न्यायपालिका मांग रही न्याय




(देवानंद राय)

बीते कुछ समय से देश की न्यायपालिका अपने न्यायिक कार्यों से कम कुछ अलग तरह के मुद्दे से चर्चा में रह रही है जजों की बेंच गठन से लेकर मामलों की सुनवाई की रोस्टर प्रणाली को लेकर पिछले वर्ष जब जजों ने पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस किया,फिर उसके बाद मुख्य न्यायाधीश जब मी टू के चपेट में आ गए तब कहा गया कि पहले तो कहा गया सुप्रीम कोर्ट खतरे में थी अब मिलार्ड खतरे में है पर अब ताजा मसले से लगता है कि न्यायपालिका में सब कुछ ठीक नहीं है| उसकी व्यवस्थाओं पर जहां पहले दबी जुबान में आवाजें उठती थी अब वह खुलकर उठने लगी है ताजा मामला है इलाहाबाद कोर्ट के जज रंगनाथ पांडेय द्वारा उठाया गया जजों की नियुक्ति से जुड़ा मामला इसने फिर से कॉलेजियम व्यवस्था पर सवाल खड़ा कर दिया है वैसे यह व्यवस्था बीते कुछ वर्षों से खुद सवालों के घेरे में रही है तथा जब यह व्यवस्था बनी थी।उसी वक्त इसके नियमों की स्पष्टता ना होने के कारण यह शुरू से ही स्वयं न्यायपालिका के लिए भी दिक्कतें खड़ी कर चुकी है और हो ही क्यों न क्या आप बता सकते हैं कि किसी जिले का डीएम अपने रिटायरमेंट से पहले अपने पुत्र को डीएम घोषित कर सकता है ? जवाब होगा नहीं ! पर यहां तो वही खेल खेला जा रहा है जज अपने रिटायरमेंट से पहले खुद नए जज की नियुक्ति करके चले जाते हैं| नेताओं पर वंशवाद का खूब आरोप लगता है उनकी जमकर बखिया उधेड़ ई जाती है पर देश की शीर्ष न्यायपालिका भी स्वयं 10-12 परिवारों द्वारा ही संचालित होती है और तर्क यह दिया जाता है कि न्यायाधीश एक परिवार की तरह होता है उसे न्यायिक प्रणालियों के बारे में अन्य लोगों से अधिक पता होता है इसलिए वह स्वयं जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण में उचित फैसले ले सकता है| परंतु मोदी सरकार ने जब पिछले अपने कार्यकाल में इस व्यवस्था को खत्म कर एक राष्ट्रीय न्यायिक चयन आयोग की व्यवस्था बनाने की बात कही थी तो जज साहब नेतागिरी पर उतर आए कहने लगे यह सीधे तौर पर न्यायपालिका में हस्तक्षेप है| न्यायपालिका विधायिका से स्वतंत्र है| पर अब लगता है इस स्वतंत्रता का प्रयोग बंद कमरे में पार्टी के दौरान अपने पसंद के और अपनी ही रिश्तेदारों को जज बनाने में खूब इस्तेमाल हो रहा है जैसा कि इलाहाबाद वाले जज साहब ने कहा| जस्टिस रंगनाथ पांडेय की एक और बात चिंतित करने वाली है प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में उन्होंने न्यायपालिका में परिवारवाद के साथ जातिवाद का बोलबाला बताया है। परिवारवाद तो कॉलेजियम व्यवस्था से ही शुरू हो चुकी थी परंतु जातिवाद का होना समझ से परे है और यह सोचने पर मजबूर करता है क्या इतने हाईक्लास और खुद को अल्ट्रा मॉडर्न मानने वाले यह लोग खुद को अभी भी जाति के तराजू में तौलते हैं और आरोप भारतीय जनता पर लगाते हैं कि वे कम पढ़े लिखे हैं इसलिए जातियों में बँटे रहते हैं पर यहां तो कुछ ऐसा लगता है कि उन्होंने भले ही सफेद शर्ट के ऊपर काला कोट पहन लिया हो पर मन में अभी भी वह सामाजिक बुराइयों की काली छाया अभी भी व्याप्त है। देश का आम आदमी आज भी कोर्ट पर सबसे ज्यादा भरोसा करता है यह जानते हुए भी कि यहां पर न्याय मिलना कितना कठिन है परंतु जब उसे उसे भले ही दशकों बाद न्याय मिलता है सही न्याय मिलता है तो उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है उसका विश्वास न्यायपालिका को और मजबूती प्रदान करता है। तभी तो लोग कहते हैं कि चलिए कोर्ट में दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा पर बीते कुछ वर्षों में न्याय मिलने में विलंब होना ने एक नई मानसिकता गढ़ दी है कि कोर्ट- कचहरी के चक्कर से जितना हो सके उतना दूर रहो। यह