सिरदर्दी बढ़ाते सहयोगी






लोकसभा का चुनाव करीब आते ही संसद में सीटों की तादाद के लिहाज से सबसे अहम माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा के सहयोगी दल उससे सहयोग व समर्थन की एवज में अपनी पूरी कीमत वसूलने की कोशिशों में लग गए हैं। सहयोगियों के इस कीमत वसूली वाले रुख को लेकर भाजपा का  हैरान व परेशान होना स्वाभाविक ही है। वह भी तब जबकि भाजपा की सिरदर्दी बढ़ा रहे अनुप्रिया पटेल और ओमप्रकाश राजभर की पार्टियों क्रमशः अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की सूबे में इतनी भी औकात नहीं है कि वे अपने दम पर अपनी सीट निकाल सकें अथवा किसी को जीत या हार दिलाने में निर्णायक भूमिका निभा सकें। अगर सुहेलदेव भासपा की बात करें तो ओमप्रकाश राजभर ने वर्ष 2016 में मऊ में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था, जिसमें अमित शाह ने भी शिरकत की थी। इसी समारोह में बीजेपी अध्यक्ष ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन करने का ऐलान किया था और साल 2017 का यूपी विधानसभा चुनाव दोनों दलों ने साथ मिलकर लड़ा था। अलग पार्टी बनाने के बाद राजभर को पहली बार चुनावी जीत मिली थी। इससे पहले ओमप्रकाश राजभर की पार्टी ने दो-दो बार विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन खाता तक नहीं खुल सका था। राजभर ने वर्ष 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में कुल 97 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, लेकिन एक भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया था। इसके बाद सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव भी अपने दम पर लड़ा था। राजभर ने 16 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन एक भी सीट पर सफलता नहीं मिली थी। पार्टी ने इसके बाद साल 2012 का विधानसभा चुनाव भी अकेले लड़ा और एक बार फिर से मुंह के बल गिरी। हालांकि, राजभर की पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले 45 उम्मीदवार कम मैदान में उतारे थे। लगातार हार मिलने के बावजूद ओमप्रकाश राजभर ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में एक बार फिर से अपने उम्मीदवार उतारे थे और पार्टी को फिर से हार का मुंह देखना पड़ा। बीजेपी से गठजोड़ के बाद पार्टी ने 8 विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे और पहली बार 4 सीटों पर जीत नसीब हुई थी। कुछ ऐसी ही यात्रा अपना दल नेता अनुप्रिया पटेल की भी है। अपना दल में विभाजन के बाद से अपने पिता सोनेलाल पटेल के विरासत की लड़ाई लड़ रही अनुप्रिया की स्थिति अब 2014 जैसी नहीं रही। एक तरफ उनकी मां कृष्णा पटेल अनुप्रिया के खिलाफ उनके गढ़ मिर्जापुर में ही मोर्चा खोले हुए हैं। माना जा रहा है कि कृष्णा कांग्रेस के साथ गठबंधन करेंगी। लेकिन अपनी जमीनी स्थिति की अनदेखी करते हुए राजभर की ही राह पर चलते हुए अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल ने भी भाजपा को अल्टीमेटम दे दिया है। दरअसल अनुप्रिया इस बार के चुनाव में अपने लोकसभा सीटों की संख्या में इजाफा करवाना चाहती हैं। परंतु भाजपा उन्हें 2014 की ही भांति दो से अधिक सीट देने को तैयार नहीं है। भाजपा का तो यहां तक आकलन है कि अनुप्रिया मिर्जापुर के अलावा प्रतापगढ़ की सीट भी इस बार निकालने में सक्षम नहीं है परंतु गठबंधन धर्म की मजबूरियों के चलते वहां अनुप्रिया को दोनों सीट देने के लिए इस बार भी राजी है। लेकिन अनुप्रिया की महात्वाकांक्षा सिर्फ लोकसभा सीटें बढ़वाने की नहीं है बल्कि वे यूपी सरकार में भी अधिकतम भागीदारी के लिये दबाव बना रही हैं। साथ ही वे विभिन्न बोर्डों व निकायों में भी अपने लोगों को रखवाने की कोशिशों में जुटी हैं। इसके लिये उन्होंने भाजपा को अल्टीमेटम भी दे दिया है कि अगर 27 फरवरी तक उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो वे अपनी राहें अलग करने पर विचार शुरू कर देंगी। हालांकि भाजपा की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये दोनों गठबंधन में रहें अथवा ना रहें। लेकिन गठबंधन धर्म निभाते हुए पार्टी ने दोनों को मनाने व समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ओमप्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से 21 फरवरी को मुलाकात की थी। शाह से मुलाकात के बाद राजभर के बेटे हैं कहा था कि  भाजपा अध्यक्ष ने उन्हें 48 घंटों के अंदर सभी वादे पूरे करने का आश्वासन दिया है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ने बताया कि मांगें पूरी न होने की स्थिति में उनकी पार्टी राजग से अलग हो जाएगी। अरविंद के साथ मुलाकात के बाद राजभर ने कहा था कि वह शाह के आश्वासनों से संतुष्ट नजर आ रहे हैं परंतु आज उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में पत्रकारों से बातचीत करते हुए राजभर ने अपने वादे से फिर एक बार पलटते हुए कहा कि राजग में बने रहना उनकी मजबूरी नहीं है। वह  सपा, बसपा ,शिवसेना जैसे कई दलों से बातचीत कर रहे हैं वह कहीं भी जा सकते हैं। 24 फरवरी को वह राजग में रहने या फिर छोड़ने के बारे में अपने आखरी फैसले का ऐलान करेंगे। सच तो यह है कि अनुप्रिया और राजभर को सत्ता व गठबंधन में जितनी भागीदारी दी जा चुकी है उससे अधिक देने का कोई मतलब या औचित्य नहीं है। यह तो सोचना भी मूर्खतापूर्ण होगा कि इन सहयोगियों को मनाने और अपने साथ जोड़े रखने के लिये भाजपा उसी प्रकार अपने हितों से समझौता करेगी जैसा बिहार और महाराष्ट्र में राजग की एकजुटता को बरकरार रखने के लिये किया गया है। वैसे भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस के अलग चुनाव लड़ने और सपा-बसपा द्वारा चुनावी गठजोड़ बनाए जाने के बाद जो राजनीतिक समीकरण दिखाई पड़ रहा है उसमें भाजपा के लिये काफी सहूलियत की स्थिति बन गई है। ऐसे में जमीनी तौर पर काफी हद तक कटे हुए और मतदाताओं के बेहद सीमित व विखंडित वर्ग के प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाले अपना दल और सुहेलदेव भासपा सरीखे बेलगाम व अति महत्वाकांक्षी सहयोगी दलों के समक्ष आवश्यकता से अधिक दबने या झुकने का कोई औचित्य ही नहीं है। इन दोनों दलों को अपनी जमीनी स्थिति का आकलन करके ही कोई दबाव बनाना चाहिये वर्ना अधिक के लोभ में मौजूदा स्थिति बरकरार रहना भी मुश्किल हो सकता है।