समीकरणों की सियासत
सियासत और सिनेमा में एक सबसे बड़ी समानता यह है कि इन दोनों में संभावनाएं तो असीमित होती हैं लेकिन इसमें सफलता का कोई फार्मूला या तय समीकरण नहीं होता। यह जानते हुए भी लोग सियासत में भी समीकरणों को आजमाते रहते हैं और सिनेमा भी फार्मूले के हिसाब से बनती रहती है। लेकिन कोई तुक्का लग जाए और इसमें सफलता हासिल हो जाए ऐसा बहुत कम ही होता है। बल्कि होता यह है कि चुनावी भवसागर से पार उतरने के लिये जो समीकरणों का सहारा लेता है उसकी नाव अक्सर मंझधार में डूब ही जाती है और जो लीक से हटकर अपनी राह अलग बनाता है वही अक्सर मंजिल तक पहुंच पाता है। वर्ना अगर तय समीकरणों के हिसाब से सियासत में सफलता हासिल कर पाना संभव होता तो दिल्ली की 70 में से 67 सीटें नयी नवेली आम आदमी पार्टी को नहीं मिलतीं और कांग्रेस सरीखी पार्टी को शून्य पर सिमटने के लिये मजबूर नहीं होता पड़ता। इसी प्रकार यूपी की राजनीति में ना तो बसपा शून्य पर सिमटती और ना ही वामदलों का समूचे देश में सूपड़ा साफ होता। यूपी में अगर भाजपा को दो तिहाई से भी अधिक सीटों के साथ विधानसभा चुनाव में जीत हासिल होती है अथवा लोकसभा की 80 में से 73 सीटें हासिल करने में उसे कामयाबी हासिल होती है तो इसका सीधा सा मतलब यही है कि कोई समीकरण कामयाब नहीं हुआ। ना तो 18 फीसदी मुसलमानों के साथ मिलकर 13 फीसदी यादवों और 20 फीसदी दलितों व पांच फीसदी जाटों ने किसी एक के पक्ष में वोट किया और ना ही किसी एक जाति या संप्रदाय ने किसी एक ही दल को अपना मसीहा माना। वर्ना सूबे की सत्तर विधासभा सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमानों का दबदबा है और उनके साथ यादव भी मिल जाएं तो जीत तय हो सकती है। लेकिन अगर इतनी सीटें भी किसी एक गैर भाजपाई दल को ना मिल पाई हों तो कैसे माना जाए कि सूबे का मतदाता आज भी जाति, धर्म, नस्ल या भाषाई तौर पर बिखरा हुआ है। यही हाल कमोबेश सभी सूबों में दिखाई पड़ता है। अगर ऐसा नहीं होता तो बीते दिनों हुए जम्मू-कश्मीर से स्थानीय निकायों के चुनाव में धुर राष्ट्रवादी और  हिन्दुओं की पार्टी के तौर पर प्रचारित की जाने वाली भाजपा को दक्षिण कश्मीर के आतंक प्रभावित इलाकों से लेकर घाटी तक में जीत का परचम लहराने में हर्गिज कामयाबी नहीं मिल सकती थी। लेकिन इन हकीकतों के बाद भी जातीय राजनीति करने वाले दलों की आंखें नहीं खुल पाई हैं और उनके द्वारा प्रचारित समीकरणों को आधार बनाकर जमीनी स्थिति की व्याख्या करने वालों को जातीय गुणाभाग से आगे की राह दिखाई नहीं पड़ती है तो इसका क्या इलाज हो सकता है? सच तो यह है कि हर चुनाव में जिस तरह से एक तरफा तौर पर मतदाताओं का किसी एक पार्टी के पक्ष में दिखाई पड़ने का चलन बीते तकरीबन पांच-छह सालों से दिखाई पड़ रहा है उसके पीछे समाज में जातीय दीवार का टूटना ही है। हालांकि कभी कभार ऐसा महसूस होता है कि जातीय दीवारें अभेद्य हैं लेकिन ऐसी तस्वीर तभी