जो रोगी को भावे






‘जो रोगी को भावे वहीं वैद्य फरमावे’ की उलटबांसी को अगर अगर राजनीतिक तौर पर समझना हो तो इन दिनों भाजपा के साथ उसकी मातृसंस्था आरएसएस और बाकी सहोदर संगठनों के आपसी रिश्तों इन सबकी सैद्धांतिक व वैचारिक मसलों पर जारी जुगलबंदी पर सरसरी निगाह डाल लेना ही काफी है। कहने को तो ये सभी एक ही सिद्धांत और विचार को माननेवाले हैं और परस्पर तालमेल बनाकर ही काम करते हैं। लेकिन अब तक यही देखा गया है कि परिवार में सहोदर भाइयों के बीच होनेवाली तकरार की ही तरह संघ के बाकी अनुषांगिकों के साथ भाजपा का वैचारिक व सैद्धांतिक मतभेद हमेशा चलता रहा है। खास तौर से भाजपा के सत्ता में रहने के दौरान इन सहोदरों की अपेक्षाएं उससे बढ़ जाती थी जिसे पूरा कराने के लिये वे अक्सर भाजपा पर चढ़े रहते थे। दूसरी ओर सत्ता की व्यवस्था और सहोदरों की अपेक्षाओं के बीच भाजपा भी संतुलन बनाने का प्रयास करती रहती थी लेकिन कई बार टकराव इस हद तक बढ़ जाता था जिसमें भाजपा के भीतर के असंतुष्ट नेताओं की जमात भी सहोदरों के कांधे पर बंदूक रखकर अपना निशाना साधने का प्रयास करने से नहीं चूकती थी और इस सबके बीच सामन्जस्य बनाने में संघ की दांतों तले पसीना आ जाता था। याद करें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के कार्यकाल को तो उस दौरान संघ के बाकी अनुषांगिकों ने कभी स्वदेशी के नाम पर तो कभी राम मंदिर के नाम पर और कभी समान नागरिक संहिता व धारा 370 के नाम पर भाजपा को इतना परेशान किया जिसे याद करके आज भी भाजपा के बुजुर्ग नेताओं का चेहरा तमतमा उठता है। यहां तक कि गुजरात में हुए दंगे के बाद तो संघ परिवार ने भाजपा के आंतरिक मामलों में भी सीधा हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया और उसी का नतीजा रहा कि प्रधानमंत्री वाजपेयी के लाख विरोध के बावजूद नरेन्द्र मोदी को गुजरात से वापस बुलाना संभव नहीं हो सका। इसी प्रकार राम मंदिर के मामले में भी भाजपा पर इतना दबाव बनाया गया कि आखिर में विहिप के तत्कालीन शीर्ष नेता अशोक सिंघल और आचार्य गिरिराज किशोर के साथ अटल और आडवाणी के बीच लंबे समय तक संवादहीनता की स्थिति बनी रही। लेकिन वह दौर अलग था और उस दौर के नेताओं का जिगरा भी अलग था। ना तो संघ के बाकी अनुषांगिकों को इस बात से कोई फर्क पड़ता था कि केन्द्र में भाजपा की सरकार रहे अथवा जाए और ना ही भाजपा को इस बात से फर्क पड़ता था कि सत्ता के कारण हासिल संसाधनों का लाभ उसके सहोदरों को भी मिल रहा है अथवा नहीं। उस दौर में टकराव होता था विचारों का और सिद्धांतों का जिसमें निजी अथवा सांगठनिक हित अक्सर गौण रहता था। लेकिन अब वक्त पूरी तरह बदल चुका है। अब तो ऐसा लग रहा है मानो सत्ता के लिये ही सिद्धांतों को गढ़ा जा रहा है और आवश्यकता के अनुरूप तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। जो सत्ता की अपेक्षा और आवश्यकता के अनुरूप ढ़ल जाए वही स्वीकार्य हो सकता है वर्ना वैचारिक और सैद्धांतिक मसले को आगे करके सरकार को सिरदर्दी देने में सक्षम लोगों को दूध में पड़ी हुई मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देने