हमारी न्यायपालिका की पूरी तरह विफलता है कि वह आजादी के इतने सालों बाद भी सभी को एक तय समय में न्याय देने में विफल रहा है बावजूद इसके कि वह सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त है। वर्ष 2015 में मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नेशनल जुडिशल कमिशन (एनएजेसी) बनाया उसी समय सरकार ने शीर्ष न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग एक्ट बनाया एनएजेसी में कुल छः सदस्य होंगे भारत के मुख्य न्यायाधीश के अध्यक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश भी इसके सदस्य होंगे केंद्रीय मंत्री को इस का पदेन सदस्य बनाए जाने का प्रस्ताव था ।तथा दो प्रबुद्ध नागरिकों को भी इसके सदस्य के रूप में शामिल किए जाने की बात थी। इन दो प्रबुद्ध नागरिकों का चयन प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष सहित तीन सदस्य वाली एक समिति के द्वारा होना था। तथा  प्रबुद्ध नागरिकों का कार्यकाल 3 वर्ष के लिए था तो वहीं पदेन सदस्य अपने कार्यकाल तक सदस्य बने रहेंगे। समाज के हर वर्ग की प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए  प्रबुद्ध नागरिकों में से एक पद एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक व महिला के लिए आरक्षित रखा गया तथा यह भी कहा गया कि एक व्यक्ति एक ही बार मनोनीत किया जाएगा। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इस कमीशन को ही 2015 में असंवैधानिक ठहरा दिया उनका कहना था कि इस प्रकार के निर्णय से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार बढ़ेगा क्योंकि हो ना हो कल कोई अगर भ्रष्ट सरकार आती है तो निश्चित तौर पर भ्रष्ट जजों की नियुक्ति करेगी और न्यायपालिका को और खराब बनाएगा वैसे यह तर्क कुछ हद तक सही है। परंतु वर्तमान में जिस कॉलेजियम व्यवस्था के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण होता है वह भी पूरी तरह पाक साफ नहीं है। कॉलेजियम एक फोरम है जो न्यायपालिका के तीन केसेज का परिणाम है इसलिए इसे थ्री जजेस केसेज के नाम से भी जाना जो क्रमशः 1981 1993 और 1998 के केस से संबंधित है वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठ जज मिलकर करते हैं यह व्यवस्था 1998 में बनाई गई थी तथा हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश के साथ दो वरिष्ठ जज मिलकर करते हैं यह व्यवस्था 1993 से हैं 1993 में ही सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में न्यायपालिका की राय को सर्वोच्च माना था कोलेजियम व्यवस्था जो 1993 से लागू है कई बार यह खुद सवालों के घेरे में आ चुका है जब एक जज के द्वारा मनमाने ढंग से न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित फाइल को राष्ट्रपति के द्वारा रोक लिया गया था तब 1993 में बने नियम के द्वारा फिर से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति को प्रारंभ किया गया जो वर्तमान में अस्तित्व में है| जिसमें मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठ जज मिलकर नए मुख्य न्यायाधीश न्यायाधीश अन्य नियुक्ति करते हैं विश्व के कई अन्य देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली बहुत ही पारदर्शी है यहां तक कि अमेरिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को सीनेट से मंजूरी लेने के बाद ही किया जाता है| परंतु अपने देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीशों के द्वारा ही किया जाना कहीं ना कहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था को ठेस पहुंचाता है इस कारण अब समय यह है कि न्यायपालिका तथा विधायिका मिलकर एक बीच का रास्ता निकाले ताकि आम लोगों का भरोसा न्यायाधीश तथा न्यायपालिका पर बना रहे|