने का प्रयास करने के कारण वर्मा पर सरकार का नजला गिरा है। खैर इश्क, जंग और सियासत में जो ना हो जाए वह कम है। वैसे अगर एक मिनट के लिये यह मान भी लिया जाए कि सरकार ने पूरे मामले में बहुत ही गलत किया है तो समस्या गिनाने वालों को कोई ऐसा समाधान भी बताना चाहिये ताकि सीबीआई की साख भी सलामत रहे, दोषियों की पहचान भी हो और निर्दोष को प्रताड़ना से भी बचाया जा सके? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’