में जरा भी संकोच नहीं किया जा रहा है। इसकी मिसाल प्रवीण तोगड़िया के प्रकरण में भी दिखी जहां उन्हें कल तक संगठन का स्वाभाविक नेतृत्वकर्ता माना जा रहा था वहीं अब स्थिति यह है उनका कोई नाम लेने वाला भी विहिप या संघ में दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। तोगड़िया को हटाए जाने के बाद जिन लोगों के हाथों में विहिप की कमान सौंपी गई है उन्हें शायद बेहतर पता है कि क्या, कब और कितना कहना व करना है। ना उससे कम और ना ही उससे अधिक। नतीजन कल तक इस सरकार के कार्यकाल में ही हर हाल में अयोध्या में राम मंदिर बनवा लेने का खम ठोंकनेवाले विहिप के नेता अब इस पूरे मसले को बर्फ से लगाने पर आमादा दिखाई पड़ रहे हैं। हालिया दिनों हुए पांच राज्यों के चुनाव तक विहिप ने मंदिर निर्माण के लिये सरकार पर कानून बनाने का भारी दबाव बनाया हुआ था। इसके लिये देश भर में चार सौ से अधिक रैलियां भी हुईं और तमाम लोकसभा सांसदों, विधायकों, मुख्यमंत्रियों व अन्य जन प्रतिनिधियों को ज्ञापन भी सौंपा गया। दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान को ठसाठस भरके विहिप ने जब मंदिर निर्माण के लिये सरकार को मजबूर करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो ऐसा लगा कि इस पूरी कवायद का कुछ तो सकारात्मक परिणाम अवश्य निकलेगा। जाहिर है कि यह पूरी कोशिश मंदिर आंदोलन के बहाने हिन्दू समाज का जागरण करने की ही थी जिससे शायद भाजपा को भी उम्मीद रही होगी कि उसे इसका चुनावी लाभ अवश्य मिलेगा। लेकिन उस हो-हंगामे के बीच हुए पांच राज्यों के चुनाव परिणामों में जब भाजपा को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरीखे गढ़ गंवाने पड़े तब मंदिर मसले को तूल देने से होनेवाले राजनीतिक लाभ-हानि का अंदाजा भाजपा को भी लग गया और विहिप सहित समूचा संघ परिवार इस बात को समझ गया कि अगर इस कवायद को विराम नहीं दिया गया तो इसका नुकसान लोकसभा चुनाव में भी हो सकता है। इसी सोच का परिणाम दिख रहा है कि अब पूरा संघ परिवार वही बोली बोल रहा है जो भाजपा के लिये फायदेमंद और मुफीद हो। तभी तो मंदिर मसले को अगले चार महीने के लिये बर्फ से लगा देने का निर्णय ले लिया गया है। वजह ये बताई गई है कि अगर अभी इस मसले पर कोई अभियान या आंदोलन छेड़ा गया तो विराधी पक्ष यह कह कर बदनाम करेगा कि भाजपा को चुनावी लाभ दिलाने के लिये ऐसा किया जा रहा है। लिहाजा इस पूरे आंदोलन को राजनीति से दूर रखने के लिये चुनाव परिणाम आने तक इस मसले पर कोई पहलकदमी नहीं करने का फैसला किया गया है। लेकिन सवाल है कि जब भाजपा के राजनीतिक हानि-लाभ को ध्यान में रख कर ही उसके सहोदर अपनी नीतियां तय कर रहे हों तब सिद्धांतों और विचारधारा की बात कौन करेगा? कौन दबाव बनाएगा भाजपा पर कि वह अपने विचार और सिद्धांत पर सिर्फ मौखिक तौर पर ही गाना ना गाए बल्कि उसे आगे बढ़ाने की दिशा में काम भी करे। निश्चित ही संघ परिवार की यह राजनीतिक स्वार्थ परक नीति दूरगामी तौर पर ना सिर्फ भाजपा पर बल्कि संघ के विचारों व सिद्धांतों की विश्वसनीयता पर भी नकारात्मक असर ही डालेगा।