सवाल स्वास्थ्य में सुशासन का





बिहार की बदहाल और बेहाल स्वास्थ्य सेवाओं की तस्दीक तो उन आंकड़ों से ही हो जाती है जिसके मुताबिक स्वास्थ्य क्षेत्र के साथ दुनिया के जिन देशों में सबसे अधिक सौतेला व्यवहार होता है उनमें मुख्य रूप से भारत का नाम भी शामिल है। लेकिन भारत के जिस सूबे में स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत सबसे खराब, लचर और दयनीय है वह बिहार ही है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो दुनिया के जिस हिस्से में स्वास्थ सेवाओं की सबसे अधिक दुर्दशा हो रही है वह है बिहार। बात चाहे आबादी की तादाद पर डाॅक्टरों के अनुपात की करें या मरीजों की संख्या के अस्पतालों की क्षमता की तुलना करें। हर मामले में दुनिया का सबसे फिसड्डी इलाका बिहार ही है। आज राष्ट्रीय विमर्श हो रहा है बिहार में दिमागी बुखार से हो रही बच्चों की मौत पर और अस्पताल परिसर में पाए जा रहे नरकंकालों पर। लेकिन समझने की बात है कि ये सब बातें तात्कालिक हैं जिनके कारण भी दूरगामी हैं और दूरगामी तौर पर इनका परिणाम अभी कई सालों तक लगातार भुगतने के अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि शासन और प्रशासन की नजर में सुशासन के दायरे में स्वास्थ्य सेवाएं आती ही नहीं हैं। बात चाहे पूर्ववर्ती सरकारों की करें या फिर बीते डेढ़ दशक से लगातार सूबे की सत्ता का संचालन कर रहे सुशासन कुमार के नाम से विख्यात मुख्यमंत्री नितीश कुमार के काम काज की। आम लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराना अथवा स्वास्थ्य क्षेत्र की बदहाली दूर करना ना तो पहले की सरकारों की प्राथमिकताओं में शामिल था और ना ही मौजूदा सरकार की नजर में ऐसा करना उसकी बड़ी जिम्मेवारी के तहत आता है। तभी तो स्वास्थ्य विभाग को अपने हाथों में लेकर उसकी ओर ध्यान देना मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने कभी जरूरी ही नहीं समझा। पिछली दफा जब उन्होंने भाजपा से अलग होकर महागठबंधन के बैनर तले राजद व कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज कराने के बाद सरकार बनाई तो स्वास्थ्य विभाग की कमान आठवीं कक्षा फेल कहे जानेवाले लालू के लाल तेजप्रताप यादव को दे दी। तेजप्रताप ने स्वास्थ्य विभाग पर कितना ध्यान दिया होगा यह शायद ही किसी को अलग से बताने की जरूरत हो लेकिन उन्होंने अपने विभाग का फायदा अपने परिवार को दिलाने में कोई कोताही नहीं बरती बल्कि पीएमसीएच के तीन डाॅक्टरों को उन्होंने अपने पिता की तीमारदारी के लिये खास तौर पर लगा दिया। वह तो बाद में बवाल कटा तब जाकर उन डाॅक्टरों को पीएमसीएच में दोबारा सेवाएं देने के लिए भेजा गया। लेकिन बाद में नितीश की महागठबंधन में खटपट हो गई और उनहोंने एक बार फिर भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना ली। तब भी उनहोंने स्वास्थ्य विभाग के साथ सौतेले व्यवहार का सिलसिला जारी रखा और इस विभाग के संचालन की जिम्मेवारी भाजपा नेता मंगल पांडे को दे दी। मंगल पांडे को भाजपा ने चुनावी राजनीति में जिस कदर जोता वह किसी से छिपा नहीं है। वैसे अगर उन्हें ना भी जोता जाता तो क्या फर्क पड़ता स्वास्थ्य विभाग पर यह सबको पता ही है। वास्तव में देखें तो स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना अगर प्राथमिकता में नहीं भी है तो कम से कम समाज के सबसे निचले तबके की अन्य बुनियादी