राहुल का अनर्गल प्रलाप




कांग्रेस अध्यक्ष के पद से राहुल गांधी ने इस्तीफा देने की जो पहल की है उसकी इमानदारी उनकी ही बातों के कारण संदेहों के दायरे में आ गई है। अगर राहुल ने बीते चुनावों की हार की जिम्मेवारी लेते हुए सहज व सामान्य तरीके से पद छोड़ने की पेशकश की होती तो इस तरह का कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन सवाल उठ रहा है इस्तीफा देने के तरीके और इसके लिये सार्वजनिक किये गये चार पन्ने के पत्र के मजमून से। इसमें कहने को तो उन्होंने जिम्मेवारी ली है लेकिन पूरे पत्र में उन्होंने हार के जितने कारण गिनाये हैं उसमें उनकी भूमिका कही स्पष्ट नहीं हो रही है। बल्कि वे एक ओर तो कांग्रेस के सभी पदाधिकारियों और बड़े नेताओं को दोषी ठहरा रहे हैं और दूसरी ओर देश की पूरी व्यवस्था और संप्रभुता के साथ व्यवस्था का संचालन करने वाली तमाम संस्थाओं की निष्पक्षता को उन्होंने कठघरे में खड़ा कर दिया है। अलबत्ता अपने इस्तीफे को जायज ठहराने के लिये उन्होंने यह लिखा है कि चुंकि इस हार के लिये पार्टी के सभी बड़े नेता व पदाधिकारी जिम्मेवार हैं लिहाजा यह गलत होता कि वे तो अध्यक्ष पद पर बरकरार रहते और बाकियों से इस्तीफा ले लेते। यानि राहुल इस वजह से इस्तीफा नहीं दे रहे हैं क्योंकि उनके मार्गनिर्देशन में लड़े गये चुनाव में उनके निर्देश व सहमति से लिये गये फैसले गलत साबित हुए बल्कि वे यह बताना चाह रहे हैं कि बाकी सब गलत रहे हैं। सिवाय उनके। इसके बावजूद वे इसलिये इस्तीफा दे रहे हैं क्योंकि बाकियों को इस्तीफा देने के लिये नैतिक तौर पर प्रेरित किया जा सके। निश्चित ही यह राहुल का अनर्गल प्रलाप और बचकाना प्रयास ही नहीं है बल्कि अपनी गलतियों, कमियों व खामियों पर पर्दा डालकर ख्ुाद को महान दर्शाने की मुकम्मल कोशिश भी है। अगर राहुल के पत्र को व्यावहारिक नजरिये से देखें तो यह पूरी तरह खोखले विचारों पर आधारित मनमाना, गलत और अनर्गल है। मसलन उन्होंने लिखा है कि उनकी लड़ाई कभी भी सत्ता के लिए साधारण लड़ाई नहीं रही। अब सवाल उठता है कि उनकी लड़ाई में असाधारण क्या था। वे सहज व सामान्य राजनीतिक दल के अध्यक्ष के नाते ही तो अपनी पार्टी की अगुवाई कर रहे थे और भाजपानीत राजग से सत्ता की कमान छीनने के लिये चुनाव मैदान में उतरे थे। इसमें असामान्य लड़ाई जैसी तो कोई बात ही नहीं है। खैर, आगे राहुल लिखते हैं कि- ''मेरे मन में बीजेपी के खिलाफ कोई नफरत नहीं है, लेकिन मेरे शरीर का कतरा-कतरा उनके विचारों का विरोध करता है। यह आज की लड़ाई नहीं है। यह बरसों से चली आ रही है। वे भिन्नता देखते हैं और मैं समानता देखता हूं। वे नफरत देखते हैं, मैं प्रेम देखता हूं। वे डर देखते हैं, मैं आलिंगन देखता हूं।'' अब सवाल है कि जिस भाजपा में राहुल को इतनी कमियां, खामियां और गलतियां दिख रही है उसके खिलाफ उनके मन में कोई नफरत नहीं है, यह बचकानी बात नहीं है तो और क्या है? एक ओर तो राहुल इस्तीफा दे रहे हैं और दूसरी ओर वे यह भी कह रहे हैं कि- ''मैं किसी भी रूप में इस युद्ध से पीछे नहीं हट रहा हूं। मैं कांग्रेस पार्टी का सच्चा सिपाही, भारत का समर्पित बेटा हूं। और