कांग्रेस में कोहराम पर विराम?







लोकसभा चुनाव में करारी हार की जिम्मेवारी लेते हुए राहुल गांधी का अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना और सभी ओहदेदारों को पद छोड़ने की सलाह देते हुए पार्टी के पुनर्गठन की जरूरत पर बल दिया जाना उस बड़े तूफान की तरह सामने आया है जिससे बचने की राह तलाशने में कांग्रेस पार्टी के तमाम दिग्गजों के पसीने छूट रहे हैं। हालांकि पहला प्रयास तो यही हुआ कि किसी तरह राहुल को मना लिया जाए ताकि वे अपना पद छोडने का फैसला बदलने के लिये सहमत हो जाएं। इसके लिये धरने से लेकर अनशन तक का दिखावा हुआ लेकिन जब राहुल टस से मस नहीं हुए तो दूसरा प्रयास तात्कालिक तौर पर सोनिया गांधी को पार्टी प्रमुख बनाने का हुआ। लेकिन राहुल पहले ही कह चुके थे कि इस बार गांधी परिवार का कोई भी सदस्य कांग्रेस का नेतृत्व नहीं संभालेगा लिहाजा सोनिया ने भी कांग्रेसियों के प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया। उसके बाद अब जबकि कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर नेतृत्व का खालीपन पार्टी में अराजकता, अनियतिमता व असंतोष का ही नहीं बल्कि जमीनी स्तर पर टूट फूट का भी सबब बनने लगा तब कांग्रेसियों के पास आपस में आम सहमति बनाकर किसी नए चेहरे को आगे लाने के विकल्प को अमली जामा पहनाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है। इस विकल्प पर विचार के लिये अगले सप्ताह कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक आयोजित होने की बात कही जा रही है और नये अध्यक्ष के नामों को लेकर भी चर्चा शुरू हो गई है जिसमें मुकुल वासनिक का नाम सबसे आगे बताया जा रहा है। हालांकि यह नये नेतृत्व के नाम को लेकर महज चर्चा का आरंभ ही है जिसमें पहली जरूरत है कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाकर राहुल के त्यागपत्र को स्वीकृत किया जाये और औपचारिक तौर पर संगठन की भावी राहें तय करने को लेकर इस बात पर आमसहमति से कोई फैसला किया जाये कि अब यहां से आगे की राह कैसे तय की जाएगी। जाहिर है कि अब अध्यक्ष पद की दौड में कई नाम सामने आएंगे और उन चेहरों की खूबियों व खामियों को लेकर चचाएं भी होंगी। साथ ही तमाम गुटबाजियां भी खुल कर सामने आएंगी और हर खेमे का प्रयास यही होगा कि जब गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति को ही नेतृत्व की बागडोर संभालनी है तो इस पद पर अपने मनपसंद चेहरे को ही बिठाया जाए। लेकिन इस सब चर्चाओं से अलग अगर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर नजर डालें तो इस बात में कोई दो राय नहीं है कि राहुल ने पार्टी में पद छोडने की जो पहल की है वह उनके लिये मजबूरी बन गई थी। राहुल का यह कहना भी अब बेहतर समझ में आ रहा है कि किस तरह वे पूरे लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान खुद को अकेला महसूस कर रहे थे और उन्हें लग रहा था मानों मोदी सरकार के खिलाफ वे अकेले लड रहे हों। अन्य विरोधी दलों की बात छोड दें तो कांग्रेस के भीतर उनकी बातों को कितनी गंभीरता से लिया जा रहा होगा इसका सहज अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने त्यागपत्र की पेशकश करते हुए बाकी पदाधिकारियों को भी अपना पद छोडने के लिये कहा तो उनकी बात को पार्टी के किसी भी बडे नेता ने नहीं माना और स्थिति यह रही कि पार्टी महासचिवों में से सिर्फ राहुल के करीबी कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ही अंतिम समय में अपने पद से त्यागपत्र दिया वर्ना बाकी तमाम महारथी आज भी अपने पद पर यथावत विराजमान हैं। यह हकीकत इसी बात का इशारा कर रही है कि कांग्रेस की कमान संभालते हुए सतही तौर पर भले ही गांधी परिवार के लोग पार्टी के सुप्रीम संचालक दिखाई पडते हों लेकिन गहराई में उतर कर देखें तो कांग्रेस का अध्यक्ष बनना इस दिनों इस परिवार के लिये सिरदर्दी की ही वजह बना हुआ है। साथ ही राहुल की बात का जिन कांग्रेसियों की सेहत पर जरा भी फर्क नहीं पडा वे अपने में से किसी को अध्यक्ष बनाकर उसके हर आदेश का अनुपालन कर पाएंगे इसमें तो संदेह ही है। लिहाजा इतना तो तय है कि कांग्रेस में जारी कोहराम पर विराम लगाने के लिये एक नए कार्यकारी अध्यक्ष का चयन करने की जो राह तैयार की जा रही है उस पर चलते हुए पार्टी सांगठनिक तौर कतई मजबूत नहीं होने जा रही है। बल्कि अधिक संभावना तो इसी बात की है कि जिस तरह जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं व पार्टी के टिकट पर चुन कर आए विभिन्न जनप्रतिनिधियों के बीच भगदड का माहौल दिख रहा है और पार्टी छोडने वालों की कतार दिनों दिन लंबी होती जा रही है वैसा ही माहौल कहीं नये नेतृत्व के नाम पर मुहर लगने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखाई पड सकती है। जब तक हर खेमे को यह उम्मीद है कि छींका उसकी ही किस्मत का टूटने जा रहा है तब तक ही संगठन में केन्द्रीय स्तर पर एकजुटता का माहौल दिख रहा है लेकिन जब अंतिम फैसला सामने आ जाएगा उसके बाद उस वर्ग की क्या प्रतिक्रिया रहेगी यह देखने लायक होगा जिसके हितों की अनदेखी करके उसके विरोधी गुट के हाथों में पार्टी की कमान थमा दी जाएगी। इसके अलावा अभी एक उम्मीद यह भी है कि राहुल ने पार्टी के पुनर्गठन के लिये जो पैंतरेबाजी की है उसमें कोई गहरा अर्थ छिपा हुआ है और इस हार के बहाने नाकारों की फौज को अलग करने के बाद वे एक बार फिर पार्टी की कमान अपने हाथों में ले लेंगे। इस उम्मीद में भी अभी राहुल के खिलाफ कोई खुलकर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा है। सबको इंदिरा गांधी की मौत के बाद प्रणब मुखर्जी के यह कह देने का अंजाम याद ही है कि अब पार्टी को संभालने के लिये वे आगे आएंगे। उनका इतना भर कहना उन्हें कितना महंगा पडा इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्हें इंदिरा से लेकर मनमोहन सिंह तक की कांग्रेस की तमाम सरकारों में नंबर दो की हैसियत से ही संतोष करना पडा। लिहाजा अब कोई वैसी गलती दोहरना नहीं चाह रहा लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है उहापोह का कुहासा छंटने के बाद भी सभी लोग यथास्थिति को स्वीकार कर लेंगे। यानी कांग्रेस में जारी अंदरूनी कोहराम के सतह पर आने की संभावना को कतई खारिज नहीं किया जा सकता है।