सत्य को स्वीकारने से परहेज






सत्रहवीं लोकसभा के लिये हो रहे चुनाव अब निर्णायक दौर में पहुंच चुके हैं। अब सिर्फ दो चरणों का चुनाव ही बाकी है और उसके बाद 23 मई को जत-हार का नतीजा भी सामने आ जाएगा। लेकिन इस बीच जिस तरह से अंतिम दौर के चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित करने के सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तू-तू मैं-मैं और आरोप प्रत्यारोप का नया दौर आरंभ हुआ है वह निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है। खास तौर से शब्दों के चयन और भाषा शैली को लेकर जिस तरह की गिरावट देखी जा रही है उसके बारे में ना सिर्फ राजनीतिक दलों को बल्कि पूरे समाज को आत्म चिंतन करने की जरूरत है कि आखिर इस हद तक गिरने और गिराने का सिलसिला कब और कहां जाकर थमेगा। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बोफोर्स घोटाले की याद ताजा करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी का नाम लिये जाने को लेकर राजनीतिक हलके में भारी कोहराम मचा हुआ है। तमाम तरह की संवेदनशील दलीलें देकर यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने राजीव का नाम सामने लाकर बहुत बड़ी गलती कर दी है। राजीव को देश के लिये शहीद बताकर इसे शहादत के अपमान से भी जोड़ा जा रहा है और यह बताने का प्रयास भी किया जा रहा है कि मोदी के पास विपक्ष को घेरने के लिये कोई मुद्दा नहीं बचा तो अब वे शहीदों का अपमान कर रहे हैं। हालांकि राजीव की मौत वास्तव में शहादत थी या नहीं इस पर अलग से बहस हो सकती है क्योंकि जिस लिट्टे ने उनकी हत्या की उसे पैदा करने व उसका लालन-पालन व संरक्षण करने का इल्जाम राजीव की मां यानि इंदिरा गांधी पर ही है। इसके अलावा इंदिरा की मौत के बाद लिट्टे के मामले को राजीव ने जिस बचकाने तरीके से संचालित किया और लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण को दिल्ली बुलाकर उसे अपमानजनक समझौता करने के लिये मजबूर करने के बाद लिट्टे का सफाया करने के लिये भारत की फौज को श्रीलंका भेज दिया उसी का नतीजा रहा कि लिट्टे ने राजीव से बदला लेने के लिये उनकी हत्या को अंजाम दिया। यानि यह विशुद्ध रूप से राजनीतिक हत्या का मामला है जिसे किसी भी सूरत में देश हित के लिये शहादत का नाम नहीं दिया जा सकता है। लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि राजीव की हत्या आतंकी वारदात का नतीजा थी और उनकी मौत के साथ भारत ने अपना तत्कालीन प्रधानमंत्री खो दिया था लिहाजा उनकी मौत के मसले को राजनीति में घसीटने का प्रयास करना ना तो उचित है और ना ही अपेक्षित। लेकिन राजीव का नाम भ्रष्टाचार के मामले में लेने पर कांग्रेस का पूरा कुनबा ही नहीं बल्कि तमाम भाजपा विरोधी ताकतें आग बबूला हो उठी हैं। मोदी के इस बयान का राजनीतिक लाभ उठाने के लिये पूरी ताकत झोंक दी गई है और मामले को गर्माने के लिये तमाम तरह की अनाप शनाप बयानबाजी की जा रही है। कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा गांधी ने तो इस मामले को लेकर मोदी को खूब खरी खोटी सुनाई है और उनकी तुलना दुर्योधन से कर दी है। इसी प्रकार मोदी के लिये छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने भी अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया है और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी। लेकिन सवाल है कि आखिर मोदी ने जो कहा उसमें गलत क्या था। क्या यह सच नहीं है कि राजीव पर बोफोर्स तोप की खरीद में घोटाले का आरोप लगा और इसके कारण उन्हें सत्ता भी गंवानी पड़ी और लंबी जांच का सामना भी करना पड़ा। हालांकि सच यह भी है कि निचली अदालत ने उन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया और इसके खिलाफ ऊपरी अदालत में मुकदमा दायर करने की औपचारिकता को तत्कालीन कांग्रेसनीस संप्रग सरकार के कार्यकाल में सीबीआई ने जरूरी नहीं समझा और बाद में वर्ष 2018 में जब भाजपा की सरकार के कार्यकाल में दोबारा मामले की फाइल खोलने की कोशिश हुई तो अदालत ने इतने पुराने मामले को नए सिरे से सुनने से पल्ला झाड़ लिया। यानि इस सच को भी नकार नहीं सकते कि बोफोर्स की जांच पूरे तौर पर हुई ही नहीं और न्याय की अंतिम व सर्वोच्च सीढ़ी तक ले जाकर दूध का दूध और पानी करने की जहमत नहीं उठाई गई। यानि अगर यह कहा जाए कि बोफोर्स के मामले में चोरी तो हुई जिसके विदेशी सूत्रधारों के तार भी सामने आए लेकिन पूरा सबूत इकट्ठा करके पैसे के प्रवाह को पूरे तौर पर स्थापित नहीं किया जा सका जिसके कारण आरोपियों को अदालत में सजा नहीं दिलाई जा सकी तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। वास्तव में देखा जाये तो इस मामले के सामने आने से कांग्रेस भले ही आपे से बाहर होती हुई दिख रही हो लेकिन मामले का राजनीतिक लाभ लेने की पहल भी उसने ही की है। वर्ना मोदी ने राजीव की मौत पर तो कोई सवाल ही नहीं उठाया जिससे शहादत का अपमान होने की बात कही जा सके। यह बात तो खुद कांग्रेस और उसके शुभचिंतक ही प्रचारित कर रहे हैं। रहा सवाल सच से भागने का तो कांग्रेस भले ही कुछ भी कहे लेकिन राजीव पर दाग तो 1984 में हुए सिख नरसंहार का भी है और भोपाल गैस त्रासदी के मामले की लीपापोती करके आरोपियों को सेफ पैसेज देकर भगाने का भी। यानि इस देश की आम जनता के गुनहगार तो राजीव थे ही। लेकिन यह कहना कि किसी मरे हुए व्यक्ति को राजनीति में घसीटना मर्यादा के खिलाफ है तो इसके लिये भी दोषी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ही हैं जिन्होंने बिना किसी सबूत के मोदी को राफेल मामले में चोर बताने की राह पकड़ी। हर जनसभा में चैकीदार चोर है के नारे लगवाए। सौ बार किसी इमानदार को चोर कहा जाए और वह पलट कर एक बार यह कह दे कि तू भी चोर और तेरा बाप भी चोर तो ऐसे में किसे दोषी मानें और किसे निर्दोष। सच तो यह है कि कांग्रेस किसी भी सूरत में बीती सच्चाई को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है जबकि उसे यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि सच की उम्र अजर-अमर सरीखी होती है और उसे कितना ही दबाया या छिपाया जाए लेकिन मौका पाकर वह सामने आ ही जाता है।