पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका






                (डॉ दीपा शुक्ला)


पर्यावरण के संरक्षण में महिलाओं की अहम भूमिका रही है। अलग -अलग विद्वानों ने अपने ढंग से पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका को परिभाषित किया है।
कार्ल मार्क्स के अनुसार,"कोई भी बड़ा सामाजिक परिवर्तन महिलाओं के बिना नहीं हो सकता है।",कोफ़ी अन्नान के अनुसार, "इस ग्रह का भविष्य महिलाओं पर निर्भर है।",
रियो डिक्लेरेशन में माना गया है कि पर्यावरण प्रबंधन एवं विकास में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
           1949 में पहली बार अमेरिका की महिला लेखक रेचिल कार्टसन ने सर्वप्रथम पर्यावरण संरक्षण का बीड़ा उठाया था। रेचिल ने ओसिनोग्राफी और मरीन बायोलॉजी पर विस्तृत लेखों के माध्यम से लोगों में पर्यावरण के प्रति जनजागरूकता लाने का प्रयास किया था । यदि भारतीय महिलाओं के संदर्भ में विश्लेषण किया जाये तो हम पाते हैं कि भारतीय महिलाएं वैदिक काल से ही पर्यावरण संरक्षण की पक्षधर रही हैं । इतिहास गवाह है कि भारत की महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं है । चाहे स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की बात हो, कला का क्षेत्र हो , साहित्य का क्षेत्र हो , समाज सेवा का क्षेत्र हो अथवा साहसिक कारनामो का क्षेत्र हो । भारत की महिलाएं सदैव पुरुषों से आगे रही हैं तो भला पर्यावरण - संरक्षण में भारत की महिलाएं पीछे क्यों रहें ।
         पर्यावरण के प्रत्येक जैविक और अजैविक घटकों के प्रति सम्मान और धार्मिक आस्था जैसे : पीपल और बरगद के वृक्षों की पूजा करना , नीम के पेड़ की पूजा करना , तुलसी और केले के पौधे लगाना , वनस्पतियों में ब्रह्म के रोएं की परिकल्पना , सूर्य - चंद्रमा को अर्घ्य देना , जल वायु अग्नि देवता का पूजन , भूमि पूजन आदि इसी बात का सूचक है कि प्राचीन काल से ही महिलाएं पर्यावरण संरक्षण में योगदान देती आयी हैं । परंतु आधुनिकता की दौड़ और औद्योगिकरण के युग में हम पर्यावरण के प्रति अपनी संवेदनाओं  और  कर्तव्यों को भूल चुके हैं । जिससे पर्यावरण निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा है ,परिणामतः पर्यावरण में अत्यधिक असंतुलन हो गया है ।अतः पर्यावरण संरक्षण हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है ; लेकिन भारतीय महिलाओं ने देश के कई पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों  में अहम भूमिका निभायी है 


