*भोली सी चिड़िया*





                      *भोली सी चिड़िया*

      (डॉ दीपा शुक्ला)

        *भोली सी चिड़िया*

       मैं तो इक भोली सी चिड़िया,

       निर्मम जग को क्या पहचानूँ?

 

       अद्भुत एक आखेटक आया ,

       ऐसा  उसने  पाश  बिछाया ।

       कोमल  ह्र्द  मेरा  घबराया ,

       शब्द - बाण को मैं क्या जानूं?

       मैं तो इक भोली सी चिड़िया,

       निर्मम जग को क्या पहचानूँ?

 

       गर्व  मुझे था  निज  नैनों पर ,

       गर्व  मुझे था  निज  डैनों पर।

       उसने  मुझको  यूँ  भरमाया ,

       छल फ़रेब को मैं क्या जानूं ?

       मैं तो इक भोली सी चिड़िया,

       निर्मम जग को क्या पहचानूँ ?

 

       कातर  होकर  उड़ना  चाहा,

       नभ स्वछन्द विचरना चाहा।

       पंखों को त्यों काट गिराया ,

       कुटिल ह्रदय को मैं क्या जानूं?

       मैं तो इक भोली सी चिड़िया,

       निर्मम जग को क्या पहचानूँ?

 

       मैं घायल असहाय करूँ क्या,

       अपने नन्हें बच्चों की खातिर,

       मैंने  सारा  दुःख  बिसराया ,

       प्रातः उदय होगा क्या भानू ?

       मैं तो इक भोली सी चिड़िया,

       निर्मम जग को क्या पहचानूँ?