बेहाल स्वास्थ्य की बानगी




देश की स्वास्थ्य सेवाएं किस कदर लचर, अस्त-व्यस्त व नाकाफी हैं इसकी तस्वीर अक्सर दिखाई पड़ती रहती है। कहीं कोई महिला सड़क पर प्रसव करने को मजबूर होती है तो कहीं इलाज के अभाव में दम तोड़ते मरीज दिखाई पड़ते हैं। कहीं एम्बुलेंस के अभाव में कांधे पर शव ले जाते पिता या पति की तस्वीर दिखाई पड़ती है तो कहीं पोस्टमार्टम के लिये एक बंद कमरा उपलब्ध नहीं हो पाता है। ये तमाम तस्वीरें कोई पुरानी नहीं हैं बल्कि बीते पांच के दिनों के भीतर ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं जिसे देखकर यकीन करना मुश्किल है कि यह खबरें उसी देश की हैं जो मंगल पर अपना अंतरिक्ष यान उतार चुका है और चंद्रमा पर इंसान को भेजने जा रहा है। खैर देश की स्वास्थ्य सेवा की अनुपलब्धता का इससे बड़ा कोई दूसरा प्रमाण नहीं हो सकता कि अपनी मोटरसाइकिल से मरीजों को अस्पताल पहुंचाने वाले को सरकार भी पद्म सम्मान प्रदान करके खुद को गौरवान्वित महसूस करती है। ऐसी व्यवस्था को धिक्कार और लताड़ ना भेजें तो और क्या कहें? भले ही आर्थिक व सामरिक क्षेत्र में भारत की तरक्की का पूरी दुनिया में डंका बज रहा हो लेकिन आम लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं में शुमार होनेवाले स्वास्थ्य के क्षेत्र की स्याह तस्वीर से संबंधित खबरें पूरी दुनिया में भारत का सिर शर्म से झुका रही हैं। कभी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट से नजरें मिलाने में हमें शर्म आती है तो कभी संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न मंचों पर होनेवाली चर्चाओं को लेकर असहज स्थिति का सामना करना पड़ता है। हालांकि इन तस्वीरों में अगर सुधार होने के शुरूआती लक्षण भी दिखाई पड़ते तो संतोष की एक लकीर आम भारतीयों के माथे पर उभर सकती थी लेकिन स्थिति यह है कि बीते कई दशकों से साल दर साल स्वास्थ्य क्षेत्र की दुर्दशा में इजाफा ही होता जा रहा है। यह सिलसिला कांग्रेस के राज में भी जारी था और मौजूदा मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में भी बदस्तूर जारी है। लेकिन मजाल है कि सरकार की कान पर जूं भी रेंग जाए। अगर सरकार ने इमानदारी से स्वास्थ्य सेवाओं की आम लोगों तक सुलभता की दिशा में प्रयास भी किया होता तो आज ऐसी तस्वीर नहीं दिखाई पड़ती जिसमें नीति आयोग को औपचारिक तौर पर यह बताना पड़ता कि देश के अधिकांश सूबों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बीते सालों की तुलना में लगातार बदतर ही हुई है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा विश्वबैंक के तकनीकी सहयोग से तैयार नीति आयोग की 'स्वस्थ्य राज्य प्रगतिशील भारत' शीर्षक से जारी रिपोर्ट में राज्यों की रैंकिंग से यह बात सामने आई है कि देश का स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता ही जा रहा है। जिन राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं में सबसे तेज गिरावट दर्ज हुई है उनमें 'चमकी बुखार' के मामलों का खुलासा होने के बाद राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी फजीहत करा रहे बिहार का नाम ही सबसे ऊपर है। नीति आयोग की रिपोर्ट में इन्क्रीमेन्टल रैंकिंग यानी पिछली बार के मुकाबले सुधार के स्तर के मामले में 21 बड़े राज्यों की सूची में बिहार 21वें स्थान के साथ सबसे नीचे है जबकि उत्तर प्रदेश 20वें, उत्तराखंड 19वें और ओडिशा 18वें स्थान पर है। रिपोर्ट के अनुसार संदर्भ वर्ष 2015-16 की तुलना में 2017-18 में स्वास्थ्य क्षेत्र में बिहार के संपूर्ण प्रदर्शन सूचकांक में 