हुआ तो हुआ






दो दिनों तक चली मतगणना के बाद आज चुनाव आयोग ने औपचारिक तौर पर लोकसभा चुनाव के परिणामों का ऐलान कर दिया। इन चुनाव परिणामों में ना सिर्फ भाजपा को अप्रत्याशित जीत हासिल हुई है बल्कि विपक्ष की काफी हद तक कमर ही टूट गई है। इन चुनाव परिणामों को देखकर यह कहना मुश्किल हो गया है कि भाजपा इतनी बड़ी जीत अपनी रणनीतियों और मोदी सरकार की उपलब्धियों के कारण मिली है या विपक्ष की विफलता ही इसके लिये जिम्मेवार है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की बात करें तो इस बार के चुनावों में उसे जितनी करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है वह ना सिर्फ बेहद शर्मनाक बल्कि निहायत ही असहनीय भी है। कहने को भले ही पिछली बार के मुकाबले इस बार उसे आठ सीटें अधिक मिली हों लेकिन इस बार ही हार हर मायने पिछली शिकस्त से अधिक दर्दनाक भी है और शर्मनाक भी। शर्मनाक इसलिये क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अमेठी की प्रतिष्ठावाली परंपरागत सीट पर ही शिकस्त का सामना नहीं करना पड़ा है बल्कि कुल अठारह सूबों में पार्टी को एक भी सीट पर जीत दर्ज करा पाने में कामयाबी नहीं मिल पाई है और उसके नौ पूर्व मुख्यमंत्रियों के अलावा राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री के बेटे तक को हार स्वीकार करने के लिये विवश होना पड़ा है। इसके अलावा यह हार इसलिये भी दर्दनाक है क्योंकि पिछली बार की ही तरह इस बार भी कांग्रेस को इतनी सीटें नहीं मिल पाई हैं ताकि वह लोकसभा में विपक्ष के नेता के पद पर अपनी दावेदारी पेश कर सके। पिछली बार से इस बार के हार की तुलना करें तो आंकड़ों में भले ही कांग्रेस ने अपने पिछले प्रदर्शन में सुधार किया हो लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह असहनीय है। असहनीय इसलिये क्योंकि पिछली बार कांग्रेस के साथ कई कमजोरियां जुड़ी हुई थीं। दस साल तक लगातार सरकार चलाने के बाद उसे सत्ताविरोधी लहर का सामना करना पड़ा था। भ्रष्टाचार के आरोपों ने जनआक्रोश को बुरी तरह भड़का दिया था। महंगाई अपने चरम पर थी। सरकार की नितिपंगुता जगजाहिर हो चुकी थी। चारों तरफ निराशा का माहौल था और गैरकांग्रेसवाद की आग हर तरफ सुलग रही थी। लेकिन इस बार ऐसा कोई बोझ कांग्रेस के कांधे पर नहीं था। एक तरफ मोदी सरकार के कार्यकाल में नोटबंदी के कारण झेलनी पड़ी परेशानी, जीएसटी के कारण पेश आ रही उलझनों व समस्याओं और रोजगार रहित विकास के आंकड़ों ने आम जनमानस में एक विक्षोभ का वातावरण बनाया हुआ था वहीं राफेल के मामले ने भ्रष्टाचार की गुंजाइश और अंबानी, अडानी से लेकर बाबा रामदेव को मुहैया कराए गए मोटा माल कूटने के सर्वसुलभ माहौल का मसला भी लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ था। यहां तक मंदिर मसले से लेकर गऊ रक्षा और धारा 370 सरीखे मूलभूत विचारधारा से जुड़े तमाम मसलों को पांच साल के कार्यकाल के दौरान रद्दी की टोकड़ी में डाल दिये जाने को लेकर भाजपा के परंपरागत व कट्टर मतदाताओं को भी कहीं ना कहीं ठगे जाने सरीखा एहसास सता रहा था। रही-सही कसर विपक्षी एकजुटता की आवश्यकता को लेकर बनी सर्वदलीय आमसहमति ने पूरी कर दी। उसमें भी सोने पर सुहागा यह कि बेशक