हमारी राजनीति में इतनी कटुता क्यों

(बाल मुकुन्द ओझा)


लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ है लोगों का शासन। यह एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है। भारत क्षेत्रफल में दुनिया का सातवाँ और जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश है। आजादी के बाद देश में लोकतान्त्रिक प्रणाली को चुना गया। लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में बहुमतवाला दल शासन सँभालता है, अन्य दलों के सदस्य सत्तारूढ़ दल के कार्यकलापों की आलोचना करते हैं। सरकार बनने के बाद जो दल शेष बचते हैं, उनमें सबसे अधिक सदस्योंवाले दल को विरोधी दल कहा जाता है । भारतीय राजनीति में विपक्ष का अर्थ, जो सत्ता में नहीं है,से है। विपक्ष के रूप में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। स्वस्थ विपक्ष का कार्य सरकार की सकारात्मक तरीके से आलोचना करना होना चाहिए। स्वस्थ विपक्ष के रूप में विपक्ष को जनता के हित से जुड़े मुद्दों पर सरकार की आलोचना व बहस करना चाहिए। आजादी के बाद जो संघर्ष तत्कालीन विपक्षी दलों ने शुरू किया था वह सत्ता की नहीं बल्कि विचारों की प्रत्यक्ष लड़ाई थी। उनके विचारों में राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के तत्व मौजूद थे। आज स्थिति बिलकुल उलट है। वर्तमान के विपक्षी दलों में न तो विचारों के साथ चलने को लेकर कोई उत्साह है, न प्रतिबद्धता। लोकतंत्र में दो सबसे बड़ी पार्टियां ऐसी कटु भाषा का प्रयोग एक-दूसरे के लिए नहीं करतीं जैसे हमारे यहां होता है। यही कारण है की मोदी को दुबारा सत्ता हासिल करने में कोई भी नहीं रोक पाया।
1967 से पूर्व देश में सत्ता और विपक्ष में आलोचना के बावजूद आपसी सम्बन्ध बहुत मधुर थे। उस दौरान सत्ता पक्ष बहुत मजबूत था और विपक्ष बिखरे हुए। इसके बाद भी विपक्ष बहुत प्रभावी था। लोहिया से लेकर मधु लिमये, ए के गोपालन , हिरेन मुखर्जी, कृपलानी, राजाजी, नम्बूदरीपाद भूपेश गुप्ता ,अटल बिहारी वाजपेयी, बलराज मधोक, लालकृष्ण आडवाणी , मीनू मसानी, नाथपई, पीलू मोदी, जॉर्ज फर्नांडीज, एन जी रंगा, ज्योतिर्मय बसु सरीखे विरोध पक्ष के नेताओं से सत्ता पक्ष थर्राता था। लोहिया प. नेहरू के सबसे बड़े आलोचक थे मगर दोनों के मित्रवत संबधों पर कभी कोई आंच नहीं आयी। दो पूर्व प्रधानमंत्रियों वाजपेयी और नरसिम्हा राव के संबंध जग जाहिर है। 1967 के बाद पक्ष और विपक्ष की कटुता बढ़ी विशेषकर इंदिरा गाँधी के सत्ता सँभालने के बाद। जिसकी परिणीति आपातकाल में बदली। तबसे दोनों पक्षों में आपसी सौहार्द लगभग समाप्त सा हो गया।
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जो कटुता देखने को मिली वह लोकतंत्र के हित में नहीं कही जा सकती। इससे हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली का ह्रास हुआ है। संवैधानिक पदों पर बैठे राजनेताओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है वे लोकतंत्र के लिए घातक है। आज सत्ता और विपक्ष के आपसी सम्बन्ध इतने खराब हो गए है की आपसी बात तो दूर एक दूसरे को फूटी आँख भी नहीं सुहाते। दुआ सलाम और अभिवादन भी नहीं करते। औपचारिक बोलचाल भी नहीं होती। लोकतंत्र में सत्ता के साथ विपक्ष का सशक्त होना भी जरुरी है मगर इसका यह मतलब नहीं है की कटुता और द्वेष इतना बढ़ जाये की गाली गलौज की सीमा भी लाँघी जाये। हमारे देश में राजनीतिक माहौल इतना कटुतापूर्ण हो गया है कि लोकतांत्रिक राजनीति के इतिहास में कहीं नहीं हुआ होगा। सोशल मिडिया , टेलीविजन , फेसबुक और ट्विटर जैसे संचार साधनों के बढ़ते दायरे ने आग में घी का काम किया है। भारत के लोकतंत्र के लिए इससे बुरा और क्या हो सकता है। लोकतंत्र की सफलता पक्ष और विपक्ष की मजबूती में है। लोकतंत्र तभी सुदृढ़ होगा जब राष्ट्रीय हितों के मामलों में दोनों की एक राय हो। देश सबसे बड़ा है। मगर ऐसा नहीं हो रहा है जो दुखद है। अब समय का तकाजा है सभी राजनीतिक पार्टियों में जो कुछ गंभीर और समझदार नेता बचे हैं वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सभ्यता और मर्यादा बनाए रखने के लिए कोशिशें शुरू करें। उन्हें विधायिका की संस्थाओं के बाहर सरकार और विपक्ष के बीच नियमित बैठकों को आयोजित करना चाहिए। सभी लोकतंत्र प्रेमियों को इस पर गहनता से मंथन करने की जरुरत है।