अनिवार्य आवश्यकताओं की ही चिंता कर ली गई होती तो शायद चमकी बुखार की चपेट में आकर दम तोड़नेवाले बच्चों की तादाद को नियंत्रित किया जा सकता था। इस बुखार को लेकर अब तक हुए शोधों में तमाम रिसर्च एक ही बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि इसकी चपेट में समाज के सबसे निचले आय वर्ग के कुपोषित बच्चे ही आ रहे हैं। यानि चमकी बुखार नतीजा है कुपोषण का जिसकी मार समाज का निचला तबका दशकों से नहीं बल्कि सदियों से झेल रहा है। जिस वर्ग के पास पेट भर लेने की ही चुनौती हो वह पोषण की परवाह करे भी कैसे। हालांकि समाज के एक बड़े वर्ग यानि आधी आबादी को अपना मुरीद बनाने के लिए नितीश सरकार ने बिहार में शराबबंदी लागू कर दी जिसके पीछे दलील दी गई कि अव्वल तो इससे स्वास्थ्य क्षेत्र में होने वाला खर्च कम होगा और दूसरे शराब पर बर्बाद किया जाने वाला पैसा लोग अपने खान-पान पर खर्च करेंगे जिससे उन्हें पर्याप्त पोषण मिल पाएगा। हालांकि यह अलग से चर्चा का विषय है कि बिहार में शराबबंदी का जमीनी स्वरूप क्या है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इससे सरकार के राजस्व में जो कमी आई उसकी मार स्वास्थ्य क्षेत्र को भी झेलनी पड़ी है। रहा सवाल स्वच्छता का तो इसकी बानगी बिहार के किसी भी अस्पताल में देखी जा रकती है। उस पर कोढ़ में खाज की तरह भ्रष्टाचार का मसला है जिसके नतीजे में अस्पताल परिसर के पास मानव कंकालों की बरामदगी की खबरें सामने आ रही है। अब चमकी के प्रकोप से निपटने के लिए बनाए गए दबाव के बाद प्रदेश सरकार ने चरणबद्ध तरीके से 1500 बिस्तरों का अलग अस्पताल बनाने की भी बात कही है और केन्द्र की ओर से मौके का मुआयना करने के लिये पहुचे स्वास्थ्य मंत्री ने एक साल के भीतर 100 बेड का अत्याधुनिक आईसीयू बनवाने की बात भी कही है। लेकिन इन डपोरशंखी घोषणाओं का कोई मतलब नहीं रह जाता है अगर स्वास्थ्य क्षेत्र की सेहत सुधारने के लिये समग्र प्रयास ना किया जाए। एक ओर स्वच्छता और कुपोषण के स्तर में सुधार की जरूरत है वहीं लोगों में जागरूकता बढ़ाने का उपाय करना भी आवश्यक है। सरकार के स्तर पर सबसे पहले स्वासथ्य सेवाओं की गुणवत्ता और उपलब्धता सुनिश्चित करने की आवश्यक है और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को बेहतर ढ़ंग से सक्रिय करने पर ध्यान देना होता गाति छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर ही सुलभ हो जाए और बड़े अस्पतालों की भीड़ भी कम हो। इसका बेहतरीन प्रयोग दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक के तौर पर किया गया लेकिन सैद्धांतिक स्तर से आगे बढ़कर इसे व्यावहारिक तौर पर मजबूती और इमानदारी से राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की जरूरत है। साथ ही स्वास्थ्य को प्रदेशों का कार्यक्षेत्र मानकर केन्द्र की ओर से केवल उनकी मदद करने भर की नीति से स्वास्थ्य क्षेत्र की बदहाली दूर नहीं हो सकती बल्कि केन्द्र को अपनी ओर से अलग योजनाएं बनाकर कम से कम जिला स्तर पर अपने द्वारा नियंत्रित व संचालित स्वास्थ्य ढ़ांचे को खड़ा करने की जरूरत है औरा राज्यों को जिले से नीचे के स्तर के काम पर ध्यान देना चाहिये। यानी समग्रता में समझें तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक स्पष्ट और पारदर्शी नीति बनाकर आगे बढ़ने की जरूरत है ताकि इसकी बदहाली को दूर करना संभव हो सके।