प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस की दावेदारी को स्वीकार करने में अधिकांश दलों के बीच असहजता का माहौल था लेकिन इस बात की कोशिश सभी सूबों के दल कर रहे थे कि कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके ही चुनाव लड़ा जाए ताकि भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव टाला जा सके। कांग्रेस के तमाम नेता व कार्यकर्ता भी कुछ ही दिन पूर्व हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ सरीखे भाजपा के अभेद्य दुर्ग कहे जाने वाले सूबों में जीत का झंडा गाड़ने में कामयाबी हासिल करने के बाद पूरी तरह आत्मविश्वास से लबालब थे। यानी समग्रता में देखें तो इस बार के चुनाव में ऐसा कोई कारण नहीं था जिसके दम पर मोदी सरकार की दोबारा वापसी की उम्मीद की जा सके। लेकिन इन तमाम मुद्दों को भुनाने में हासिल हुई नाकामी और सुबाई व राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई गई हेकड़ी ने पूरा बेड़ा गर्क कर दिया। आलम यह रहा कि सीट बंटवारे का पेंच सुलझाने में नाकाम रहने के कारण जिस तरह से यूपी, दिल्ली, पंजाब, चंडीगढ़ और हरियाणा से लेकर काफी हद तक मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान तक में कांग्रेस ना सिर्फ अकेली पड़ गई बल्कि सही मायने में देखें तो चैतरफा हमलों के केन्द्र में भी आ गई। इसके अलावा अपने घोषणापत्र की सकारात्मक बातें लोगों तक पहुंचाने के बजाय मोदी सरकार पर जोरदार हमले की नकारात्मक राह पकड़ना भी कांग्रेस को भारी पड़ा और कूटनीतिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को राफेल मामले में गलत तरीके से प्रस्तुत करने के कारण राहुल का माफी मांगना भी मतदाताओं के बीच कांग्रेस की विश्वसनीयता के लिये काल बन गया। रही सही कसर सेना के पराक्रम का राजनीतिक लाभ उठाने के लिये मोदी सरकार द्वारा बहाई गई प्रखर हिन्दुत्व आधारित राष्ट्रवाद की आंधी ने पूरी कर दी और कहा तो यह भी जा रहा है कि प्रियंका को सामने लाने के बाद उनका पूरा इस्तेमाल करने के बजाय अंतिम समय में उनको ना सिर्फ टिकट से वंचित करना बल्कि एक चेहरे के तौर पर स्थापित होने से उन्हें रोकना भी यही दर्शा रहा था कि कांग्रेस अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। ऊपर से मोदी पर किये गये निजी हमले, खुद को यूपी में 'वोटकटवा' घोषित कर देना और गैर-भाजपाई दलों के प्रति अपनाई गई पल में तोला पल में माशा की नीति ने भी कांग्रेस के प्रति आम लोगों में वितृष्णा और अविश्वास का भाव भर दिया। साथ ही किसान कर्ज माफी के जिस मुद्दे को हथियार बनाकर विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की उसे सही तरह से क्रियान्वित करने में हासिल नाकामी ने रही-सही विश्वसनीयता को भी धो दिया। नतीजन कांग्रेस ना तो विकल्प के तौर पर उभर सकी और ना ही जनअपेक्षाओं को पूरा कर पाने का विश्वास जगा सकी। ऐसे में अब हार के बाद संवेदना और निराशा की धार बहाते हुए इस्तीफे का अंबार लगाने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला बल्कि बेहतर होगा कि नीतिगत व कूटनीतिक कमियों व खामियों को पहचान कर उसे दूर करने का प्रयास किया जाए और आगामी चुनावों में ऐसी गलतियां नहीं दोहराने का संकल्प लिया जाए।