सिरदर्दियों की शुरूआत






देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल में जहां अधिकांश बड़ी-छोटी पार्टियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं और भविष्य की राह टटोलने की कोशिशें कर रही हैं वहीं सबसे मजबूत, खुशहाल और गुलाबी तस्वीर भाजपा की ही दिखाई पड़ती है। भाजपा की खुशहाल दिख रही है और भाजपा से जुड़े हुए दल भी जिन्होंने एक बार फिर भगवा बैनर के नीचे सफलता की सुकूनदायक बयार का लुत्फ उठाने में कामयाबी हासिल कर ली है। लेकिन यह तस्वीर का वह पहलू है जो दूर से दिखाई पड़ रहा है। ठीक ऐसे ही जिसके बारे में कहा जाता है कि दूर के ढ़ोल बड़े सुहाने होते हैं। हकीकत तो नजदीक से ताक-झांक करने के बाद ही पता चलती है। इस लिहाज से देखें बेशक भाजपा ने अपने दम पर इस बार लोकसभा सीटों का तिहरा शतक लगाने में कामयाबी हासिल कर ली हो लेकिन अंदरूनी तौर पर इसके दम पर सुख-शांति की उम्मीद कर पाना निरर्थक साबित हो रहा है। इससे सिर्फ इतना ही फायदा हुआ है कि संसद के भीतर सरकार की स्थिरता पर कोई संकट नहीं आएगा। लेकिन इस बड़ी सफलता के साथ जो बड़ी चुनौतियां आई हैं उससे सही तरीके से निपटने में नाकाम साबित होती दिख रही भाजपा के लिये अब नए सिरे से सिरदर्दियों की शुरूआत हो गई है। एक ओर संठन के भीतर की चुनौतियों ने पार्टी के शीर्ष संचालकों के लिये समस्याओं की शुरूआत कर दी है वहीं दूसरी ओर गठबंधन की गांठें भी आपसी विश्वास के अभाव में ढ़ीली पड़ती दिख रही है। रही सही कसर उन ज्येष्ठ-श्रेष्ठ नेताओं की दूरगामी राजनीतिक राह पर की गई पहलकदमी ने पूरी कर दी है जो पिछली सरकार में पूरी तरह सक्रिय थे लेकिन इस बार स्वैछिक अवकाश लेकर तेल देखो और तेल की धार देखो की रणनीति पर अमल करना बेहतर समझ रहे हैं। हालांकि भाजपा के शीर्ष संचालकों के लिये जो समस्याओं की शुरूआत हुई है उसके पीछे कहीं ना कहीं इनकी अपनी ही रणनीतिक कमियां और खामियां हैं जिसे वक्त के साथ सुलझाने में नाकाम रहने के कारण अब ये नासूर बनने की ओर अग्रसर हैं। वास्तव में बीते लोकसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान भाजपा को इतना आत्मविश्वास नहीं था कि उसे इस बार पहले से भी अधिक तादाद में सीटों के साथ सरकार बनाने का जनादेश प्राप्त हो जाएगा। तमाम अटकलों, अनुमानों और कयासों से यही अंदाजा लग रहा था कि बेशक पश्चिम बंगाल और ओडिशा के अलावा पूर्वोत्तर से भी भाजपा को पिछली बार के मुकाबले इस बार कुछ अधिक सीटें मिलेंगी लेकिन जितना फायदा उधर से होता दिख रहा था उसके मुकाबले काफी अधिक नुकसान उन सूबों में होने की संभावना जताई जा रही थी जहां बीते चुनाव में पार्टी ने तकरीबन सभी सीटें जीत ली थीं। लिहाजा भाजपा ने सबसे पहले अपने गठबंधन की मजबूती को दुरूस्त करने की पहल की और बिहार में जदयू को अपने साथ जोड़े रखने के लिये पार्टी ने अपनी जीती हुई पांच सीटें सहयोगियों के लिये छोड़ दीं। इसके अलावा लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान को अलग से राज्यसभा की एक सीट देने का वायदा भी कर लिया गया। दूसरी ओर महाराष्ट्र में शिवसेना को मनाने के लिये