तीसरी ताकतों का तिकड़म






उत्तर प्रदेश में राजनीतिक तस्वीर में जो नया बदलाव दिख रहा है उसने कांग्रेस के लिये और लोजपा की ओर से मिल रही चेतावनियों ने भाजपा के लिये सिरदर्दी बढ़ा दी है। हालांकि सतही तौर पर देखने से दोनों ही घटनाक्रम बिल्कुल अलग दिखाई पड़ते हैं जिनका आपस में कोई तालमेल ही नहीं है। लेकिन गहराई से परखें तो राष्ट्रीय राजनीति के उसी समीकरण का सामना कांग्रेस को भी करना पड़ रहा है जो चुनौती भाजपा के समक्ष प्रस्तुत है। इन दोनों घटनाओं की समानता यह है कि विपक्षी खेमे में कांग्रेस को लेकर सपा-बसपा ने उसी सोच का परिचय दिया है जैसी सोच राजग के घटक दलों में भाजपा को लेकर दिखाई पड़ रही है। दरअसल दोनों ही खेमों के घटक दल कतई यह नहीं चाह रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा या कांग्रेस को अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा हासिल हो। इसके लिये दोनों खेमों के दल तमाम ऐसी तिकड़में कर रहे हैं ताकि कांग्रेस और भाजपा की सरकार बनाने की उम्मीदों को धराशायी किया जाए और अपनी मजबूती, ताकत व विस्तार में ही नहीं बल्कि मोल-भाव करने की क्षमता में भी वृद्धि की जा सके। वास्तव में देखा जाए तो बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती ने तो काफी पहले ही अपने इरादों का इजहार कर दिया था कि वे इस बार केन्द्र में मजबूत नहीं बल्कि मजबूर सरकार बनवाने के पक्ष में हैं। काफी हद तक ऐसी ही चाहत अखिलेश यादव की सपा, शरद पवार की राकांपा, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी सरीखे ऐसे दलों की भी है जिन्होंने इस बार अपने हक में सत्ता का छींका टूटने की उम्मीद बांध रखी है। ये वो दल हैं जिनका प्रभाव क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इनमें से हर कोई तीसरी सबसे बड़ी ताकत के तौर पर उभरने की पूरी काबलियत रखता है। लिहाजा इन सबके बीच इस बात पर तो पूरी तरह आम सहमति का माहौल है कि इस बार केन्द्र में संसद का स्वरूप त्रिशंकु रहे और जोड़-तोड़ व जुगाड़ के बिना कोई सरकार ना बना पाए। लेकिन मसला है कि त्रिशंकु जनादेश की सूरत में मजबूर सरकार तो तब बनेगी जब संसद में किसी दल को ना तो बहुमत हासिल होगा और ना ही उसकी स्थिति ऐसी होगी कि सिर्फ दो-तीन बड़े दलों के समर्थन से बहुमत के जादूई आंकड़े को हासिल कर ले। यानि देश की दोनों सबसे बड़ी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस जब अधिकतम डेढ़ सौ सीटों के नीचे सिमटेंगी तभी तीसरी ताकतों की किस्मत से सत्ता का छींका टूटने की संभावना बन पाएगी। हालांकि भाजपा को कमजोर करने की कोशिश कर रहे भीतराघाती सहयोगियों की ओर से भी ऐसा प्रयास अवश्य किया जाएगा और पांच राज्यों का चुनावी नतीजा सामने आने के बाद इस संभावना को काफी बल मिला है कि अगर क्षेत्रीय ताकतें अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए भाजपा को फैलने और फलने-फूलने के लिये पर्याप्त सीटों पर लड़ने का मौका ना दें तो भगवा खेमा भी चुनाव के बाद जोड़-तोड़ और जुगाड़ के बिना दोबारा अपनी सरकार नहीं बना पाएगा। इसी संभावना को भुनाने के लिये अब रामविलास पासवान की लोजपा ने भी बिहार के अलावा यूपी-झारखंड में हिस्सेदारी के लिये त्यौरियां दिखानी शुरू कर दी हैं और शिवसेना की उम्मीदें और अपेक्षाएं भी कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके अलावा अभी छोटे क्षेत्रीय दलों की मांगों का सामने आना और उस