अपनी अंतिम सांस तक इसकी सेवा और रक्षा करता रहूंगा।'' यानि सीधे तौर पर तो यही समझ आ रहा है कि राहुल का इस्तीफा सिर्फ इस दिखावा है, इसमें इमानदारी नहीं बल्कि राजनीति और कूटनीति छिपी हुई है। कहने को तो वे चुनावी हार की जिम्मेवारी लेते हुए पद छोड़ने की पहल कर रहे हैं लेकिन लगे हाथों वे यह भी बता रहे हैं कि- ''हमने मजबूत और सम्मानपूर्वक चुनाव लड़ा। हमारा चुनाव अभियान भाईचारे, सहिष्णुता और देश के सभी लोगों, धर्मों और सम्प्रदायों को सम्मान करने को लेकर था। मैंने व्यक्तिगत तौर पर पीएम और आरएसएस के खिलाफ लड़ाई की।'' यानि राहुल को अपने पूरे चुनाव अभियान में कोई कमी या खामी नहीं दिख रही बल्कि उनके मुताबिक यह हार इसलिये नहीं हुई क्योंकि चुनाव की रणनीतियों में कमी थी या जनता ने कांग्रेस को नकारा है। बल्कि राहुल के मुताबिक हार इसलिये हुई क्योंकि पूरी व्यवस्था और देश के सभी संस्थान पक्षपाती रहे। राहुल के मुताबिक- ''एक स्वतंत्र चुनाव के लिए सभी संस्थानों का निष्पक्ष होना जरूरी है। कोई भी चुनाव फ्री प्रेस, स्वतंत्र न्यायपालिका और पारदर्शी चुनाव आयोग के बगैर निष्पक्ष नहीं हो सकता है। और यदि किसी एक पार्टी का वित्तीय संसाधानों पर पूरी तरह वर्चस्व हो तो भी चुनाव निष्पक्ष नहीं हो सकता है। हमने 2019 में किसी एक पार्टी के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ा। बल्कि हमने विपक्ष के खिलाफ काम करने रहे हर संस्थान और सरकार की पूरी मशीनरी के खिलाफ चुनाव लड़ा है। यह सब पूरी तरह साफ हो गया है कि हमारे संस्थानों की निष्पक्षता अब बाकी नहीं है।'' निश्चित ही ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करके राहुल यही दर्शाना चाह रहे हैं उनमें तो कमी रही ही नहीं है। सारी कमियां कांग्रेसियों में रही और रही सही कसर पूरी व्यवस्था की भू-लुंठित निष्पक्षता या पक्षपाती रवैये ने पूरी कर दी। अब सवाल है कि ऐसी मानसिकता के साथ अगर राहुल चुनावी नतीजों की विवेचना करके उसके मुताबिक अपनी नीतियां तय कर रहे हैं और भविष्य की राह तैयार करने का प्रयास कर रहे हैं तो उनकी इमानदारी पर तो सवाल उठेगा ही। इतना ही नहीं बल्कि वे नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने में कोई भूमिका भी नहीं निभाना चाह रहे हैं और यह भी नहीं चाहते कि मौजूदा बड़े नेताओं में से कोई इस पद पर बैठे। यानि किसी कद्दावर को इस पद पर बिठाने का रिस्क वे नहीं लेना चाहते। बल्कि इससे तो यही पता चलता है कि वे दिखावे के तौर पर किसी ऐसे चेहरे को आगे करने के पक्ष में है जिसे इनका खड़ाऊं भी ना कहा जाए और उसका कद भी ऐसा ना हो कि उसके नेतृत्व को सभी आंखें मूंद कर स्वीकार करने के लिये सहमत हो सकें। बल्कि उनकी बातों से जो समझ में आ रहा है उसके मुताबिक वे ऐसे चेहरे को आगे लाना चाह रहे हैं जिसे जब चाहें कान पकड़ कर किनारे लगा सकें। निश्चित ही उनकी बातों में कहीं कोई इमानदारी नहीं है बल्कि वे तो मौजूदा बड़े व सफेद हाथियों को हाशिये पर डालने की कोशिश कर रहे हैं। निश्चित ही यह उनका अनर्गल प्रलाप है जिसमें अगर इमानदारी ही नहीं है तो उसकी सफलता कैसे सुनिश्चित हो सकती है।