तमाम सच्चे-झूठे ऐसे वायदे कर लिये जिन्हें पूरा कर पाने में पसीना आना तय ही है। शिवसेना को समझाया गया कि राष्ट्रीय राजनति में वह भाजपा का सहयोग करे तो प्रदेश की राजनीति में पार्टी उसे बड़े भाई का दर्जा अवश्य देगी। इस तरह शिवसेना भी मुदित-प्रफुल्लित होकर राजग के साथ जुड़ी रही। लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद जिस तरह से भाजपा ने अपने तेवर दिखाए हैं और मनमानी की राह अपनाई है उससे सहयोगियों में भारी असंतोष का माहौल बनना शुरू हो गया है। खास तौर से प्रचंड बहुमत से मिली जीत के नशे में चूर भाजपा ने सहयोगी दलों को सरकार में सांकेतिक भागीदारी देने का जो प्रस्ताव दिया वह राजग में असंतोष की वजह बन गया। जदयू ने तो तत्काल ही इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जबकि शिवसेना और लोजपा ने भागते भूत की लंगोटी समझ कर इसे स्वीकार कर लेने में ही अपनी भलाई समझी। जबकि लोजपा चाह रही थी कि इस बार रामविलास पासवान के बजाय चिराग पासवान को केबिनेट में शामिल किया जाए। लेकिन भाजपा ने अनुभवहीनता को आधार बनाकर चिराग को राज्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया लेकिन ऐसे में केबिनेट की कुर्सी पार्टी के हिस्से में नहीं आती। लिहाजा मन मसोसकर नासाज सेहत के बावजूद रामविलास ने ही पार्टी के कोटे से मंत्री पद स्वीकार करना बेहतर समझा। उधर शिवसेना ने राजग की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने की हैसियत से ना सिर्फ लोकसभा उपाध्यक्ष के पद पर अपनी दावेदारी ठोंक दी है बल्कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर भी उसकी नजरें टिक गई हैं। वैसे भी जब भाजपा पहले ही उसे प्रदेश में बड़े भाई का दर्जा देने का वायदा कर चुकी है तो स्वाभाविक है कि शिवसेना की कोशिश होगी कि विधानसभा के चुनाव में उसके कोटे में भाजपा से अधिक सीटें आएं और मुख्यमंत्री पद पर भी उसकी दावेदारी हो। यानि बीते दिनों के वायदों ने एक नया संकट पैदा कर दिया है। उधर पार्टी के भीतर भी जिस तरह से अरूण जेटली और सुषमा स्वराज ने स्वेच्छा से सरकार से किनारा किया है वह काफी कुछ बयान कर रहा है। जेटली को बिना जिम्मेवारी के केबिनेट में शामिल होने का प्रस्ताव दिया गया और सुषमा को तो राज्यपाल बनने की बधाई भी एक केबिनेट मंत्री ने दे दी। लेकिन लौटती डाक से जिस तरह सुषमा ने इस बधाई को स्वीकार करने से इनकार करते हुए बता दिया कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा है वहीं जेटली ने भी केबिनेट में शामिल होने के प्रस्ताव पर मोदी को हाथ जोड़कर अपने घर से विदा कर दिया था। अब इन दोनों के साथ सही तरीके से पेश आने की राह ढ़ूढ़ना भी पार्टी के शीर्ष संचालकों के लिये चुनौती बन गया है और सरकार के संचालकों को संगठन के संचालन से अलग करने की जो नीति अपनाई गई है उसे लागू करने के लिये संगठन में अपने मनमुताबिक लोगों को आगे लाना भी एक बड़ी चुनौती है। यानि चुनौतियां काफी तेजी से सामने आ रही हैं और समाधान के लिये सही दिशा में कदम उठाना बेहद आवश्यक है वर्ना बहुमत का आंकड़ा सदन के बाहर कुछ भी काम नहीं आएगा।