पर विचार होना तो बाकी ही है। यानि राजग के घटक दलों की कोशिश निश्चित ही यही रहेगी कि वे चुनाव लड़ने के लिये अधिकतम सीटें प्राप्त करें ताकि चुनाव के बाद भगवा खेमे की उन पर निर्भरता बढ़े जिससे संसदीय भागीदारी के अनुपात में सत्ता की मलाई में अधिकतम हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सके। दूसरी ओर विपक्षी खेमे में भी इस बात का पुरजोर प्रयास हो रहा है कि भाजपा के स्वाभाविक विकल्प के तौर पर कांग्रेस को कतई नहीं उभरने दिया जाये। इसी सोच के तहत कांग्रेस को किनारे लगाने की कोशिश यूपी में भी होती हुई दिखाई पड़ रही है और इसी रणनीति क तस्वीर तीन राज्यों में हुई कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की ताजपोशी के मंच पर भी दिखाई पड़ी। उस शपथ ग्रहण समारोह से केवल सपा और बसपा ने ही किनारा नहीं किया बल्कि पवार-ममता सरीखे विपक्ष के दिग्गज छत्रप भी नदारद रहे। दरअसल भाजपा से तीन राज्य छीनने में कामयाब रहनेवाली कांग्रेस अब उन विपक्षियों की आंखों में खटकने लगी है जो मजबूर सरकार गठित करने के ठोस दावेदार के तौर पर उभरने की उम्मीद पाले हुए हैं। इन चुनावों में यह तो स्पष्ट हो ही गया कि अगर कांग्रेस पूरे दम-खम से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ विकल्प बनकर खड़ी हो जाए और क्षेत्रीय दलों का उसे पूरा सहयोग मिल जाए तो चुनावी नतीजों की तस्वीर में जादूई परिवर्तन होने की संभावना को कतई नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन इस समीकरण को सार्थक करना क्षेत्रीय दलों के लिहाज से लाभदायक नहीं है। उनको अधिकतम लाभ तो तब होगा जब भाजपा हार जाए लेकिन कांग्रेस जीत नहीं पाए। ऐसी तस्वीर तभी बन सकती है जब तीसरी व क्षेत्रीय ताकतें सूबाई स्तर पर या तो कांग्रेस को तभी अपने साथ जोड़ें जब वह न्यूनतम सीटों पर लड़ने के लिये सहमत हो वर्ना कांग्रेस और भाजपा से समानांतर दूरी बनाकर चुनाव लड़ना ही उनके लिये श्रेयस्कर होगा। चुंकि यूपी में कांग्रेस की मांग को पूरा करने के बाद सपा-बसपा के पास आपस में बांटने के लिये उतनी सीटें ही नहीं बचेंगी जितनी वे अपने दम पर भी आसानी से जीतने की क्षमता रखती हैं लिहाजा कांग्रेस को किनारे लगाकर आगे बढ़ना ही बुआ-बबुआ और ताऊ के लिये लाभदायक दिखाई पड़ रहा है। यही स्थिति बिहार में भी बन सकती है अगर लोजपा ने राजग से निकल कर महागठबंधन के साथ जुड़ने का मन बना लिया। वैसे भी कांग्रेस की कमजोरी यही है कि उसके पास यूपी, बंगाल, बिहार और झारखंड के ऐसे क्षेत्र में समाज के किसी भी वर्ग के बीच अपना ठोस जनाधार ही नहीं बचा है जहां से लोकसभा के कुल एक-तिहाई से अधिक सांसद जीत कर आते हैं। लोकसभा की एक-तिहाई सीटों का निर्वाचन करनेवाले बंगाल सहित दक्षिणी राज्यों में भाजपा की भी ऐसी ही ठोस जनाधार विहीनता स्थिति है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों के उभार को रोकना और किसी बड़ी लहर के बिना होने वाले चुनाव में मजबूत सरकार के लिये जनादेश आ पाना तो नामुमकिन की हद तक मुश्किल ही है। लिहाजा इस बार मजबूत सरकार के लिये आवश्यक है कि कांग्रेस या भाजपा के पक्ष अथवा विरोध में जोरदार लहर चले जिससे अपने प्रभाव और उपस्थिति वाले इलाकों में ये अधिकतम सीटें जीत कर बहुमत के आंकड़े की ओर बढ़ सकें। वर्ना ढ़ाई दशक के बाद पहली बार बनी पूर्ण बहुमत की सरकार सिर्फ अपवाद के रूप में याद की जाएगी और गठबंधन की सरकारों का दौर दोबारा लौट आएगा।