उभरती है जब सामने कोई स्पष्ट विकल्प नहीं होता और भविष्य असुरक्षित व अंधकारमय दिखाई पड़ता है। ऐसे में अपने जातीय व सामाजिक सुरक्षा कवच को मजबूत करने के लिये मतदाता आंखें मूंद कर अपने धर्म, जाति या भाषा की बेहतरी की उम्मीद में वोट कर देता है। लेकिन निश्चित और निर्णायक विकल्प सामने हो और बाकियों के मुकाबले वह हर लिहाज से बेहतर दिखाई पड़ रहा हो तो हर वर्ग, जाति व समुदाय का मतदाता उसके पक्ष में एकजुट होने में संकोच नहीं करता। ऐसे में मतदाता भी तमाम संकीर्ण सोच को छोड़कर विस्तृत वैचारिक व सैद्धांतिक आयाम को अंगीकार करते हुए अपना मतदान करता है। ऐसी ही तस्वीर इस बार के चुनाव में भी दिखाई पड़ रही है जिसमें सीधी लड़ाई मोदी के समर्थन और विरोध की है। इसमें जाति, धर्म, भाषा या संप्रदाय का असर सीमित होकर रह गया है। जो खिलाफ में वोट कर रहे हैं वो सिर्फ यह देख रहे हैं भाजपा के उम्मीदवार को हरा पाने में कौन सक्षम है। इसके उलट जो समर्थन में हैं वे यह भी नहीं देख रहे कि भाजपा के टिकट पर किस जाति का उम्मीदवार मैदान में है। इस जमीनी हकीकत को कोई और समझे या ना समझे लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने बेहतर समझ लिया है। तभी तो भाजपा विरोधी वोटों में बिखर को रोकने के लिये ही कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा गांधी ने खुले शब्दों में मतदाताओं को यह बता दिया है कि कांग्रेस का मकसद गठबंधन की जीत में रोड़े अटकाना नहीं बल्कि भाजपा के वोटबैंक में सेंध लगाकर उसकी हार सुनिश्चित करना है। इसके अलावा वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने भी यह संदेश प्रसारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि कांग्रेस अपने दम पर सरकार बनाने के लिये चुनाव नहीं लड़ रही है। यानि कांग्रेस ने समझ लिया है कि सिर्फ जातीय समीकरण को साधने भर से इस बार के चुनाव में सफलता हासिल नहीं की जा सकती है। तभी तो उसने अब सीधे तौर पर भाजपा विरोधी वोटों को एक तरफा तरीके से प्रवाहित करने की जरूरत खुले शब्दों में जता दी है। दूसरी ओर जातीय समीकरण साध कर अंकगणित के सहारे सियासी समीकरण हल करने के फार्मूले पर अमल कर रही सपा, बसपा व रालोद या तो जमीनी हकीकत को समझ नहीं पा रही है या फिर समझने के बावजूद सिर्फ इस वजह से मानना नहीं चाहती क्योंकि अब अपनी रणनीति में बदलाव करने का उनके पास वक्त ही नहीं बचा है। वजह चाहे जो भी लेकिन इतना तो साफ है कि अब मतदाताओं को बेवकूफ व संकीर्ण नहीं माना जा सकता। वह पूरी तरह समझदार है और उसे बेहतर पता है कि किसके पक्ष में मतदान करना है और किसको नकारना है। ऐसे में इतना तो तय है कि इस बार का चुनाव परिणाम इस मायने में बेहद दूरगामी असर वाला होने जा रहा है कि इसके बाद जातीय फार्मूले को सफलता का मूल मानने का भ्रम पूरी तरह दूर हो जाएगा और भविष्य में अंकगणित से सियासी समीकरण साधने की कोशिश शायद ही कोई करे।