6.35 अंकों की गिरावट आई है जबकि उत्तर प्रदेश के सूचकांक में 5.08 अंक, उत्तराखंड के सूचकांक में 5.02 अंक और ओडिशा के सूचकांक में 3.46 अंक की गिरावट दर्ज की गई है। फरवरी 2018 के बाद यह दूसरा मौका है जब नीति आयोग ने स्वास्थ्य सूचकांक के आधार पर राज्यों की रैंकिंग की है। पिछली बार के सूचकांक में वर्ष 2014-15 के आधार पर 2015-16 के आंकड़ों की तुलना की गई थी। इस सूचकांक से सामने आई तस्वीर की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें केवल कागजी आधार पर तुलनात्मक रिपोर्ट तैयार नहीं किया गया है बल्कि यह रैंकिंग 23 संकेतकों के आधार पर तैयार की गई है जिनमें स्वास्थ्य परिणाम (नवजात मृत्यु दर, प्रजनन दर, जन्म के समय स्त्री-पुरूष अनुपात आदि), संचालन व्यवस्था और सूचना (अधिकारियों की नियुक्ति अवधि आदि) तथा प्रमुख इनपुट आंकड़ों व प्रक्रियाओं मसलन चिकित्सकों, परिचारकों व अन्य सहायकों के खाली पड़े पद व जन्म पंजीकरण आदि का भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट जारी करने के मौके पर नीति आयोग के सदस्य वी के पॉल का यह कहना बेहद महत्वपूर्ण है कि स्वास्थ्य के मोर्चे पर मौजूदा बदहाली को दूर करने के लिये बजट का आबंटन बढ़ाने की आवश्यकता है।  साथ ही उन्होंने स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिये स्थिर प्रशासन, महत्वपूर्ण पदों को भरा जाना तथा स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की जरूरत पर बल देते हुए सुझाव दिया है कि केंद्र सरकार को सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए और राज्यों को स्वास्थ्य पर खर्च औसतन अपने राज्य जीडीपी के 4.7 प्रतिशत से बढ़ाकर 8 प्रतिशत करना चाहिए। हालांकि यह सच है कि स्वास्थ्य का मसला राज्यों का विषय है लेकिन एक समग्र नीति नहीं होने का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। आलम यह है कि देश के जीडीपी का केवल डेढ़ फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च हो रहा है और उसमें भी .24 फीसदी ही सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं व सेवाओं के हिस्से में आ रहा है।  वह भी तब जबकि विश्व के सभी देशों का स्वास्थ्य के क्षेत्र में औसत खर्च उनकी कुल जीडीपी का छह फीसदी है। इस लिहाज से देखें तो निश्चित तौर पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में बजट को बढ़ाए जाने और कम से कम उसे वैश्विक औसत के बराबर लाया जाना निहायत ही आवश्यक है। उसके बाद ही धीरे-धीरे इस क्षेत्र में सुधार की तस्वीर नुमाया होगी। वर्ना जो मौजूदा सूरतेहाल है उसमें आम आदमी के लिये इलाज के बिना मरने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हालांकि मोदी सरकार ने जीवनरक्षक दवाओं व उपकरणों की कीमतों को नियंत्रित करने, हर राज्य में एम्स के स्तर का अस्पताल बनवाने, जेनरिक दवाओं की उपलब्धता का विस्तार करने और चिकित्सा की विभिन्न विधाओं व धाराओं में एकरूपता कायम करने की दिशा में कई बड़े व ठोस कदम अवश्य उठाए हैं और पांच लाख तक का इलाज कराने के लिये आयुष्मान योजना भी शुरू की गई है लेकिन जरूरत है स्वास्थ्य क्षेत्र में केन्द्र और राज्यों के बीच नीतिगत, सैद्धांतिक व व्यावहारिक स्तर पर एकरूपता कायम करने की और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बजट का आवंटन बढ़ाने और स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करनेवालों को जवाबदेह बनाने की ताकि आम लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा से वंचित होकर दम तोड़ने के लिये मजबूर न होना पड़े।