         वर्ष 1730 में जोधपुर के महाराजा को महल बनाने हेतु लकड़ी की आवश्यकता हुई तो राजा के सैनिक खिजड़ी गाँव में पेड़ों को काटने हेतु पहुंचे । तब उस गाँव की " अमृता देवी " के नेतृत्व में 84 गाँव के लोगों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया । इसके बावजूद भी जब सैनिक पेड़ों को काटने लगे तो अमृता देवी पेड़ से चिपक गयीं और कहा कि पेड़ काटने से पहले मुझे काटना होगा । सैनिकों ने अमृता देवी को पेड़ के साथ काट दिया और यहीं से , मूल रूप से " चिपको आंदोलन " की शुरुआत हुई थी । अमृता देवी के इस बलिदान से प्रेरित होकर अन्य महिला और पुरुष पेड़ों से चिपक गए और लगभग 363 लोग विरोध के दौरान मारे गये । जब राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने पेड़ों को काटने से मना किया । खिजड़ी गाँव की इन महिलाओं ने एक ऐसा इतिहास रचा जो आज भी महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत है । 
              तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली स्थान से सन 1973 ई० में " चिपको आंदोलन" प्रारम्भ हुआ । इस आंदोलन के प्रणेता श्री सुंदरलाल बहुगुणा थे ; किंतु मुख्य भूमिका महिलाओं की ही थी । इसीलिए इस आंदोलन को " ईको फेमिनिस्ट " आंदोलन भी कहा जाता है । गौरा देवी के नेतृत्व में 26 मार्च 1974 को  रेणी के काटने आये लोगों को चमोली की महिलाओं ने यह कहकर भगा दिया कि -" जंगल हमारा मायका है हम इसे कटने नहीं देंगे।"  यह उनके  पर्यावरण संरक्षण के प्रति अनंत प्रेम को दर्शाता है । आज भी पहाडों पर महिलाएं यही प्रक्रिया अपनाकर पेड़ों को बचाने में तत्पर हैं । 
        गौरतलब बात तो यह है कि इस आंदोलन का संचालन करने वाली महिलाएं पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों की रहने वाली निरक्षर एवं अनपढ़ महिलायें हैं । इस आंदोलन को संगठित करने हेतु गाँव का प्रत्येक परिवार जंगलों की रक्षा के लिए सुरक्षाकर्मी तैनात करके सामूहिक चंदा अभियान से उनके वेतन भुगतान की व्यवस्था करता है । इस आंदोलन की प्रमुख अगुवा " गायत्री देवी " हैं । जिन्होंने घोषणा की है कि जंगलों एवं पर्यावरण की रक्षा हेतु उनका यह संघर्ष निरंतर जारी रहेगा ।
            " नर्मदा बचाओ आंदोलन " की प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध पर्यावरणविद  " मेधापाटकर " गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित हैं । सरदार सरोवर परियोजना के कारण वर्धा के स्थानीय पर्यावरण संरक्षण के लिए आवाज उठाने वाली मेधा पाटकर को जेल तक भी जाना पड़ा है । पर्यावरण संरक्षण में इनकी सक्रिय भूमिका को देखते हुए ही इन्हें अंतरराष्ट्रीय " ग्रीन रिबन " पुरस्कार से सम्मानित किया गया है जो नोबल पुरस्कार के समकक्ष है । 
         " नवधान्या  आंदोलन " के अंतर्गत जैविक खेती के लिए व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जाता है तथा किसानों को बीज वितरित किये जाते हैं । यह आंदोलन पर्यावरणविद " वंदना शिवा " के नेतृत्व में सन 1987 से चलाया जा रहा है । इसका मूल उद्देश्य " भोजन संपन्न नगर बनाना है ..।" साथ ही इस आंदोलन के माध्यम से भारत की जैव-  विविधता  के संरक्षण का भी कार्य किया जा रहा है । यह आंदोलन महिला केंद्रित है । उन्हें वर्ष 1993 के " राईट लिवलीहुड " अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है । 
         उदयपुर में महिलाओं द्वारा तैयार "सेवा मंडल " नामक संस्था ने पिछड़े भील  समुदाय को इतना अधिक प्रेरित किया कि अब वह सैकड़ों वर्षों से वीरान पड़ी ऊसर-  बंजर भूमि को हरा -भरा बनाने में जुट गया है । उनकी इस सफलता पर उन्हें वर्ष 1991 का " के० पी ० गोयनका पुरस्कार " इन महिलाओं द्वारा तैयार "सेवामण्डल नामक संस्था  " को मिला है। 
          श्रीमती मेनका गांधी का भी पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में बड़ा योगदान रहा है । वह एक जानी मानी पर्यावरणविद हैं । भारत में पशु अधिकारों के प्रश्न को मुख्य धारा में लाने का श्रेय मुख्यतः श्रीमती मेनका गाँधीजी को ही जाता है । सन 1992 में उन्होंने " पीपल फॉर एनिमल्स " नामक एक गैर सरकारी संगठन की स्थापना की जो आज पूरे भारत में पशु आश्रय चलाता है । 
           अंततः , काफी अध्ययन करने के पश्चात निष्कर्ष रूप में ,मेरा मानना यह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर से पूर्ण मनोयोग से पर्यावरण को संरक्षित रखने का सतत प्रयास करे । पर्यावरण संरक्षण के प्रति यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि  " जागो  देश - प्रेमियों जागो , तुम्हीं तो इसके माली हो। हरी - भरी धरती हो मेरी ,हर डाली खुशहाली हो ।। "  जहां तक पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका का प्रश्न आता है तो हम निःसंकोच  गर्व से कह  सकते हैं कि " महिलाएं श्रेष्ठ संरक्षक होती हैं और शत - प्रतिशत जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता रखती हैं ।